ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 28/ मन्त्र 6
ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा
देवता - वरुणः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अपो॒ सु म्य॑क्ष वरुण भि॒यसं॒ मत्सम्रा॒ळृता॒वोऽनु॑ मा गृभाय। दामे॑व व॒त्साद्वि मु॑मु॒ग्ध्यंहो॑ न॒हि त्वदा॒रे नि॒मिष॑श्च॒नेशे॑॥
स्वर सहित पद पाठअपो॒ इति॑ । सु । म्य॒क्ष॒ । व॒रु॒ण॒ । भि॒यस॑म् । मत् । सम्ऽरा॑ट् । ऋत॒ऽवः । अनु॑ । मा॒ । गृ॒भा॒य॒ । दाम॑ऽइव । व॒त्सात् । वि । मु॒मु॒ग्धि॒ । अंहः॑ । न॒हि । त्वत् । आ॒र्ते । नि॒ऽमिषः॑ । च॒न । ईशे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपो सु म्यक्ष वरुण भियसं मत्सम्राळृतावोऽनु मा गृभाय। दामेव वत्साद्वि मुमुग्ध्यंहो नहि त्वदारे निमिषश्चनेशे॥
स्वर रहित पद पाठअपो इति। सु। म्यक्ष। वरुण। भियसम्। मत्। सम्ऽराट्। ऋतऽवः। अनु। मा। गृभाय। दामऽइव। वत्सात्। वि। मुमुग्धि। अंहः। नहि। त्वत्। आरे। निऽमिषः। चन। ईशे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 28; मन्त्र » 6
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरध्यापकोपदेशकविषयमाह।
अन्वयः
हे वरुण त्वं मद्भियसमपो न्यक्ष। हे तावः सम्राट् त्वं मानुगृभाय वत्साद्गामिव मदंहः सु विमुमुग्धि त्वदारे निमिषश्चन कश्चिन्नहीशे ॥६॥
पदार्थः
(अपो) (सु) (म्यक्ष) गमय (वरुण) श्रेष्ठ (भियसम्) भयम् (मत्) मम सकाशात् (सम्राट्) यः सम्यग् राजते सः (तवः) तं सत्यं बहुविधं विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धौ (अनु) (मा) माम् (गृभाय) गृह्णीयाः (दामेव) यथा रज्जुः (वत्सात्) (वि) (मुमुग्धि) मुञ्च (अंहः) अपराधम् (नहि) (त्वत्) तव सकाशात् (आरे) निकटे दूरे वा (निमिषः) निरन्तरम् (चन) (ईशे) ॥६॥
भावार्थः
अध्यापका उपदेशका वा प्रथमतः सर्वेषां भयं निस्सार्य विद्याग्रहणं कारयेयुः कुव्यसनानि त्याजयेयुर्यतस्तेषां दूरे समीपे वा कोऽपि धर्मान्निवारयिता न स्यात् ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर अध्यापक और उपदेशक के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (वरुण) श्रेष्ठ जन आप (मत्) मेरे सम्बन्ध से (भियसम्) भय को (अपो,न्यक्ष) दूर कीजिये, हे (तावः) बहुत सत्य को ग्रहण करनेवाले (सम्राट्) सम्यक् प्रकाशमान आप (मा) मुझ पर (अनु,गृभाय) अनुग्रह करो (वत्सात्) बछड़े से गौ को वैसे मुझसे (अंहः) अपराध को (सु,वि,मुमुग्धि) सुन्दर प्रकार विशेषकर छुड़ाइये (त्वत्) आपके सम्बन्ध से (आरे) निकट वा दूर (निमिषः) निरन्तर (चन) भी कोई (नहि) नहीं (ईशे) समर्थ होता है ॥६॥
भावार्थ
अध्यापक और उपदेशक पहले से सबके भय को निकाल विद्या का ग्रहण करावें, बुरे व्यसन छुड़ावें, जिससे उनके दूर वा समीप में कोई धर्म से रोकनेवाला न हो ॥६॥
विषय
बन्धनमुक्ति व अनुग्रह
पदार्थ
१. हे (वरुण) = पापनिवारक प्रभो! आप (मत्) = मेरे से (भियसम्) = भय को (सु) = अच्छी तरह (अपः म्यक्ष) = [अपगमय] दूर करिए । (सम्राट्) = आप सम्यग् राजमान हैं-आप ही सबके शासक हैं। (ऋतावः) = ऋतवाले हैं— ऋत का रक्षण करते हैं। आप (मा अनुगृभाय) = मेरे पर अनुग्रह कीजिए । २. (इव) = जैसे (वत्सात्) = बछड़े से दाम-रस्सी को छुड़ाते हैं, उसी प्रकार आप मेरे से (अंह:) = पाप को विमुमुग्धि मुक्त करिए। आप ही सब कुछ करनेवाले हैं। (त्वत् आरे) = आपसे दूर कोई भी (निमिषः) = चनएक पलक मारने का भी (नहि ईशे) = ईश नहीं है— सामर्थ्य नहीं रखता। पलक मारने की शक्ति भी आपसे ही प्राप्त होती है ।
भावार्थ
भावार्थ– प्रभु हमारे से भय को दूर करें। अनुग्रह करके पाप को हमारे से छुड़ाएँ। आप से प्राप्त कराई गई शक्ति से ही सब कार्य होते हैं ।
विषय
प्रभु से रक्षादि की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( वरुण ) सर्वश्रेष्ठ, प्रभो ! गुरो ! राजन् ! ( यत् ) मुझसे आप ( भियसं ) भय ( अपो सुम्यक्ष ) दूर करें । हे ( ऋत-वः ) सत्य व्यवहार, न्याय, ऐश्वर्य, और ज्ञान के स्वामिन् ! तू ( सम्राट् ) अच्छी प्रकार प्रकाशमान है । तू ( मा अनु गृभाय ) मुझ पर अनुग्रह कर । ( वत्साद् दाम इव ) बछड़े से रस्सी को जिस प्रकार खोलकर पृथक् कर दिया जाता है उसी प्रकार हे प्रभो ! तू मुझसे ( अंहः ) पाप बन्धन को ( विमुमुग्धि ) छुड़ा दे । ( त्वद् आरे ) तेरे समीप या दूर ( त्वत् ) तुझसे दूसरा कोई ( निमिषः चन ) एक आंख की झपक के काल के लिये वा गतिशील जगत् का भी ( न हि ईशे ) ईश्वर या संसारका चलाने हारा प्रभु नहीं है। तू ही सदा के लिये सर्वत्र जगत् का प्रभु है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कूर्मो गार्त्समदो वा ऋषिः॥ वरुणो देवता॥ छन्द:— १, ३, ६, ४ निचृत् त्रिष्टुप् । ५, ७,११ त्रिष्टुप्। ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ भुरिक् त्रिष्टुप् । २, १० भुरिक् पङ्क्तिः ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
अध्यापक व उपदेशकांनी प्रथम सर्वांचे भय नाहीसे करावे. विद्येचे ग्रहण करावे. वाईट व्यसन सोडवावे. ज्यामुळे दूर असलेले किंवा जवळ असलेले कुणीही धर्माला विरोध करणारे नसावेत. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Varuna, lord of love and justice, keep off fear from me. Illustrious ruler and defender of truth and rectitude, take me as your own for protection, and, as a calf is freed from the rope, release me from sin. Other than you no one far or near can rule over me even for a moment.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The qualities of teachers and preachers are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O noble persons ! you shake off my fear with your association. O seekers of the truth ! you are verily shining and thus oblige me as a cow obliges its calf. You set free us from the sins and crimes in a nice way, because there is no other capable person, far and near to help us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the teachers and preachers to shake off the fear from the minds of students and sons, so that they never feel any impediment in acting on the right path.
Foot Notes
(म्यक्ष ) गमय = Remove. (भियसग् ) भयम् = Fear. (ऋतव:) ऋतं सत्यं वहुविधं विद्यते यस्य तत्सम्बुद्धो = Seekers of the truth. (मुमग्धि) मुन्च = Shake off.
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