ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 58/ मन्त्र 7
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - अग्निः सूर्यो वाऽपो वा गावो वा घृतं वा
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
सिन्धो॑रिव प्राध्व॒ने शू॑घ॒नासो॒ वात॑प्रमियः पतयन्ति य॒ह्वाः। घृ॒तस्य॒ धारा॑ अरु॒षो न वा॒जी काष्ठा॑ भि॒न्दन्नू॒र्मिभिः॒ पिन्व॑मानः ॥७॥
स्वर सहित पद पाठसिन्धोः॑ऽइव । प्र॒ऽअ॒ध्व॒ने । शू॒घ॒नासः॑ । वात॑ऽप्रमियः । प॒त॒य॒न्ति॒ । य॒ह्वाः । घृ॒तस्य॑ । धाराः॑ । अ॒रु॒षः । न । वा॒जी । काष्ठाः॑ । भि॒न्दन् । ऊ॒र्मिभिः॑ । पिन्व॑मानः ॥
स्वर रहित मन्त्र
सिन्धोरिव प्राध्वने शूघनासो वातप्रमियः पतयन्ति यह्वाः। घृतस्य धारा अरुषो न वाजी काष्ठा भिन्दन्नूर्मिभिः पिन्वमानः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठसिन्धोःऽइव। प्रऽअध्वने। शूघनासः। वातऽप्रमियः। पतयन्ति। यह्वाः। घृतस्य। धाराः। अरुषः। न। वाजी। काष्ठाः। भिन्दन्। ऊर्मिभिः। पिन्वमानः ॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 58; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ जलदृष्टान्तेन वाग्विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्याः ! पिन्वमानोऽहं यथा शूघनासो यह्वा वातप्रमियः प्राध्वने सिन्धोरिव पतयन्त्यरुषो वाजी न घृतस्य धारा ऊर्म्मिभिः काष्ठा भिन्दँस्तथोपदेशान् वर्षयित्वाऽविद्यां भिनद्मि ॥७॥
पदार्थः
(सिन्धोरिव) नद्या इव (प्राध्वने) प्रकृष्टतया गन्तव्याय मार्गाय (शूघनासः) आशुगन्त्र्यः (वातप्रमियः) या वातं वायुं प्रमिन्वन्ति ताः (पतयन्ति) पतिरिवाचरन्ति (यह्वाः) महत्यः (घृतस्य) जलस्य (धाराः) (अरुषः) अरुणरूपः (न) इव (वाजी) अश्वः (काष्ठाः) दिश इव तटीः (भिन्दन्) विदृणन्ति (ऊर्म्मिभिः) तरङ्गैः (पिन्वमानः) प्रसादयन् ॥७॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । येषां विदुषां नदीप्रवाहा इव सदुपदेशाश्चलन्ति अश्व इव दुःखान्तं गमयन्ति ते एव महान्तः सन्तः सन्ति ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
अब जलदृष्टान्त से वाणीविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! (पिन्वमानः) प्रसन्न करता हुआ मैं जैसे (शूघनाशः) शीघ्रगामिनी (यह्वाः) बड़ी (वातप्रमियः) वायु को मापनेवाली और (प्राध्वने) उत्तम प्रकार से चलने योग्य मार्ग के लिये (सिन्धोरिव) नदियों के अर्थात् नदियों की तरङ्गों के समान (पतयन्ति) पति के सदृश आचरण करती हैं तथा (अरुषः) लाल रूपवाले (वाजी) घोड़ों के (न) सदृश (घृतस्य) जल की (धाराः) धारा (ऊर्म्मिभिः) तरङ्गों से (काष्ठाः) दिशाओं के समान तटों को (भिन्दन्) विदीर्ण करती हैं, वैसे उपदेशों की वृष्टि करके अविद्याओं का नाश करता हूँ ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जिन विद्वानों के नदियों के प्रवाह सदृश उत्तम उपदेश प्रचरित होते और घोड़ों के समान दुःखों के पार कराते हैं, वे ही बड़े श्रेष्ठ पुरुष हैं ॥७॥
विषय
आशातीत उन्नति
पदार्थ
[१] (इव) = जैसे (सिन्धोः) = नदी से जल (प्राध्वने) = [प्रवणवति देशे सा० ] निम्न देश में (शूघनासः) = शीघ्र गमनवाले होते हैं, इसी प्रकार ज्ञान के समुद्र आचार्य से भी (वातप्रतिमः) = वायुवत् प्रकृष्ट वेगवाली (यह्वा:) = महान् (घृतस्य धाराः) = ज्ञान की धाराएँ भी विनीततावाले विद्यार्थियों की और (पतयन्ति) = शीघ्र गतिवाली होती हैं। ये ज्ञान की धाराएँ उन्हें वायुवत् सततगामी, सदा क्रियाशील बनाती हैं और जीवन में उन्हें महान् बनाती हैं। [२] (ऊर्मिभिः पिन्वमानः) = इन ज्ञानरश्मियों से बढ़ता हुआ यह विद्यार्थी (काष्ठाः भिन्दन्) = सब सीमाओं का विदारण करता हुआ आगे बढ़ता है, (न) = जैसे कि (अरुषः) = आरोचमान (वाजी) = बलवान् घोड़ा बन्धनों को तोड़कर आगे बढ़ता है। आजकल की भाषा में प्रयोग करते हैं कि 'रिकार्ड को बीट' कर गया। यही भाव 'काष्ठा: भिन्दन्' का है। यह सब उन्नतियों की सीमाओं को लाँघ जाता है।
भावार्थ
भावार्थ - विनीत होकर ज्ञान को प्राप्त करते हैं। ज्ञान को प्राप्त करके हम सतत क्रियाशील बनते हैं। आशातीत उन्नति को प्राप्त करते हैं। नोट –'आशा' शब्द का अर्थ दिशा भी होता है । मन्त्र में दिशा का पर्याय 'काष्ठा' शब्द प्रयुक्त हुआ है।
विषय
मर्त्य मात्र में प्रविष्ट चतुः शृंग, त्रिपाद्, द्विशिरा, सप्तहस्त महादेव वृषभ का आलंकारिक वर्णन।
भावार्थ
(सिन्धोः इव घृतस्य धाराः) जिस प्रकार नदी के जल की धाराएं (यह्वाः शूधनासः प्राध्वने पतयन्ति) बड़ी होकर वेग से जाती हुई गमन करती हैं, उसी प्रकार (घृतस्य धाराः) अर्थप्रकाशक ज्ञान की वाणियां भी (शू-घनासः) वेग से निकलती हुई, (यह्वाः) अर्थ में गम्भीर, (वात-प्रमियः) ज्ञानवान् पुरुष से अच्छी प्रकार उपदेश की हुई (प्र-अध्वने) उत्कृष्ट मार्ग में ले जाने के लिये (पतयन्ति) प्रभु के समान आचरण करती हैं, स्वामिवत् उन्नत मार्ग में चलने का आदेश करती हैं। और जिस प्रकार (अरुषः वाजी न) अति रुचिर वर्ण का वेगवान् अश्व (काष्ठाः भिन्दन्) दिशाओं को पार करता हुआ (ऊर्मिभिः पिन्वमानः) तरंगों से परिपुष्ट होता हुआ जाता है उसी प्रकार (वाजी) ज्ञानैश्वर्य से सम्पन्न पुरुष (अरुषः) दीप्तिमान् एवं रोग आदि से रहित (काष्ठाः) काष्ठों को अग्नि के तुल्य वा कुठार के समान (काष्ठाः) कुत्सित चित्त वृत्तियों को (भिन्दन्) छिन्न भिन्न करता हुआ (ऊर्मिभिः) उन्नत वासनाओं से (पिन्वमानः) बढ़ता हुआ (प्राध्वने) उत्तम मार्ग,मोक्ष के लिये (पतयति) प्रयाण करता है। (२) उसी प्रकार (घृतस्य धाराः) तेज और उत्कृष्ट ज्ञान के धारण करने वाले (यह्वाः) महान् पुरुष (वात-प्रमियः) ज्ञानतत्व के उपदेष्टा, (शू-घनासः) अति शीघ्रता से आगे बढ़ते वा बाधाओं को दूर करते हुए सिन्धु की धाराओं के समान ही (प्र-अध्वने पतयन्ति) उत्तम २ मार्ग में सेनानायकों के तुल्य वीरता से आगे बढ़ते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः। अग्निः सूयों वाऽपो वा गावो वा घृतं वा देवताः॥ छन्द:-निचृत्त्रिष्टुप २, ८, ९, १० त्रिष्टुप। ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ अनुष्टुप्। ६, ७ निचृदनुष्टुप। ११ स्वराट् त्रिष्टुप्। ५ निचृदुष्णिक्। एकादशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या विद्वानांचे नदीच्या प्रवाहाप्रमाणे उपदेश प्रचारित होतात व घोड्याप्रमाणे तीव्रतेने ते दुःखातून पार पाडतात तेच श्रेष्ठ पुरुष असतात. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The streams of ghrta, life’s energy, flow on to join the sea like strong currents of a river rushing on in tumult by simple, straight and holy paths of the bed carved by Divinity, and I, inspired by the waves of ghrta, like a fiery stallion flying, breaking the bounds of world pressures all round by the force of inner vibrations, move on to my divine destination.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of speech are mentioned by the illustration of water.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! pleasing God and good men, pouring down the sermons, I dispel all ignorance like the force of great streams of water. Their impact is like the swift wind and they rapid down a declivity, breaking through the barriers by the confining the (river) banks (laying a dam) from their whirling waves, like a high spirited steed (horse).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those scholars are great, whose sermons flow on like the currents of the rivers and end all miseries like the swift horse.
Foot Notes
(शूघनासः ) आशुगन्त्र्यः । = Flowing rapidly. (पिन्वमानः ) प्रसादयन् । = Pleasing God and good men.
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