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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 58/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः सूर्यो वाऽपो वा गावो वा घृतं वा छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒भ्य॑र्षत सुष्टु॒तिं गव्य॑मा॒जिम॒स्मासु॑ भ॒द्रा द्रवि॑णानि धत्त। इ॒मं य॒ज्ञं न॑यत दे॒वता॑ नो घृ॒तस्य॒ धारा॒ मधु॑मत्पवन्ते ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । अ॒र्ष॒त॒ । सु॒ऽस्तु॒तिम् । गव्य॑म् । आ॒जिम् । अ॒स्मासु॑ । भ॒द्रा । द्रवि॑णानि । ध॒त्त॒ । इ॒मम् । य॒ज्ञम् । न॒य॒त॒ । दे॒वता॑ । नः॒ । घृ॒तस्य॑ । धाराः॑ । मधु॑ऽमत् । प॒व॒न्ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभ्यर्षत सुष्टुतिं गव्यमाजिमस्मासु भद्रा द्रविणानि धत्त। इमं यज्ञं नयत देवता नो घृतस्य धारा मधुमत्पवन्ते ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि। अर्षत। सुऽस्तुतिम्। गव्यम्। आजिम्। अस्मासु। भद्रा। द्रविणानि। धत्त। इमम्। यज्ञम्। नयत। देवता। नः। घृतस्य। धाराः। मधुऽमत्। पवन्ते ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 58; मन्त्र » 10
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वांसो ! यूयमस्मास्वाजिं गव्यं भद्रा द्रविणानि च धत्त देवता यूयमिमं यज्ञं नो नयत यथा घृतस्य धारा मधुमत्पवन्ते तथाऽस्मान् पवित्रान् कृत्वा सुष्टुतिमभ्यर्षत ॥१०॥

    पदार्थः

    (अभि) (अर्षत) प्राप्नुत (सुष्टुतिम्) शोभनां प्रशंसाम् (गव्यम्) गवे वाचे हितं व्यवहारम् (आजिम्) प्रसिद्धम् (अस्मासु) (भद्रा) भजनीयसुखप्रदानि (द्रविणानि) धनानि यशांसि वा (धत्त) (इमम्) (यज्ञम्) (नयत) प्रापयत (देवता) देव एव देवता विद्वानेव। देवात्तल् इति स्वार्थे तल् जातावेकवचनं च। (नः) अस्मान् (घृतस्य) प्रकाशितस्य बोधस्य (धाराः) प्रकाशिका वाचः (मधुमत्) प्रशस्तविज्ञानयुक्तं कर्म्म (पवन्ते) शोधयन्ति ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। तेषामेव विदुषां प्रशंसा जायते ये सर्वेषु मनुष्येषूपदेशेनोत्तमान् गुणान् दधति ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! आप लोग (अस्मासु) हम लोगों में (आजिम्) प्रसिद्ध (गव्यम्) वाणी के लिये हितकारक व्यवहार को और (भद्रा) सेवने योग्य अपेक्षित सुख देनेवाले (द्रविणानि) धनों वा यशों को (धत्त) धारण करो (देवता) विद्वान् जन आप लोग (इमम्) इस (यज्ञम्) यज्ञ को (नः) हम लोगों के लिये (नयत) प्राप्त कराओ और जैसे (घृतस्य) प्रकाशित बोध के (धाराः) प्रकाश करनेवाली वाणियाँ (मधुमत्) श्रेष्ठविज्ञान से युक्त कर्म्म को (पवन्ते) शुद्ध करती हैं, वैसे हम लोगों को पवित्र करके (सुष्टुतिम्) उत्तम प्रशंसा को (अभि, अर्षत) प्राप्त हूजिये ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। उन्हीं विद्वानों की प्रशंसा होती है, जो सब मनुष्यों में उपदेश द्वारा उत्तम गुणों को धारण करते हैं ॥१०॥

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    विषय

    देवसम्पर्क व ज्ञानवृद्धि

    पदार्थ

    [१] (सुष्टुतिम्) = उत्तम स्तवन की (अभि) = ओर अर्षत गतिवाले होओ-स्तवन में प्रवृत्त होओ। (गव्यम्) = [गाव: इन्द्रियाणि] इन इन्द्रियों सम्बन्धी (आजिम्) = संग्राम को प्राप्त होओ-इन्हें विषय-वासनाओं से पराजित मत होने दो। इस प्रकार (अस्मासु) = हमारे में (भद्रा द्रविणानि) = कल्याणकर धनों को धत्त धारण करो। [२] इसलिए (इमम्) = इस (नः यज्ञम्) = हमारे जीवनयज्ञ को देवता नयत-देवों के प्रति प्राप्त कराओ। हमारा जीवन-यज्ञ मातृरूप देव को प्राप्त करे-इससे हमें चरित्र का शिक्षण मिले। पुनः पितृदेव को प्राप्त करके सदाचार को हम सीखें। आचार्य देवों के सान्निध्य से हम ज्ञानपरिपूर्ण हों। अतिथि देवों के सान्निध्य से जीवनयात्रा में निरन्तर आगे और आगे बढ़ें। परमात्म देव को प्राप्त कर शान्ति लाभ करें। इस प्रकार जीवन-यज्ञ में देवों का सम्पर्क होने पर (घृतस्य धारा:) = ज्ञानदीप्ति के प्रवाह (मधुमत्) = अत्यन्त माधुर्य के साथ हमें (पवन्ते) = प्राप्त होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ– उत्तम स्तुति व अध्यात्म-संग्राम [विषयों से इन्द्रियों को पृथक् करने के संग्राम] द्वारा हम कल्याण कर धनों को प्राप्त करें। देवों के सम्पर्क में आकर ज्ञान को निरन्तर बढ़ाएँ।

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    विषय

    उत्तम स्त्रियों के समान घृतधारा और वाणियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे विद्वान् लोगो ! हे उत्तम शिष्यगण ! आप लोग (सुस्तुतिम्) उत्तम स्तुति वा उपदेश को (अभि अर्षत) गुरु के समक्ष बैठ कर प्राप्त करो और उसी प्रकार (गव्यम्) गो दुग्ध के तुल्य आप लोग (गव्यम्) वाणी के भीतर विद्यमान ज्ञान प्राप्त करो। और (आजिम्) उत्तम लक्ष्य को प्राप्त करो। आप विद्वान् लोग (अस्मासु) हम में (भद्रा द्रविणानि) कल्याणकारी, सुखप्रद ज्ञान-ऐश्वर्य (धत्त) प्राप्त कराइये। (इमं) इस (यज्ञं) परस्पर के ज्ञान दान को हमें (देवता) आप देव, विद्वान् गण (नयत) प्राप्त कराइये। (घृतस्य धाराः) अग्नि पर घृत की धाराओं के तुल्य ज्ञान की वाणियां (मधुमत्) मधुर ज्ञान से युक्त होकर (पवन्ते) हमें पवित्र करें और प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। अग्निः सूयों वाऽपो वा गावो वा घृतं वा देवताः॥ छन्द:-निचृत्त्रिष्टुप २, ८, ९, १० त्रिष्टुप। ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ अनुष्टुप्। ६, ७ निचृदनुष्टुप। ११ स्वराट् त्रिष्टुप्। ५ निचृदुष्णिक्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सर्व माणसांमध्ये उपदेशाद्वारे उत्तम गुण धारण करवितात. त्याच विद्वानांची प्रशंसा होते. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Let the voice of holy praise and divine celebration rise and resound, O saints and sages and scholars of eminence, bear and bring us the light of knowledge enshrined in holy speech, lead us to honour, excellence and victory, and help us create wealth for the world leading all to the bliss of peace and common good. Guide, lead and direct this yajna of ours, the streams of honeyed ghrta flow for the fire divine.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of learned persons is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! bestow on us excellent possessions, renowned beneficial dealings of the tongue (speech. Ed.) and riches or reputation which give good happiness. Lead us to this Yajna, O enlightened men. The speeches are illuminator of knowledge and purify an action endowed with admirable knowledge. So attain good reputation after making us pure.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The enlightened persons are admired by all who make people virtuous by delivering good sermons.

    Foot Notes

    (आंजिम्) प्रसिद्धम् । = Famous (द्रविणानि) धनानि यशांसि वा । द्रविणमिति धननाम (NG 2, 10) धनं द्रविणमुच्यते येनेतदमिद्रवन्ति (NKT 8, 1, 1) यशोऽपि द्रविणमस्मादेव हेतोः । मानो हि महतां धनम् । = Riches or good reputation. (घृतस्य) प्रकाशितस्य बोधस्य । घृ क्षरण दीप्तो अत्र दीप्त्यर्थं वोधार्थः । = Of the illumined knowledge. (मधुमत्) प्रशस्तविज्ञानयुक्त कर्म्म । (मधू) मनेर्धश्छन्दसि (उणादिकोषे 2, 117) मन-ज्ञाने (दिवा) । = An action endowed with admirable knowledge.

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