ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 28/ मन्त्र 8
ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा
देवता - वरुणः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
नमः॑ पु॒रा ते॑ वरुणो॒त नू॒नमु॒ताप॒रं तु॑विजात ब्रवाम। त्वे हि कं॒ पर्व॑ते॒ न श्रि॒तान्यप्र॑च्युतानि दूळभ व्र॒तानि॑॥
स्वर सहित पद पाठनमः॑ । पु॒रा । ते॒ । व॒रु॒ण॒ । उ॒त । नू॒नम् । उ॒त । अ॒प॒रम् । तु॒वि॒ऽजा॒त॒ । ब्र॒वा॒म॒ । त्वे इति॑ । हि । क॒म् । पर्व॑ते । न । श्रि॒तानि॑ । अप्र॑ऽच्युतानि । दुः॒ऽद॒भ॒ । व्र॒तानि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नमः पुरा ते वरुणोत नूनमुतापरं तुविजात ब्रवाम। त्वे हि कं पर्वते न श्रितान्यप्रच्युतानि दूळभ व्रतानि॥
स्वर रहित पद पाठनमः। पुरा। ते। वरुण। उत। नूनम्। उत। अपरम्। तुविऽजात। ब्रवाम। त्वे इति। हि। कम्। पर्वते। न। श्रितानि। अप्रऽच्युतानि। दुःऽदभ। व्रतानि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 28; मन्त्र » 8
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे दूळभ तुविजात वरुण वयं ते पुरा नूनमुतापरं नमो ब्रवाम। पर्वते न त्वे कं श्रितान्यप्रच्युतानि ह्युत व्रतानि ब्रवाम ॥८॥
पदार्थः
(नमः) सत्कारि वचः (पुरा) (ते) तव (वरुण) प्रशस्त (उत) (नूनम्) निश्चितम् (उत) अपि (अपरम्) द्वितीयम् (तुविजात) बहुषु प्रसिद्ध (ब्रवाम) (त्वे) त्वयि। अत्र सुपां सुलुगिति शे आदेशः (हि) खलु (कम्) सुखम्। कमिति वारिमूर्द्धसुखेषु (पर्वते) मेघे (न) इव (श्रितानि) आश्रितानि (अप्रच्युतानि) अविनश्वराणि (दूळभ) दुःखेन हिंसितुं योग्य (व्रतानि) सत्यभाषणादीनि ॥८॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्येऽत्र जगति श्रेष्ठा विद्वांसः सन्ति तान् प्रति सदैव प्रियं वचो वक्तव्यमनुकूलमाचरणं च कर्त्तव्यं तद्गुणकर्मस्वभावाः स्वस्मिन् ग्राह्याः ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (दूळभ) दुःख से मारने योग्य (तुविजात) बहुतों में प्रसिद्ध (वरुण) प्रशंसित पुरुष हम लोग (ते) आपके (पुरा) पहिले (नूनम्) निश्चित (उत) और (अपरम्) दूसरे (नमः) सत्कार के वचन को (ब्रवाम) कहें (पर्वते) मेघ में (न) जैसे-वैसे (त्वे) आपमें (कम्) सुख का (श्रितानि) आश्रय करते हुए (अप्रच्युतानि) नाशरहित (हि) ही (उत) और (व्रतानि) सत्यभाषण आदि व्रतों को कहें ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जो इस जगत् में श्रेष्ठ विद्वान् हैं, उनके प्रति सदैव प्रिय वचन कहें और अनुकूल आचरण करें और उनके गुण-कर्म-स्वभावों को अपने में ग्रहण करें ॥८॥
विषय
दृढ़व्रतित्व
पदार्थ
१. हे (वरुण) = पापनिवारक देव! (ते) = आपके लिए पुरापूर्वकालों में (नमः) = नमस्कार का (ब्रवाम) = हम उच्चारण करें। (उत) = और (नूनम्) = निश्चय से (तुविजात) !हे महान् विकासवाले वरुण ! (अपरम् उत) = अपरकालों में भी नमस्कार का उच्चारण करें। दिन के प्रारम्भ में और दिन के अन्त में दोनों समय हम आपका स्तवन करनेवाले हों। आपके प्रति खूब ही 'नम उक्तिं' को करनेवाले हों। इस नमन से ही हमारे जीवनों का ठीक विकास होगा। २. हे (दूडभ) = हिंसित न होनेवाले वरुण ! (त्वे) = आपमें ही (व्रतानि) = व्रत (अप्रच्युतानि श्रितानि) = न च्युत होनेवाले रूप में आश्रित हैं। उसी प्रकार (न) = जैसे कि (पर्वते) = पर्वत में । पर्वत को कोई स्थानभ्रष्ट नहीं कर सकता, इसी प्रकार वरुण को कोई भी शक्ति व्रतभ्रष्ट नहीं कर पाती। वरुण की उपासना मुझे भी दृढ़ व्रतोंवाला बनाए ।
भावार्थ
भावार्थ-वरुण का उपासक बनकर मैं दृढ़व्रतमय जीवनवाला बनूँ ।
विषय
प्रभु से रक्षादि की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( वरुण ) प्रशस्त ! सर्वश्रेष्ठ, विघ्नवारक ! वरणीय ! हे ( तुविजात ) हे बहुतों में प्रसिद्ध ! बहुत से गुणों, बलों से प्रसिद्ध ! ( ते ) तेरे लिये हम ( पुरा ) पहले भी ( नमः ब्रवाम ) नमस्कार और सत्कारादि वचन कहते रहें, ( उत् ) और ( नूनं ) निश्चय से ( अपरम् ) बाद में अब भी हम ( ते नमः व्रवाम ) तेरे लिये नमस्कार आदि सत्कार योग्य वचन कहें । ( पर्वते व्रतानि ) मेघ में जलों के समान ( पर्वते ) पर्वत के समान अचल ( त्वे ) तुझ में ( हि ) ही ( व्रतानि ) सब श्रेष्ठ कर्म ( अप्रच्युतानि ) दृढ़ता से स्थिर हैं। श्रेष्ठ पुरुष का हम सदा आदर करें । उसी पर सामान्य जनता के सब धर्म कर्म आश्रित हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कूर्मो गार्त्समदो वा ऋषिः॥ वरुणो देवता॥ छन्द:— १, ३, ६, ४ निचृत् त्रिष्टुप् । ५, ७,११ त्रिष्टुप्। ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ भुरिक् त्रिष्टुप् । २, १० भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जगात जे श्रेष्ठ विद्वान आहेत त्यांना माणसांनी सदैव प्रिय वचन बोलावे व अनुकूल आचरण करावे. तसेच त्यांच्या गुणकर्मस्वभावाचे अनुकरण करावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Lord unassailable and ever powerful of all, we raise our voice of homage and offer words of salutation to you in the past, at present and in the future. O Varuna, as herbs grow on the mountain and vapours rest in the cloud, so peace and comfort rest in you, and in you abide the imperishable laws of existence and inviolable rules of life’s discipline and conduct.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should a common man behave with capable persons.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O capable and noble person you can be hardly overcome or killed and are reputed among the men. Let us recall your past and other appreciative acts. Relying on you like the clouds, we undertake to speak eternal truth.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of common men to say sweet words to noble and capable persons, and act and emulate their nature, action and virtues.
Foot Notes
(नमः) सत्कारि वचः = Appreciative words. (तुविजात) बहुषु प्रसिद्धः। = Reputed among many. (कम्) सुखम् । कमिति वारिमूर्ध्वसुखेषु । = Happiness, Delight (अप्रच्युतानि) अविनश्वराणि। = Eternal. (दूलभ) दूःखेन हिसितुं योग्य। — Hardly to be overcome.
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