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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 28/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा देवता - वरुणः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वि मच्छ्र॑थाय रश॒नामि॒वाग॑ ऋ॒ध्याम॑ ते वरुण॒ खामृ॒तस्य॑। मा तन्तु॑श्छेदि॒ वय॑तो॒ धियं॑ मे॒ मा मात्रा॑ शार्य॒पसः॑ पु॒र ऋ॒तोः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । मत् । श्र॒थ॒य॒ । र॒श॒नाम्ऽइ॑व । आगः॑ । ऋ॒ध्याम॑ । ते॒ । व॒रु॒ण॒ । खाम् । ऋ॒तस्य॑ । मा । तन्तुः॑ । छे॒दि॒ । वय॑तः । धिय॑म् । मे॒ । मा । मात्रा॑ । शा॒रि॒ । अ॒पसः॑ । पु॒रा । ऋ॒तोः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि मच्छ्रथाय रशनामिवाग ऋध्याम ते वरुण खामृतस्य। मा तन्तुश्छेदि वयतो धियं मे मा मात्रा शार्यपसः पुर ऋतोः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि। मत्। श्रथय। रशनाम्ऽइव। आगः। ऋध्याम। ते। वरुण। खाम्। ऋतस्य। मा। तन्तुः। छेदि। वयतः। धियम्। मे। मा। मात्रा। शारि। अपसः। पुरा। ऋतोः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 28; मन्त्र » 5
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्यार्थिनः कीदृशाः स्युरित्याह।

    अन्वयः

    हे वरुण त्वं रशनामिव मदागो विश्रथय येन ते तव समीपे वयमृध्याम। यथर्त्तस्य खां न छिन्दति तथा त्वया तन्तुर्मा छेदि। वयतो मे धियं मा छेदि तोः पुरा अपसो माशारि। मात्रा सह विरोधं मा कुर्य्याः ॥५॥

    पदार्थः

    (वि) (मत्) मत्तः (श्रथय) हिन्धि। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः (रशनामिव) (आगः) अपराधम् (ध्याम) (ते) तव (वरुण) (खाम्) नदीम्। स्वा इति नदीना० निघं० १। १३ (तस्य) जलस्य (मा) (तन्तुः) मूलम् (छेदि) छिन्द्याः (वयतः) प्राप्नुवतः (धियम्) (मे) मम (मा) (मात्रा) जनन्या (शारि) हिंस्याः (अपसः) कर्मणः (पुरा) (तोः) तुसमयात् ॥५॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा रसनया बद्धा अश्वा नियमेन गच्छन्ति तथैव मा मात्रा पित्राऽचार्येण बद्धा बालका नियताः सन्तो विद्यां सुशिक्षां च गृह्णन्तु कदाचिन्मादकद्रव्यसेवनेन बुद्धिनाशं मा कुर्या विवाहं कृत्वा सदैवर्त्तुगामिनः स्युः। सन्तानसन्ततिं माच्छिन्द्याः ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्यार्थी लोग कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (वरुण) श्रेष्ठ पुरुष आप (रशनामिव) रस्सी के तुल्य (मत्,आगः) मुझसे अपराध को (वि,श्रथय) विशेष कर नष्ट कीजिये जिससे (ते) आपके समीप हमलोग (ध्याम) उन्नत हों जैसे (तस्य) जल की (खाम्) नदी को नहीं नष्ट करते वैसे आपसे (तन्तुः) मूल (मा)(छेदि) नष्ट किया जाये (वयतः) प्राप्त होते हुए (मे) मेरी (धियम्) बुद्धि को नष्ट न कीजिये (तोः) तु समय से (पुरा) पहले (अपसः) कर्म से मत (शारि) नष्ट कीजिये और (मात्रा) माता के साथ विरोध (मा) मत कर ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे रस्सी से बंधे हुए घोड़े नियम से चलते हैं, वैसे ही माता-पिता और आचार्य के नियम में बंधे हुए बालक विद्यार्थी विद्या और सुशिक्षा को ग्रहण करें, कभी मादक द्रव्य के सेवन से बुद्धि को नष्ट न करें, विवाह करके सदैव तुगामी हों और सन्तानों के प्रवाह को न तोड़ें ॥५॥

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    विषय

    अन्त तक क्रियाशीलता

    पदार्थ

    १. हे (वरुण) = पापनिवारक प्रभो ! (रशनाम् इव) = एक रज्जु [रस्सी] की तरह (मत्) = मेरे से (आगः) = अपराध को (विश्रथाय) = ढीला करिए । पाप को मेरे से दूर करिए, उस तरह दूर करिए जैसे कि किसी से रस्सी के बन्ध को दूर करते हैं। हे प्रभो! हम (ते) = आपकी (ऋतस्य खाम्) = इस वृष्टिजल की नदी को-गतमन्त्र में वर्णित निरन्तर चलनेवाली नदी को ऋध्याम बढ़ानेवाले हों। इसी उद्देश्य से (धियम्) = यज्ञात्मक कर्म को (वयतः) = निरन्तर सतत करते हुए (मे) = मेरा (तन्तुः) = यह (यज्ञतन्तु मा छेदि) = मत विनष्ट हो । 'यज्ञाद् भवति पर्जन्य:'=इन यज्ञों से ही तो बादल होता है। यज्ञों द्वारा वृष्टि में सहायक होते हुए हम इस ऋत की नदी को बढ़ानेवाले हों । २. ऋतो: : पुरा = ऋतु से पहले - समाप्ति काल से पूर्व, अर्थात् १०० वर्ष के जीवन के अन्त से पहले अपसः = कर्म की मात्रा = माप मा शारि= शीर्ण मत हो जाए। हम अन्तिम दिन तक यज्ञादि उत्तम कर्मों के करने में प्रमाद न करें। इन यज्ञों द्वारा वृष्टि में सहायक हों। समय पर ठीक वर्षा के होने से हमारे ऐश्वर्यों में वृद्धि हो । इन यज्ञों को न करना ही पाप है 'अपञ्चयज्ञो मलिम्लुचः'। यज्ञचक्र को न चलानेवाला तो व्यर्थ ही जीता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम यज्ञ करें- पाप से ऊपर उठें- यज्ञों द्वारा वृष्टि में सहायक होकर, प्रभु के इन वृष्टिजल से प्रवृत्त होनेवाली नदियों को हम बढ़ानेवाले हों। जीवन के अन्त तक क्रियाशील बने रहें।

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    विषय

    प्रभु से रक्षादि की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे ( वरुण ) श्रेष्ठ ! प्रभो ! राजन् ! ( रशनाम् ) बंधी रस्सी के समान ( आगः ) पाप, और अपराध को आप ( मत् ) मुझ से (वि श्रथाय ) विशेषरूप से ढीली करदो। ( ऋतस्य खाम् ) मेघ के जल से जिस प्रकार नदी या खुदे हुए तालाब को खूब भर देते हैं,उसी प्रकार हम भी हे ( वरुण ) मेघ के समान सर्वश्रेष्ठ, ( ते ) तेरे ( ऋतस्य ) धनैश्वर्य और सत्यन्याय के कारण ( ऋध्याम ) खूब समृद्ध और सम्पन्न हों । ( वयतः तन्तुः ) बुनने वाले का जिस प्रकार तागा न टूटना चाहिये उसी प्रकार ( धियं वयतः ) तन्तु अर्थात् प्रजा तन्तु और यज्ञतन्तु के कर्म को विस्तारते हुए ( मे ) मेरा ( तन्तुः ) यज्ञ और प्रजातन्तु ( मा छेदि ) न टूटे । और ( पुरः ऋतोः ) ऋतु के पूर्व ( अपसः मात्रा मा शारि ) जिस प्रकार अन्न की मात्रा न समाप्त होनी चाहिये उसी प्रकार ( ऋतोः = मृतोः पुरः ) ठीक प्रयाण काल या मृत्युगति के पूर्व ( मे अपसः मात्रा ) मेरे कार्यों की मात्रा, अर्थात् कर्मों द्वारा बना शरीर ( मा शारि ) नष्ट न हो । इति नवमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कूर्मो गार्त्समदो वा ऋषिः॥ वरुणो देवता॥ छन्द:— १, ३, ६, ४ निचृत् त्रिष्टुप् । ५, ७,११ त्रिष्टुप्। ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ भुरिक् त्रिष्टुप् । २, १० भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे बांधलेले घोडे नियमाने चालतात तसेच माता, पिता व आचार्यांच्या नियमानुसार विद्यार्थ्यांनी विद्या व सुशिक्षण ग्रहण करावे, मादक द्रव्याच्या सेवनाने बुद्धी नष्ट करू नये. विवाह करून सदैव ऋतुगामी व्हावे. संतानाचा क्रम तोडू नये. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Like the chain of slavery, loosen the hold of sin and evil from me. O Varuna, lord of law and justice, let us prosper and promote the stream of virtuous living in your service. While I weave the web of my life, snap not the bond of nature and intelligence with my mother. Snap not my bond of karma before the time is ripe.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The qualities of pupils are described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O noble person ! you perish my omissions and commissions like a string, so that we progress in your proximity as you do not perish a river. Likewise, I may also be saved from destruction and I may have sound mind till my age. Our action should not be spoiling before the time. We should never stand against (disobey or insult) our mother.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a rope or string keeps a horse under a check, same way the parent and teachers should discipline and regulate their students and sons. They should always seek good education, never spoil their mind with narcotics and should lead a regular married life with procreation of good issues.

    Foot Notes

    (श्रथय) हिन्धि अत्नाइन्येषामपीतिदीर्घः = Perish. (आग:) अपराधम् = To the crime. ( खाम् ) नदीम् | खा इति नदीनाम = To the river (N.G. 1 / 13). (ऋतो:) ऋतुसमयात् = In accordance with menstruation period.

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