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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 58/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः सूर्यो वाऽपो वा गावो वा घृतं वा छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    स॒म्यक्स्र॑वन्ति स॒रितो॒ न धेना॑ अ॒न्तर्हृ॒दा मन॑सा पू॒यमा॑नाः। ए॒ते अ॑र्षन्त्यू॒र्मयो॑ घृ॒तस्य॑ मृ॒गाइ॑व क्षिप॒णोरीष॑माणाः ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्यक् । स्र॒व॒न्ति॒ । स॒रितः॑ । न । धेनाः॑ । अ॒न्तः । हृ॒दा । मन॑सा । पू॒यमा॑नाः । ए॒ते । अ॒र्ष॒न्ति॒ । ऊ॒र्मयः॑ । घृ॒तस्य॑ । मृ॒गाःऽइ॑व । क्षि॒प॒णोः । ईष॑माणाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सम्यक्स्रवन्ति सरितो न धेना अन्तर्हृदा मनसा पूयमानाः। एते अर्षन्त्यूर्मयो घृतस्य मृगाइव क्षिपणोरीषमाणाः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्यक्। स्रवन्ति। सरितः न। धेनाः। अन्तः। हृदा। मनसा। पूयमानाः। एते। अर्षन्ति। ऊर्मयः। घृतस्य। मृगाःऽइव। क्षिपणोः। ईषमाणाः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 58; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरुदकविषयमाह ॥

    अन्वयः

    येषां विदुषामन्तर्हृदा मनसा पूयमाना धेनाः सरितो न सम्यक् स्रवन्ति त एते घृतस्योर्मयः क्षिपणोर्मृगाइवेषमाणाः सर्वां कीर्त्तिमर्षन्ति ॥६॥

    पदार्थः

    (सम्यक्) (स्रवन्ति) चलन्ति (सरितः) नद्यः (न) इव (धेनाः) विद्यायुक्ता वाचः (अन्तः, हृदा) अन्तःस्थितेनात्मना (मनसा) शुद्धेनान्तःकरणेन (पूयमानाः) पवित्रतां कुर्वाणाः (एते) (अर्षन्ति) गच्छन्ति (ऊर्मयः) तरङ्गाः (घृतस्य) उदकस्य (मृगाइव) (क्षिपणोः) प्रेषकात् (ईषमाणाः) गच्छन्तः ॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये सत्यं वदन्ति त एव पवित्रात्मानो भूत्वा जलवच्छान्ताः सन्तो मृगा इव सद्य इष्टं सुखं प्राप्नुवन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उदकविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जिन विद्वानों के (अन्तः, हृदा) अन्तर्विराजमान आत्मा और (मनसा) शुद्ध अन्तःकरण से (पूयमानाः) पवित्रता करती हुई (धेनाः) विद्यायुक्त वाणियाँ (सरितः) नदियों के (न) सदृश (सम्यक्) उत्तम प्रकार (स्रवन्ति) चलती हैं सो (एते) ये विद्वान् (घृतस्य) जल की (ऊर्मयः) लहरियों और (क्षिपणोः) प्रेरणा देनेवाले से (मृगाइव) हरिणों के सदृश (ईषमाणः) चलते हुए सब कीर्ति को (अर्षन्ति) प्राप्त होते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो सत्य कहते हैं वे ही पवित्रात्मा होके जल के सदृश शान्त होते हुए मृगों के सदृश शीघ्र ही अपेक्षित सुख को प्राप्त होते हैं ॥६॥

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    विषय

    श्रद्धा व मनन से

    पदार्थ

    [१] (अन्तर्हदा) = हृदय के अन्तस्तल से पूर्ण श्रद्धा से तथा (मनसा) = मनन से विचार से (पूयमानाः) = पवित्र की जाती हुई (धेना:) = वेदवाणियाँ (सरितः न) = नदियों के समान (सम्यक्त्रवन्ति) = हमारे जीवन में सम्यक् प्रवाहित होती हैं। श्रद्धा व मनन से ही तो ज्ञान प्राप्त होता है। [२] हमारे जीवनों में (एते) = ये (घृतस्य ऊर्मय:) = ज्ञानदीप्ति की रश्मियाँ (अर्षन्ति) = प्राप्त होती हैं। इस प्रकार-शीघ्रता से प्राप्त होती हैं, (इव) = जैसे कि (क्षिपणो:) = व्याध से [अस्त्रों का प्रक्षेप करनेवाले शिकारी से] (ईषमाणाः) = भय के कारण भागते हुए (मृगाः) = मृग कक्षदेश को प्राप्त होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- श्रद्धा व मनन से हमारे में ज्ञानवाणियों का प्रवाह चलता है। उस समय ये ज्ञान वाणियाँ हमें शीघ्रता से प्राप्त होती हैं ।

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    विषय

    मर्त्य मात्र में प्रविष्ट चतुः शृंग, त्रिपाद्, द्विशिरा, सप्तहस्त महादेव वृषभ का आलंकारिक वर्णन।

    भावार्थ

    ये (धेनाः) वाणियां (अन्तः) भीतर अन्तःकरण में (हृदा) हृदय और (मनसा) मन से (पूयमानाः) पवित्र होती हुईं (सरितः न) नदियों के समान (सम्यक्) भली प्रकार अर्थ का प्रकाश करती हुई (स्रवन्ति) बहती हैं, अनायास बाहर आती हैं। (घृतस्य) अर्थ का प्रकाश करने वाले स्वप्रकाश ज्ञान के (एते ऊर्मयः) तरंग, उल्लास, (ऊर्मयः इव) जल तरङ्गों के समान ही (क्षिपणोः ईषमाणाः) प्रेरक गुरु से प्रेरित होकर ऐसे (अर्षन्ति) वेग से निकलती हैं जैसे (क्षिपणोः) व्याध से (ईषमाणाः) भयभीत हुए (मृगाः इव) मृग जिस प्रकार वेग से भागते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। अग्निः सूयों वाऽपो वा गावो वा घृतं वा देवताः॥ छन्द:-निचृत्त्रिष्टुप २, ८, ९, १० त्रिष्टुप। ३ भुरिक् पंक्तिः। ४ अनुष्टुप्। ६, ७ निचृदनुष्टुप। ११ स्वराट् त्रिष्टुप्। ५ निचृदुष्णिक्। एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे (लोक) सत्य बोलतात ते पवित्र आत्मे असून जलाप्रमाणे शांत असतात व मृगाप्रमाणे तात्काळ सुख प्राप्त करतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    These streams of light and life flow like vibrations of the voice divine, purified and sanctified by the innermost soul of the heart and mind. The streams of ghrta, joy of life, flow like deer flying from the hunter’s arrows towards the shelter of the divine saviour.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The nature and attributes of water are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those highly learned persons become glorious and renowned, whose speeches are endowed with knowledge and flow together in the form of verses from the depth of heart and purified by mind (thoughts) like the rivers flow to the ocean. These waves of knowledge pour swiftly like waves of the water or a deer running out of fear of a tiger.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is simile used in the mantra. Those who speak the truth, being pure and calm like the water, soon enjoy the desired happiness and prosperity.

    Foot Notes

    (धेनाः) विद्यायुक्ता वाचः। = Speeches endowed with the knowledge. (घृतस्य) उदकस्य | = Of the water.

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