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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 58/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः सूर्यो वाऽपो वा गावो वा घृतं वा छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    च॒त्वारि॒ शृङ्गा॒ त्रयो॑ अस्य॒ पादा॒ द्वे शी॒र्षे स॒प्त हस्ता॑सो अस्य। त्रिधा॑ ब॒द्धो वृ॑ष॒भो रो॑रवीति म॒हो दे॒वो मर्त्याँ॒ आ वि॑वेश ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च॒त्वारि॑ । शृङ्गा॑ । त्रयः॑ । अ॒स्य॒ । पादाः॑ । द्वे इति॑ । शी॒र्षे इति॑ । स॒प्त । हस्ता॑सः । अ॒स्य॒ । त्रिधा॑ । ब॒द्धः । वृ॒ष॒भः । रो॒र॒वी॒ति॒ । म॒हः । दे॒वः । मर्त्या॑न् । आ । वि॒वे॒श॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य। त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो मर्त्याँ आ विवेश ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चत्वारि। शृङ्गा। त्रयः। अस्य। पादाः। द्वे इति। शीर्षे इति। सप्त। हस्तासः। अस्य। त्रिधा। बद्धः। वृषभः। रोरवीति। महः। देवः। मर्त्यान्। आ। विवेश ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 58; मन्त्र » 3
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरविज्ञानमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो महो देवो मर्त्याना विवेश यो वृषभस्त्रिधा बद्धो रोरवीति अस्य परमात्मनो बोधस्य द्वे शीर्षे त्रयः पादाश्चत्वारि शृङ्गा च युष्माभिर्वेदितव्यान्यस्य च सप्त हस्तासस्त्रिधा बद्धो व्यवहारश्च वेदितव्यः ॥३॥

    पदार्थः

    (चत्वारि) चत्वारो वेदाः (शृङ्गा) शृङ्गाणीव (त्रयः) कर्मोपासनाज्ञानानि (अस्य) धर्म्मव्यवहारस्य (पादाः) पत्तव्याः (द्वे) अभ्युदयनिःश्रेयसे (शीर्षे) शिरसी इव (सप्त) पञ्च ज्ञानेन्द्रियाणि वा कर्म्मेन्द्रियाण्यन्तःकरणमात्मा च (हस्तासः) हस्तवद्वर्त्तमानाः (अस्य) धर्मयुक्तस्य नित्यनैमित्तिकस्य (त्रिधा) श्रद्धापुरुषार्थयोगाभ्यासैः (बद्धः) (वृषभः) सुखानां वर्षणात् (रोरवीति) भृशमुपदिशति (महः) महान् पूजनीयः (देवः) स्वप्रकाशः सर्वसुखप्रदाता (मर्त्यान्) मरणधर्मान् मनुष्यादीन् (आ) समन्तात् (विवेश) व्याप्नोति ॥३॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! अस्मिन् परमेश्वरव्याप्ते जगति यज्ञस्य चत्वारो वेदा नामाख्यातोपसर्गनिपाता विश्वतैजसप्राज्ञतुरीयधर्मार्थकाममोक्षाश्चेत्यादीनि शृङ्गाणि, त्रीणि सवनानि त्रयः कालाः कर्म्मोपासनाज्ञानानि मनोवाक्छरीराणि चेत्यादीनि पादाः, द्वौ व्यवहारपरमार्थौ नित्यकार्यौ शब्दात्मानावुदगयनप्रायणीया अध्यापकोपदेशकौ चेत्यादीनि शिरांसि, गायत्र्यादीनि सप्त छन्दांसि सप्त विभक्तयः सप्त प्राणाः पञ्च कर्मेन्द्रियाणि शरीरमात्मा चेत्यादयो हस्तास्त्रिषु मन्त्रब्राह्मणकल्पेषूरसि कण्ठे शिरसि श्रवणमनननिदिध्यासनेषु ब्रह्मचर्य्यसुकर्मसुविचारेषु सिद्धोऽयं व्यवहारो महान् सत्कर्तव्यो मनुष्येषु प्रविष्टोऽस्तीति सर्वे विजानन्तु ॥३॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अगले मन्त्र में ईश्वर के विज्ञान को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (महः) बड़ा सेवा और आदर करने योग्य (देवः) स्वप्रकाशस्वरूप और सब को सुख देनेवाला (मर्त्यान्) मरणधर्मवाले मनुष्य आदिकों को (आ) सब प्रकार से (विवेश) व्याप्त होता है (वृषभः) और जो सुखों को वर्षानेवाला (त्रिधा) तीन श्रद्धा, पुरुषार्थ और योगाभ्यास से (बद्धः) बँधा हुआ (रोरवीति) निरन्तर उपदेश देता है (अस्य) इस धर्म से युक्त नित्य और नैमित्तिक परमात्मा के बोध के (द्वे) दो उन्नति और मोक्षरूप (शीर्षे) शिरस्थानापन्न (त्रयः) तीन अर्थात् कर्म, उपासना और ज्ञानरूप (पादाः) चलने योग्य पैर (चत्वारि) और चार वेद (शृङ्गा) शृङ्गों के सदृश आप लोगों को जानने योग्य हैं और (अस्य) इस धर्म व्यवहार के (सप्त) पाँच ज्ञानेन्द्रिय वा पाँच कर्मेन्द्रिय अन्तःकरण और आत्मा ये सात (हस्तासः) हाथों के सदृश वर्त्तमान हैं और उक्त तीन प्रकार से बँधा हुआ व्यवहार भी जानने योग्य है ॥३॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! इस परमेश्वर से व्याप्त संसार में यज्ञ के चार वेद और नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात विश्व, तैजस, प्राज्ञ, तुरीय और धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष आदि शृङ्ग हैं। तीन सवन अर्थात् त्रैकालिक यज्ञकर्म तीन काल कर्म, उपासना, ज्ञान मन, वाणी, शरीर इत्यादि पाद हैं। दो व्यवहार और परमार्थ नित्य, कार्य्य शब्दस्वरूप उदगयन और प्रायणीय अध्यापक और उपदेशक इत्यादि शिर हैं। गायत्री आदि सात छन्द सात विभक्तियाँ, सात प्राण, पाँच कर्म्मेन्द्रिय शरीर और आत्मा इत्यादि सात हस्त हैं। तीन मन्त्र, ब्राह्मण, कल्प और हृदय, कण्ठ, शिर में श्रवण, मनन, निदिध्यासनों में ब्रह्मचर्य्य, श्रेष्ठ कर्म, उत्तम विचारों के बीच सिद्ध यह व्यवहार महान् सत्कर्त्तव्य और मनुष्यों के बीच प्रविष्ट है, यह सब जानें ॥३॥

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    विषय

    बद्ध बैल

    शब्दार्थ

    एक वृषभ है (अस्य) इसके (चत्वारि शृंगा:) चार सींग है (त्रयः पादाः) तीन पैर हैं (द्वे शीर्षे) दो सिर हैं और (अस्य) इसके (सप्त हस्तासः) सात हाथ हैं । वह (त्रिधा बद्ध:) तीन प्रकार से बँधा हुआ है । वह (वृषभः) वृषभ (रोरवीति) रोता है । वह (महःदेव:) महादेव (मर्त्यान् प्रा विवेश) मनुष्यों में प्रविष्ट है ।

    भावार्थ

    पाठक ! क्या आपने संसार में ऐसा अद्भुत वृषभ = बैल देखा है ? यदि नहीं तो आइए, आपको इसके दर्शन कराएँ । वर्षणशील होने के कारण अथवा वीर्यवान् = पराक्रमी होने के कारण आत्मा ही वृषभ है । मन्त्र में इसी वर्षणशील आत्मा का वर्णन है । मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार - इसके चार सींग हैं । भूत, वर्तमान और भविष्यत् - इसके तीन पैर हैं । ज्ञान और प्रयत्न – ये दो सिर हैं । - पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन और बुद्धि अथवा सप्त प्राण - सात हाथ हैं । सत्त्व, रज और तमरूपी तीन पाशों से यह बँधा हुआ है । इन पाशों मे, बन्धनों में बँधा होने के कारण वह रोता और चिल्लाता है । यह महादेव मरणधर्मा शरीरों में प्रविष्ट हुआ करता है । यह आत्मा इस शरीर-बन्धन से मुक्त कैसे हो ? वेद ने इसके छुटकारे का उपाय भी बता दिया है। वह यह कि मनुष्य अपने स्वरूप को समझे । वह महादेव है, इन्द्रियों का अधिष्ठाता है, स्वामी है । इन्द्रियों के दास न बनकर स्वामी बनो तो त्रिगुणों से त्राण पाकर मोक्ष के अधिकारी बन जाओगे ।

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    विषय

    ज्ञानयज्ञ

    पदार्थ

    [१] (अस्य) = इस ब्रह्मयज्ञ के (चत्वारि शृंगा:) = चार वेद ही चार शृंग हैं। (त्रयः पादाः) = तीन सवन ही इसके तीन पाद हैं। आचार्यकुल में बीतनेवाली तीन रात्रियाँ ही इसके तीन पाद हैं 'तिस्रो रात्रीर्मदवात्सीगृहे मे' [कठोपनिषत्] । (द्वे शीर्षे) = प्रकृति विद्या [अविद्या] और आत्मविद्या [विद्या] ही इसके दो सिर हैं। (अस्य) = इसके (सप्त हस्तासः) = गायत्री आदि सात छन्द ही सात हाथ हैं। [२] (त्रिधा बद्धः) = 'ऋग्, यजु, साम’ ‘ज्ञान, कर्म, उपासना' के रूप से तीन प्रकार से बँधा हुआ (वृषभ:) = यह सुखों का वर्षक ज्ञानवृषभ (रोरवीति) = गर्जना करता है। इस ज्ञानवृषभ पर आरूढ़ हुआ हुआ (महो देव:) = महान् देव (मर्त्यान् आ विवेश) = मनुष्यों में प्रवेश करता है। ज्ञान ही तो प्रभुप्राप्ति का साधन है। यह सुखवर्षक होने से 'वृषभ' है। आनन्दित करनेवाला आनन्दी है। इसके होने पर, ईश्वर हमें क्यों न प्राप्त होंगे। सब ज्ञानों के अधिष्ठाता प्रभु ही तो हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- ज्ञानवृषभ के चार वेद ही चार सींग हैं और इस वृषभ को अपनाने से इस पर आरूढ़ देवों के देव महादेव परमात्मा को हम प्राप्त करते हैं।

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    विषय

    मर्त्य मात्र में प्रविष्ट चतुः शृंग, त्रिपाद्, द्विशिरा, सप्तहस्त महादेव वृषभ का आलंकारिक वर्णन।

    भावार्थ

    यज्ञपुरुष वा वेदविद् विद्वान् का वर्णन करते हैं (अस्य) इस के (चत्वारि शृङ्गा) चार सींग हैं, (अस्य त्रयः पादाः) इसके तीन पाद अर्थात् चरण हैं। (द्वे शीर्षे) दो सिर हैं। (अस्य हस्तासः सप्त) इसके हाथ सात हैं। वह (त्रिधा बद्धः) तीन प्रकार से बंधा है वह (वृषभः रोरवीति) बरसते मेघ के तुल्य वा बलवान् सांड के समान ऋषभ स्वर से (रोरवीति) शब्द करता है, वह (महः देवः) महान् विद्वान् (मर्त्यान् आविवेश) मनुष्यों के बीच में प्रवेश करता है। अज्ञान नाशक चार वेद चार शृंग के समान हैं। ऋग, यजुः और साम गान ये तीन प्रकार के उसके तीन चरण हैं, अभ्युदय और निःश्रेयस ये दो सिर हैं, मुख्य ध्येय हैं। पांच ज्ञानेन्द्रिय और अन्तःकरण और आत्मा ये हाथ अर्थात् साधन हैं । वह वाणी, कर्म और मन तीनों के नियमों में बंधा है । (२) यज्ञमय पुरुष के पक्ष में—निरुक्त यास्क के अनुसार चार वेद चार सींग, तीन सवन तीन चरण हैं, सात हाथ सात छन्द, दो सिर दो सिरे प्रायणीय और उदयनीय। वह मन्त्र, ब्राह्मण और कल्प, तीनों से बद्ध है वह। सर्वसुखवर्षी यज्ञ सब मनुष्यों को प्राप्त है। प्राणमय आत्मा पक्षमें—अन्तः करण चतुष्टय ४ सींग, मन, वाणी, काय तीन पाद, प्राण उदान दो सिर, सात शीर्षगत अंग सात हाथ, शिर, कण्ठ, नाभि, तीन स्थान पर बद्ध है । वह बलवान् प्राण सब में विद्यमान है । सूर्य पक्ष में क्रम से―चार दिशा, तीन चातुर्मास्थ ऋतु, दो अयन, सात मास, तीन लोकों में बद्ध होकर संवत्सर रूप होकर व्याप रहा है। राजा, यज्ञ, शब्द, आत्मा, परमात्मा आदि पक्षों में विवरण देखो (यजु० १७। ८१)

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। अग्निः सूयों वाऽपो वा गावो वा घृतं वा देवताः॥ छन्द:-निचृत्त्रिष्टुप २, ८, ९, १० त्रिष्टुप। ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ अनुष्टुप्। ६, ७ निचृदनुष्टुप। ११ स्वराट् त्रिष्टुप्। ५ निचृदुष्णिक्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! या परमेश्वराने व्याप्त केलेल्या संसारात यज्ञाचे चार वेद व नाम, आख्यात, उपसर्ग व निपात, विश्व, तैजस, प्राज्ञ, तुरीय व धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इत्यादी शृंग आहेत. तीन सवन यज्ञ कर्म, तीन काल, कर्म, उपासना, ज्ञान, मन, वाणी शरीर इत्यादी पाद आहेत. दोन व्यवहार व परमार्थ, नित्य कार्य शब्द स्वरूप उदगयन व प्रायणीय, अध्यापक व उपदेशक इत्यादी मस्तक आहेत. गायत्री इत्यादी सात छन्द, सात विभक्ती, सात प्राण, पाच कर्मेंद्रिये, शरीर व आत्मा इत्यादी हात आहेत. तीन मंत्र, ब्राह्मण, कल्प व ह्रदय, कंठ व मस्तकात श्रवण, मनन, निदिध्यासनात ब्रह्मचर्य, श्रेष्ठ कर्म, उत्तम विचारात सिद्ध हा व्यवहार महान सत्कर्तव्य माणसात प्रविष्ट आहे हे सर्वांनी जाणावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Of this mighty self-refulgent Lord, Word and Dharma, four are the high peaks of light and self proclamation: Rgveda, Yajurveda, Samaveda and Atharva-veda; three legs on which it rests: jnana or knowledge, karma or action, and upasana or prayer; two heads: abhyudaya or worldly well being, and Nihshreyas or moksha or ultimate freedom; seven hands or the seven verse forms. Three way bound in faith, action and meditation, it is the thundervoice of Divinity which proclaims itself through the beauty, wonder and terror of nature and the music of the Veda. And this mighty presence of mighty self-refulgent Lord and the self- awareness of omniscience is enshrined in the heart of mortal humans.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now something about the science of God is told in the third mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    This Yajna or righteous conduct has got four horns in the or of the four Vedas; three feet in the form of action, contemplation and knowledge; two heads in the form of worldly prosperity and emancipation; seven hands in the form of five senses of perception or action, Antahkaran or inner senses and soul. This mighty, attainable Yajna, the giver of all happiness, interlinked with a triple bond of Shraddha (faith) Purushartha or industriousness and practice of Yoga, roars loudly and enters into the mortals being the shower of joy (delights. Ed.).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! in this world pervaded by God, Yajna has got four horns in the form of the four Vedas, Nama (noun) Akhyāta (verb) Upasarga (a preposition fixed to verb) and Nipat (indeclinable); Vishva, Taijasa, Prājna and Tureeya and Dharma (righteousness) Artha (wealth) Kāma (fulfilment of noble desire) and Moksha (emancipation); three feet in the form of three Savanas (in the sessions); three times i.e. present, past and future; Karma (कर्म) Upasana (contemplating) and Prāna (knowledge and mind, speech and body etc.). It has two heads in the form of Vyavahāra (secular dealing) and Parmārtha (spiritual), two kinds of words नित्य (eternal), and non-eternal. Udgaan and Prayanaa (Uttarayana and Dakshinayana two solstices) and teacher and preacher. It has seven hands in the form of the Gayatri and other principal meters numbering seven, seven cases of the Gramm ir, seven Pranas,-five कर्मेन्द्रिय (senses of action), body and soul. It is bound by the triple bond of mantras, Brahmans (commentaries on the Vedas with applications in the Yajnas) and Kalpa (rituals) in the chest, neck and head, in the three bonds of श्रवण (hearing) मनन (reflection), and निदिध्यासन (meditation, and Brahmacharya), good actions and good thoughts. Thus accomplished this dealing is great and venerable, which has delved into the behavior of mankind. All should know this state of things well.

    Translator's Notes

    This is one of the most significant mantras of the Vedas which has got many a meaning. Rishi Dayanand a Sarasvati in his commentary on the Yajurveda (17.91) has given some other meaning, also in addition to the above. He has extensively quoted passages from the Nirukta of Yaskacharya and Maha-bhashya of Patanjali.

    Foot Notes

    (चत्वारि) चत्वारो वेदाः । = Four Vedas. (अस्य) धर्म्यव्यवहारस्य । = Of this righteous conduct. (द्वे) अभ्युदयनिःश्रेयसे। = Worldly prosperity and salvation. (सप्त हस्तासः ) पंच ज्ञानेन्द्रियाणि वा कर्मेन्द्रियाणयन्तःकारणमात्मा च। = Hands in the form of five senses of perception or action, inner senses and soul. (त्रिधा बद्ध:) श्रद्धापुरुषार्थ योगाभ्यासैः। = Interlinked by the triple bound of faiths, industriousness and practice of the Yoga. (वृषभ:) सुखानां वर्षणात् । = Shower of happiness.

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