ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 58/ मन्त्र 8
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः सूर्यो वाऽपो वा गावो वा घृतं वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अ॒भि प्र॑वन्त॒ सम॑नेव॒ योषाः॑ कल्या॒ण्यः१॒॑ स्मय॑मानासो अ॒ग्निम्। घृ॒तस्य॒ धाराः॑ स॒मिधो॑ नसन्त॒ ता जु॑षा॒णो ह॑र्यति जा॒तवे॑दाः ॥८॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । प्र॒व॒न्त॒ । सम॑नाऽइव । योषाः॑ । क॒ल्या॒ण्यः॑ । स्मय॑मानासः । अ॒ग्निम् । घृ॒तस्य॑ । धाराः॑ । स॒म्ऽइधः॑ । न॒स॒न्त॒ । ताः । जु॒षा॒णः । ह॒र्य॒ति॒ । जा॒तऽवे॑दाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि प्रवन्त समनेव योषाः कल्याण्यः१ स्मयमानासो अग्निम्। घृतस्य धाराः समिधो नसन्त ता जुषाणो हर्यति जातवेदाः ॥८॥
स्वर रहित पद पाठअभि। प्रवन्त। समनाऽइव। योषाः। कल्याण्यः। स्मयमानासः। अग्निम्। घृतस्य। धाराः। सम्ऽइधः। नसन्त। ताः। जुषाणः। हर्यति। जातऽवेदाः ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 58; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा घृतस्य धाराः समिधश्चाग्निं नसन्त तथा कल्याण्यः स्मयमानासो योषाः समनेवाभीष्टान् पत्नीनभि प्रवन्त यथा ताः सुखं लभन्ते तथा विद्याधर्म्मौ जुषाणो जातवेदाः सर्वं प्रियं हर्यति ॥८॥
पदार्थः
(अभि) (प्रवन्त) गच्छन्तु (समनेव) समानमनस्का पतिव्रतेव (योषाः) स्त्रियः (कल्याण्यः) कल्याणकारिण्यः (स्मयमानासः) किञ्चिद्धसन्त्यो मितहासाः (अग्निम्) पावकम् (घृतस्य) आज्यस्य (धाराः) (समिधः) काष्ठानि (नसन्त) प्राप्नुवन्ति (ता) (जुषाणः) प्रीतः सन् (हर्यति) कामयते (जातवेदाः) जातविज्ञानः ॥८॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यथाग्नीन्धनसंयोगेन प्रकाशो जायते तथोत्तमाऽध्यापकाऽध्येतृसम्बन्धेन विद्याप्रकाशो भवति। यथा स्वयंवरौ स्त्रीपुरुषौ परस्परस्य सुखं कामयेते तथैवोत्पन्नविद्यायोगिनः सर्वस्य सुखं भावयन्ति ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वद्विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (घृतस्य) घृत की (धाराः) धारा और (समिधः) काष्ठ (अग्निम्) अग्नि को (नसन्त) प्राप्त होते हैं, वैसे (कल्याण्यः) कल्याण करनेवाली (स्मयमानासः) कुछ हँसती हुई प्रमाणयुक्त हँसनेवाली (योषाः) स्त्रियाँ (समनेव) तुल्य मनवाली पतिव्रता स्त्री के सदृश अभीष्ट पतियों को (अभि, प्रवन्त) सम्मुख प्राप्त हों और जैसे (ताः) वे सुख को प्राप्त होती हैं, वैसे विद्या और धर्म का (जुषाणः) सेवन करता हुआ (जातवेदाः) विज्ञान से युक्त विद्वान् सब के प्रिय की (हर्यति) कामना करता है ॥८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोमालङ्कार हैं। जैसे अग्नि और इन्धन के संयोग से प्रकाश होता है, वैसे उत्तम अध्यापक और पढ़नेवाले के सम्बन्ध से विद्या का प्रकाश होता है। और जैसे स्वयंवर जिन्होंने किया ऐसे स्त्री-पुरुष परस्पर के सुख की कामना करते हैं, वैसे ही उत्पन्न हुई विद्या जिनको ऐसे योगी जन सब का सुख उत्पन्न कराते हैं ॥८॥
विषय
ज्ञानी की कर्त्तव्यपरायणता
पदार्थ
[१] (समना) = समान मनवाली (योषाः) = स्त्रियाँ (कल्याण्यः) = कल्याण को करनेवाली (स्मयमानासः) = मुस्कराती हुईं (इव) = जैसे पति को प्राप्त होती हैं, इसी प्रकार ये कल्याणी (घृतस्य धारा:) = ज्ञानदीप्ति की धाराएँ (अग्निम्) = इस प्रगतिशील विद्यार्थी को (अभिप्रवन्त) = आभिमुख्येन प्राप्त होती हैं। [२] इस विद्यार्थी को (समिधः) = 'इयं समित् पृथिवी द्यौर्द्वितीयो चान्तरिक्षं समिधा पृणाति' 'पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक की ज्ञानरूप तीन समिधाएँ' (नसन्त) = व्याप्त करती हैं। (ताः) = इन समिधाओं को-ज्ञानदीप्तियों को (जुषाण:) = प्रीतिपूर्वक सेवन करता हुआ (जातवेदाः) = विकसित ज्ञानवाला व्यक्ति (हर्यति) = (हर्य गतिकान्त्योः) इच्छापूर्वक-दिल से कर्त्तव्यकर्मों में प्रवृत्त होता है।
भावार्थ
भावार्थ- ज्ञान को प्राप्त करके यह ज्ञानी पुरुष इच्छापूर्वक कर्त्तव्यकर्मों में प्रवृत्त होता है, इन कर्त्तव्यों को करने में ही आनन्द लेता है।
विषय
उत्तम स्त्रियों के समान घृतधारा और वाणियों का वर्णन ।
भावार्थ
(समना-इव) वर या प्रियतम पति के साथ एक चित्त, (कल्याण्यः योषाः स्मयमानासः) सुन्दर मङ्गल चिह्नों से अलंकृत, मुसकराती हुईं सुप्रसन्न स्त्रियां (अग्निम् अभि प्रवन्त) अनि के चारों ओर गति करती, फेरे लेती हैं। और (ताः) उनको (जातवेदः जुषाणः हर्यति) प्रेमयुक्त, ज्ञानवान् वा धनवान् वर कामना करता है। और जिस प्रकार (घृतस्य धाराः अग्निम् अभि प्रवन्त) घी की धाराएं यज्ञ में अग्नि के प्रति पड़ती हैं (ताः समिधः नसन्त) वे समिधाओं को प्राप्त होती हैं। और (ताः जातवेदः हर्यति) उनको अग्नि स्वीकार करता है। उसी प्रकार (घृतस्य धाराः) अर्थप्रकाशक ज्ञान की वाणियें (समना) उत्तम मनन करने योग्य ज्ञान से युक्त, (कल्याण्यः) विश्व का कल्याण करने वाली, (स्मयमानासः) हर्ष उत्पन्न करती हुई, (अग्निम् अभि) विनयशील पुरुष का साक्षात् (प्रवन्त) प्राप्त होती हैं। वे (समिधः) अच्छी प्रकार प्रकाशित होने वाले शिष्यों को वा वे स्वयं अच्छी प्रकार प्रकाशित होती हुईं (नसन्त) प्राप्त होती हैं। (ताः) उनको (जातवेदाः) ज्ञानवान् पुरुष (जुषाणः) सेवन करता हुआ (हर्यति) सदा कामना करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः। अग्निः सूयों वाऽपो वा गावो वा घृतं वा देवताः॥ छन्द:-निचृत्त्रिष्टुप २, ८, ९, १० त्रिष्टुप। ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ अनुष्टुप्। ६, ७ निचृदनुष्टुप। ११ स्वराट् त्रिष्टुप्। ५ निचृदुष्णिक्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अग्नी व इंधनाच्या संयोगाने प्रकाश उत्पन्न होतो तसे उत्तम अध्यापक व शिष्य यांच्या संबंधाने विद्येचा प्रकाश होतो व जसे स्वयंवर केलेले स्त्री - पुरुष सुखाची कामना करतात तसे विद्यायुक्त योगी सर्वांचे सुख निर्माण करवितात. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
As youthful ladies of love and virtue, inspired with passion and smiling in bliss, proceed to meet agni, enlightened husband, so do streams of ghrta move and flow into the vedi to meet the lighted fire, and the rising fire, loving and gracious, cherishes to receive the flow of the holy yajaka’s offer.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the learned persons are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Just as the streams of ghee and fuel go to the fire (in the Yajna), as the women of high character with a devoted mind and gently smiling incline towards their husbands, so do the speeches containing pure knowledge glowing with apt uses of meaning and relation of words (in technological sequence in Sanskrit called सिद्धेशब्दार्थः संबन्धे Ed.) reach a learned person. Enjoying them, he attains brilliance. Such a scholar serving Vidya (knowledge) and Dharma (righteousness) desires the welfare of all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
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Foot Notes
(धेनाः ) विद्यायुक्ता वाचः । धेना इति वाङ्नाम (NG 1, 11) = Speeches endowed with knowledge. (ईषमाणाः) गच्छन्तः । ईष गतिहिंसादर्शनेषु । अत्र गत्यर्थ : = Going. (हर्यंति) कामयतें । (हर्यंति) हयं गतिकान्तयोः (भ्वा० ) कान्तिः कामना | = Desires.
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