ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 28/ मन्त्र 7
ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा
देवता - वरुणः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
मा नो॑ व॒धैर्व॑रुण॒ ये त॑ इ॒ष्टावेनः॑ कृ॒ण्वन्त॑मसुर भ्री॒णन्ति॑। मा ज्योति॑षः प्रवस॒थानि॑ गन्म॒ वि षू मृधः॑ शिश्रथो जी॒वसे॑ नः॥
स्वर सहित पद पाठमा । नः॒ । व॒धैः । व॒रु॒ण॒ । ये । ते॒ । इ॒ष्टौ । एनः॑ । कृ॒ण्वन्त॑म् । अ॒सु॒र॒ । भ्री॒णन्ति॑ । मा । ज्योति॑षः । प्र॒ऽव॒स॒थानि॑ । ग॒न्म॒ । वि । सु । मृधः॑ । शि॒श्र॒थः॒ । जी॒वसे॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मा नो वधैर्वरुण ये त इष्टावेनः कृण्वन्तमसुर भ्रीणन्ति। मा ज्योतिषः प्रवसथानि गन्म वि षू मृधः शिश्रथो जीवसे नः॥
स्वर रहित पद पाठमा। नः। वधैः। वरुण। ये। ते। इष्टौ। एनः। कृण्वन्तम्। असुर। भ्रीणन्ति। मा। ज्योतिषः। प्रऽवसथानि। गन्म। वि। सु। मृधः। शिश्रथः। जीवसे। नः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 28; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्युरित्याह।
अन्वयः
हे असुर वरुण ये त इष्टावेनः कृण्वन्तं भ्रीणन्ति ते वधैर्मा वर्त्तेरन्। ज्योतिषः प्रवसथानि मा गन्म त्वं नो जीवसे मृधो विशिश्रिथो यतो वयं सततं सुखं सुगन्म ॥७॥
पदार्थः
(मा) निषेधे (नः) अस्माकम् (वधैः) हननैः (वरुण) वायुरिव वर्त्तमान (ये) (ते) तव (इष्टौ) यजने सङ्गतिकरणे (एनः) पापम् (कृण्वन्तम्) कुर्वन्तम् (असुर) प्रक्षेप्तः (भ्रीणन्ति) भर्त्सयन्ति (मा) (ज्योतिषः) प्रकाशात् (प्रवसथानि) प्रवासान् (गन्म) प्राप्नुयाम (वि) (सु)। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः (मृधः) सङ्गमान् (शिश्रथः) हिंधि (जीवसे) जिवितुम् (नः) अस्माकम् ॥७॥
भावार्थः
ये मनुष्या धार्मिकान्न हिंसन्ति दुष्टान् ताडयन्ति कस्याऽपि प्रवासनं न निरुन्धन्ति सर्वेषां सुखाय शत्रून् विजयन्ते तेऽतुलं सुखमाप्नुवन्ति ॥७॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर मनुष्य क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (असुर) दुर्गुणों को दूर करनेहारे (वरुण) वायु के तुल्य वर्त्तमान पुरुष (ये) जो लोग (ते) आपके (इष्टौ) संगति करने रूप व्यवहार में (एनः) पाप (कृण्वन्तम्) करते हुए को (भ्रीणन्ति) धमकाते हैं वे (नः) हमारे (वधैः) मारने से (मा) न वर्त्तें (ज्योतिषः) प्रकाश से (प्रवसथानि) प्रवासों दूर देशों को (मा,गन्म) न प्राप्त हों आप (नः) हमारे (जीवसे) जीवन के लिये (मृधः) संग्रामों को (वि,शिश्रथः) विशेषकर मारिये जिससे हमलोग निरन्तर सुख को (सु) अच्छे प्रकार प्राप्त होवें ॥७॥
भावार्थ
जो मनुष्य धर्मात्माओं को नहीं मारते, दुष्टों को ताड़ना देते, किसी के प्रवास को न रोकते और सबके सुख के लिये शत्रुओं को जीतते हैं, वे अतुल सुख को प्राप्त होते हैं ॥७॥
Bhajan
आज का वैदिक भजन 🙏 1127
ओ३म् मा नो॑ व॒धैर्व॑रुण॒ ये त॑ इ॒ष्टावेन॑: कृ॒ण्वन्त॑मसुर भ्री॒णन्ति॑ ।
मा ज्योति॑षः प्रवस॒थानि॑ गन्म॒ वि षू मृध॑: शिश्रथो जी॒वसे॑ नः ॥
ऋग्वेद 2/28/7
कोई आ जाए तो जगा जाए
जीवन में यज्ञ समा जाए
हमें राह सुपथ की दिखा जाए
कोई आ जाए तो जगा जाए
यज्ञ तुम्हारे देखे हैं प्रभु
इस सन्सार में आते जाते
हर देवों को देखा हमने
हर प्राणी को सुख पहुँचाते
हमको भी याज्ञिक देव बना
कोई यज्ञ का पाठ पढ़ा जाए
कोई आ जाए तो जगा जाए
जीवन में यज्ञ समा जाए
हमें राह सुपथ की दिखा जाए
कोई आ जाए तो जगा जाए
पाप कर्म से क्यों दु:ख झेलें
बीच भँवर का भय क्यों ले लें
क्यों ना जग की यज्ञशाला में
बैठ के प्रभु से गरु-गुण ले लें
पाप की कश्ती है टूटी हुई
उसे कैसे पार किया जाए
कोई आ जाए तो जगा जाए
जीवन में यज्ञ समा जाए
हमें राह सुपथ की दिखा जाए
कोई आ जाए तो जगा जाए
पाप दु:खों से बचना है तो
सत्यासत्य विवेक जगाएँ
प्रभु की शरण में ज्ञान प्रकाश की
याचना कर जीवन को जितायें
सात्विक हृदय की शुभ याचना
कैसे ना प्रभु से सुनी जाए ?
कोई आ जाए तो जगा जाए
जीवन में यज्ञ समा जाए
हमें राह सुपथ की दिखा जाए
कोई आ जाए तो जगा जाए
कष्ट क्लेष सम हिन्साएँ
पाप के फल के रूप में आतीं
रह रह के सारा जीवन भर
जान का दुश्मन बन के सतातीं
जान-बूझकर फिर क्यों दु:ख की
आग को हम सुलगायें
कोई आ जाए तो जगा जाए
जीवन में यज्ञ समा जाए
हमें राह सुपथ की दिखा जाए
कोई आ जाए तो जगा जाए
हे आत्मन् ! वरणीय वरुण की
शरण में जाकर माँग ले ज्योति
ज्ञान प्रकाश की कर ले याचना
जो है सुख-शान्ति की बपौती
कष्टों के मूल है पाप तेरे
फिर क्यों ना इसे भगा पाए
कोई आ जाए तो जगा जाए
जीवन में यज्ञ समा जाए
हमें राह सुपथ की दिखा जाए
कोई आ जाए तो जगा जाए
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :-
राग :- शिवरंजनी
गायन समय रात्रि का तीसरा प्रहर, ताल कहरवा 8 मात्रा
शीर्षक :- ज्योति कभी हमसे दूर ना हो 🎧 भजन 706 वां
*तर्ज :- *
725-00126
Vyakhya
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
ज्योति कभी हमसे दूर ना हो
यह संसार इष्टि है।भगवान इस यज्ञ के यजमान है। इस जगत के प्रति हमारी दृष्टि वह होनी चाहिए जो एक यज्ञ के प्रति होती है। जब हममें से कोई यज्ञ करता है तो यज्ञ के समय यजमान और यज्ञभूमि में उपस्थित अन्य लोगों के मनों में पवित्र भावनाएं होती हैं,और उतने समय के लिए हम कोई अपवित्र कर्म भी नहीं करते उस काल में हम पाप से बचे रहने का पूर्ण प्रयत्न करते हैं। यदि उस समय कोई किसी प्रकार की पापपूर्ण अनुचित बात करें,तो उसे निंदनीय और दंडनीय समझा जाता है।
इस संसार को भी हमें इसमें रहते हुए यज्ञ की भावना से ही देखना चाहिए।
इस संसार में रहकर जो हमें भान्ति भान्ति का जीवन व्यतीत करना होता है उस सबमें हमें अपने मन में किसी प्रकार की पाप की वृत्ति उत्पन्न नहीं होनी देनी चाहिए । और ना ही आचरण द्वारा कोई पाप कर्म करना चाहिए। हमें भावना रखनी चाहिए कि हम किसी ऐसे वैसे संसार में नहीं रह रहे हम तो प्रभु की यज्ञशाला में बैठे हैं। प्रभु की यज्ञशाला जैसे पवित्र स्थान में बैठकर हम मन में पाप-संकल्प और आचरण में पाप-कर्म कैसे रख सकते हैं? जो लोग भगवान की इष्टि में बैठकर भी पाप करेंगे,जो पाप को छोड़ने को तैयार नहीं होंगे, उन पर भगवान के वज्र गिरेंगे। उन्हें भांति भांति के उनके पाप कर्म के प्रति फल के रूप में कष्ट -क्लेष प्राप्त होंगे। पाप का जीवन दु:ख पहुंचाए बिना नहीं रह सकता।पाप का फल दु:ख तो अवश्यंभावी है। उसका
दु:ख से बचने का एकमात्र उपाय पाप को छोड़ देना है। और पाप से बचने का उपाय प्रकाश है। सत्यासत्य का विचार करने वाला ज्ञान है। हमसे जो पाप होते हैं वे इसलिए तो हो जाते हैं कि हमें किसी विशेष स्थिति को बनाने वाली सारी बातों का पूर्ण ज्ञान नहीं होता। तो अपने बाहर और भीतर किसी ना किसी चीज के संबंध में ज्ञान की कमी से ही हम से पाप हो जाता है ।ज्ञ भगवान की शरण में जाकर हमें उनसे इस ज्ञान-प्रकाश की याचना करनी चाहिए और भगवान के गुणों को देखकर उनके अनुसार चलने का स्वभाव बनाकर यहां प्रकाश ग्रहण करने का क्रियात्मक प्रयत्न करना चाहिए। जब प्रकाश प्राप्ति की यह प्रार्थना और उसके ग्रहण करने का यह क्रियात्मक प्रयत्न मिल जाएंगे तो वरणीय भगवान की हम पर सचमुच कृपा हो जाएगी, और फिर हमसे प्रकाश का कभी भी वियोग ना होगा। और इसलिए हम से फिर कोई पाप ना हो सकेगा । जब यह प्रकाश हमें पाप से बचा देगा तो पाप के फल रूप जो भांति भांति के कष्ट क्लेष रूप हैं अर्थात और अदाएं हमें प्राप्त होती हैं उनसे भी हमारे जीवन की रक्षा हो जावेगी।
तब हमें जीवन प्राप्त होगा जिसे वस्तुतः सही जीवन कहते हैं। हे मेरे आत्मा! वरणीय वरुण प्रभु की शरण में जाकर सदा उसे ज्योति की,ज्ञान के प्रकाश की याचना किया कर ।जब तुझ में ज्ञान की ज्योति जग जाएगी तो सब कष्टों का मूल तेरे पास ना फटकेगा।
🕉🧘♂️ईश भक्ति भजन
भगवान् ग्रुप द्वारा🎧🙏
विषय
ज्योति का अप्रवास
पदार्थ
१. हे (वरुण) = पापनिवारक प्रभो! (असुर) = प्राणशक्ति का संचार करनेवाले प्रभो ! (ये) = जो (ते इष्टौ) = तेरे यज्ञ में (एनः कृण्वन्तम्) = पाप करते हुए को (भ्रीणन्ति) = हिंसित करते हैं (नः) = हमें (वधैः) = उन वधों से (मा) = मत हिंसित करिए । वरुण पाशी हैं। वरुण सम्बन्धी यज्ञ यही है कि हम अपने को व्रतों के बन्धन में बाँधें । इस यज्ञ में पाप का स्वरूप यही है कि जीवन अव्रती हो। इस अव्रती का हिंसन होता ही है। हम व्रतमय जीवनवाले हों और हिंसित न हों। २. हम व्रतमय जीवनवाले तभी नहीं होते जबकि हमारा ज्ञान लुप्त हो जाता है । सो प्रार्थना करते हैं कि हम (ज्योतिषः) = ज्ञानज्योति के (प्रवसथानि) = प्रवासों को (मा गन्म) = मत प्राप्त हों, अर्थात् हमारी ज्योति सदा हमारे में बसे । इस ज्ञानाग्नि के द्वारा (मृध:) = हमारा वध करनेवाली वासनाओं को (सु) = अच्छी तरह (विशिश्रथः) = हमारे से मुक्त करिए-पृथक् करिए और इस प्रकार (नः जीवसे) हमारे उत्कृष्टजीवन के लिए होइए।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा जीवन व्रती हो- हम ज्ञानज्योति से सदा युक्त रहें। इस ज्ञानज्योति में वासनाएँ भस्म हो जाएँ, ताकि हमारा जीवन उत्कृष्ट हो। हमारी बुद्धि कहीं चरने न चली जाए।
विषय
प्रभु से रक्षादि की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( वरुण ) सर्वश्रेष्ठ ! दुष्टों के वारण करने वाले, राजन् ! प्रभो ! गुरो ! हे ( असुर ) वायु के समान प्राणों के देने वाले ! हे बलवन् ! ये जो तेरे शस्त्रास्त्रधारी पुरुष ( एनः कृण्वन्तम् ) पाप करने वाले को ( म्रीणन्ति ) नाश कर देते हैं ( ते इष्टौ ) तेरी संगति और मैत्री में और उपासना में रहते हुए ( नः ) हमें उन ( वधैः ) शस्त्रों या हिंसा कारियों से ( मा ) मत पीड़ित होने दे। हम लोग ( ज्योतिषः ) प्रकाश से ( प्रवसथानि ) दूर के स्थानों को ( मा गन्म ) न जावें । और ( नः जीवसे ) हमारे जीवन की वृद्धि के लिये ( मृधः ) हिंसा कारियोंको ( शिश्रथः ) विनाश कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कूर्मो गार्त्समदो वा ऋषिः॥ वरुणो देवता॥ छन्द:— १, ३, ६, ४ निचृत् त्रिष्टुप् । ५, ७,११ त्रिष्टुप्। ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ भुरिक् त्रिष्टुप् । २, १० भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे धर्मात्म्यांची हत्या करीत नाहीत, दुष्टांचा नाश करतात, कुणाच्या प्रवासात अडथळा आणत नाहीत व सर्वांच्या सुखासाठी शत्रूंना जिंकतात, त्यांना अतुल सुख प्राप्त होते. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Varuna, lord of life and giver of pranic energy, save us from the blows which strike to punish those who commit sin against your yajnic law. Let us not go astray from light to the dens of darkness. For our life and holy living reduce and eliminate the forces of hate and violence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of men are pointed out.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O remover of will vices (through administration and preaching) ! those who threaten in dealings while committing sins, let them not be spared and allowed to proceed abroad to places of plenty. You explore new ventures for us, so that we get delight constantly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who do not harass or kill pious persons, but punish the wickeds. well and do not allow them to proceed abroad and conquer the enemies for the happiness of all, they achieve immeasurable delight.
Foot Notes
(वर्धः) हननैः । = Through killings or punishments. (इष्टो) यजने सङ्गतिकरणे। = In the company of. ( भ्रिणन्ति ) भर्त्सयन्ति = Threaten. (प्रवसथानि ) प्रवासान् । = To countries abroad. (मुधः) सङ्ग्रामान् । = To battles( शिश्रथः) हिंधि।= Kill or annihilate.
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