Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 62 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 62/ मन्त्र 1
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - रथवीतिर्दाल्भ्यः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    ऋ॒तेन॑ ऋ॒तमपि॑हितं ध्रु॒वं वां॒ सूर्य॑स्य॒ यत्र॑ विमु॒चन्त्यश्वा॑न्। दश॑ श॒ता स॒ह त॑स्थु॒स्तदेकं॑ दे॒वानां॒ श्रेष्ठं॒ वपु॑षामपश्यम् ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तेन॑ । ऋ॒तम् । अपि॑ऽहितम् । ध्रु॒वम् । वा॒म् । सूर्य॑स्य । यत्र॑ । वि॒ऽमु॒चन्ति॑ । अश्वा॑न् । दश॑ । श॒ता । स॒ह । त॒स्थुः॒ । तत् । एक॑म् । दे॒वाना॑म् । श्रेष्ठ॑म् । वपु॑षाम् । अ॒प॒श्य॒म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतेन ऋतमपिहितं ध्रुवं वां सूर्यस्य यत्र विमुचन्त्यश्वान्। दश शता सह तस्थुस्तदेकं देवानां श्रेष्ठं वपुषामपश्यम् ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतेन। ऋतम्। अपिऽहितम्। ध्रुवम्। वाम्। सूर्यस्य। यत्र। विऽमुचन्ति। अश्वान्। दश। शता। सह। तस्थुः। तत्। एकम्। देवानाम्। श्रेष्ठम्। वपुषाम्। अपश्यम् ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 62; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सूर्य्यगुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे अध्यापकोपदेशकौ ! यत्र विद्वांसः सूर्यस्य दश शताऽश्वान् विमुचन्ति सह तस्थुर्वां युवयोरृतेन ध्रुवमृतमपिहितमस्ति तेदकं देवानां वपुषां च श्रेष्ठमहमपश्यं तदेव यूयमपि पश्यत ॥१॥

    पदार्थः

    (ऋतेन) सत्येन कारणेन (ऋतम्) सत्यं स्वरूपम् (अपहितिम्) आच्छादितम् (ध्रुवम्) निश्चलम् (वाम्) युवयोः (सूर्यस्य) सवितुः (यत्र) (विमुचन्ति) त्यजन्ति (अश्वान्) किरणान् (दश) (शता) शतानि (सह) सार्धम् (तस्थुः) तिष्ठन्ति (तत्) (एकम्) अद्वितीयम् (देवानाम्) विदुषाम् (श्रेष्ठम्) (वपुषाम्) रूपवतां शरीराणाम् (अपश्यम्) पश्यामि ॥१॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! योऽयं सूर्यलोकः स परमेश्वरेणानेकैस्तत्त्वैर्निर्मितत्वादनेकैर्गुर्णैर्युक्तोऽस्ति तं यथावद्विजानीत ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब नव ऋचावाले बासठवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में सूर्य्यगुणों को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे अध्यापक और उपदेशक जनो ! (यत्र) जहाँ विद्वान् जन (सूर्यस्य) सूर्य्य के (दश) दश (शता) सैकड़ों (अश्वान्) किरणों को (विमुचन्ति) छोड़ते और (सह) साथ (तस्थुः) स्थित होते हैं (वाम्) तुम दोनों के (ऋतेन) सत्य कारण से (ध्रुवम्) निश्चल (ऋतम्) सत्यस्वरूप (अपिहितम्) आच्छादित है (तत्) उस (एकम्) अद्वितीय (देवानाम्) विद्वानों के और (वपुषाम्) रूपवाले शरीरों के (श्रेष्ठम्) श्रेष्ठभाव को मैं (अपश्यम्) देखता हूँ, उसको आप लोग भी देखिये ॥१॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो यह सूर्य्यलोक है, वह परमेश्वर से अनेक तत्त्वों द्वारा रचा गया है, इस कारण अनेक गुणों से युक्त है, उसको तुम लोग यथावत् जानो ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सूर्यवत् राजा प्रजा वर्गों को सत्य व्यवहार का उपदेश ।

    भावार्थ

    भा०-जिस प्रकार ( ऋतम् ) सत्यस्वरूप सूर्य का मण्डल (ऋतेन अपहितं) तेज से आच्छादित है, ( यत्र ) जिस सूर्य के आश्रित रह कर नाना ग्रह उपग्रह आदि ( सूर्यस्य ) सूर्य के ही ( दश शता अश्वान् विमुचन्ति) हजारों किरणों को विविध रूप से धारण करते और प्रतिक्षिप्त करते हैं और जिस सूर्य के आश्रय ही वे (सह तस्थुः ) एक साथ मिलकर स्थित हैं ( तत् ) वह (एक) एक (देवानां ) तेजो युक्त, ( वपुषां श्रेष्ठं ) पिण्डों में सर्वश्रेष्ठ, (ध्रुवं ) स्थिर, निश्चल सूर्य है उसी प्रकार हे स्त्री पुरुषो ! राजा प्रजावर्गो ! ( वां ) आप दोनों वर्गों का (ध्रुवं ) स्थिर (ऋतम् ) सत्य व्यवहार भी ( ऋतेन ) सत्य वेद, ज्ञान से ( अपिहितम् ) आच्छादित तन्मय हो । ( यत्र ) जिस प्रधान नायक के आश्रय पर ( सूर्यस्य ) सूर्य के समान तेजस्वी राजा के ( दश शता अश्वान् विमुचन्ति) हजारों घुड़सवार दौड़ रहे हैं और ( सह तस्थुः ) सब एक साथ विद्यमान रहते हैं (तत् एकं ) उस एक को ( वपुषां देवानां ) देहधारी मनुष्यों के बीच (श्रेष्ठं) सर्व श्रेष्ठ रूप से ( अपश्यम् ) देखता हूं । वही ( ऋतम् ध्रुवं ) सत्य परमैश्वर्य, न्यायरूप है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्रुतिविदात्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ६ निचृत्-त्रिष्टुप् । ७, ८, ९ विराट् त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    देव शरीर

    पदार्थ

    [१] 'मित्र' की आराधना का भाव है 'सब के प्रति स्नेहवाला होना'। 'वरुण' की आराधना का भाव है 'द्वेष-निवारणवाला होना, किसी के प्रति द्वेष का न होना'। एवं 'सब के साथ स्नेह, किसी के प्रति द्वेष नहीं' यही 'मित्रावरुण' का आराधन है। इस आराधन के होने पर (ध्रुवम्) = निश्चय से (वाम्) = आपके लिये, मित्र व वरुण के लिये, (ऋतेन) = ऋत से (ऋतम्) = ऋत ही (अपिहितम्) = आच्छादित है, अर्थात् जीवन ऋतमय बन जाता है। अमृत मात्र 'द्वेष' का परिणाम है, द्वेष गया तो अमृत भी गया। यह वह जीवन बनता है (यत्र) = जहाँ (सूर्यस्य अश्वान्) = सूर्य के अश्वों के (विमुचन्ति) = राक्षसी आक्रमणों से मुक्त करते हैं। अमृत के चले जाने पर सब इन्द्रियाश्व इस प्रकार दीप्त हो उठते हैं, जैसे कि वे सूर्य के अश्व हों। [२] (दश शता) = हजारों सूर्यरश्मियाँ (सह) = साथ-साथ (तस्थुः) = स्थित होती हैं, (शतश) = ज्ञान-किरणों से जीवन-गगन दीप्त हो उठता है। मैं भी मित्र व वरुण की आराधना करके (वपुषां देवानाम्) = [वपुष्मता] श्रेष्ठ शरीरवाले देवों के (तत् एकं श्रेष्ठम्) = उस एक श्रेष्ठ शरीर को (अपश्यम्) = देखूँ, अपने शरीर को देवों का शरीर बना पाऊँ । हो जाता है, [२] इन्द्रियाश्व

    भावार्थ

    भावार्थ – 'मित्र-वरुण' की आराधना से [१] जीवन ऋतमय सूर्य की तरह चमक उठते हैं, [३] जीवन ज्ञानसूर्य से चमक उठता है, [४] हमारा शरीर देव शरीर बन जाता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात सूर्य, प्राण, उदान व राजा यांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    हे माणसांनो! या सूर्यलोकाची निर्मिती परमेश्वराने अनेक तत्त्वांद्वारे केलेली आहे. त्यामुळे त्याच्यामध्ये अनेक गुण आहेत. हे तुम्ही यथायोग्य जाणा. ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, light and life of the universe, I know the thousand radiations, and I have seen that one fixed centre of your reality, Rtam, Eternal Truth, covered by Rtam, cosmic manifestations of its mutability and the laws of mutability, where the radiations converge and wherefrom they are released around. And that eternal centre is the essential, ultimate and highest form of all existential forms of divinity, the One and yet many at the same time.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the sun are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers!! I have seen one and the best form of the sun among the embodied substances in which there are one thousand rays that abide together. This true and abiding solar system is covered by the true splendour, and various planets are dependent on it. This the splendid form known to the enlightened persons which you should also behold.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! this solar system has been made by God with many elements and it is endowed with various attributes. You should know it well.

    Foot Notes

    (अश्वान् ) किरणान् । एप वा अश्वो मेध्यो व एष (आदित्या ) तपति । तस्मात् अश्वा आदित्यकिरणाः वपुरिति रूपनाम (NG 3, 7 ) = Rays. (वपुषाम् ) रूपवतां शरीराणाम् = Of the embodied substances.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top