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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 62/ मन्त्र 8
    ऋषिः - श्रुतिविदात्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    हिर॑ण्यरूपमु॒षसो॒ व्यु॑ष्टा॒वयः॑स्थूण॒मुदि॑ता॒ सूर्य॑स्य। आ रो॑हथो वरुण मित्र॒ गर्त॒मत॑श्चक्षाथे॒ अदि॑तिं॒ दितिं॑ च ॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यऽरूपम् । उ॒षसः॑ । विऽउ॑ष्टौ । अयः॑ऽस्थूणम् । उत्ऽइ॑ता । सूर्य॑स्य । आ । रो॒ह॒थः॒ । व॒रु॒ण॒ । मि॒त्र॒ । गर्त॑म् । अतः॑ । च॒क्षा॒थे॒ इति॑ । अदि॑तिम् । दिति॑म् । च॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यरूपमुषसो व्युष्टावयःस्थूणमुदिता सूर्यस्य। आ रोहथो वरुण मित्र गर्तमतश्चक्षाथे अदितिं दितिं च ॥८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यऽरूपम्। उषसः। विऽउष्टौ। अयःऽस्थूणम्। उत्ऽइता। सूर्यस्य। आ। रोहथः। वरुण। मित्र। गर्तम्। अतः। चक्षाथे इति। अदितिम्। दितिम्। च ॥८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 62; मन्त्र » 8
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मित्रावरुणगुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे मित्रवरुणद्वर्त्तमानौ राजामात्यौ ! युवां यथा सूर्य्यस्योदितोषसो व्युष्टौ हिरण्यरूपमयःस्थूणमारोहथोऽतो गर्त्तमधिष्ठायाऽदितिं दितिं च चक्षाथे तो वयं सङ्गच्छेमहि ॥८॥

    पदार्थः

    (हिरण्यरूपम्) तेजःस्वरूपम् (उषसः) प्रातर्वेलायाः (व्युष्टौ) विशेषदाहे निवासे वा (अयःस्थूणम्) सुवर्णस्तम्भमिव (उदिता) उदये (सूर्य्यस्य) (आ) (रोहथः) (वरुण, मित्र) प्राणोदानाविव वर्त्तमानौ राजामात्यौ (गर्त्तम्) गृहम् (अतः) कारणात् (चक्षाथे) उपदिशथः (अदितिम्) अविनाशिकारणम् (दितिम्) नाशवत्कार्य्यम् (च) ॥८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । यथा सूर्य्योदयेऽन्धकारो निवर्त्तते प्रकाशः प्रवर्त्तते तथैव कार्य्यकारणात्मविद्याविदो राजाऽमात्या मित्रवद्वर्त्तित्वा दृढं न्यायं प्रचारयेयुः ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मित्रावरुण के गुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (मित्र) (वरुण) प्राण और उदान वायु के सदृश वर्त्तमान राजा और मन्त्रीजनो ! आप दोनों जैसे (सूर्य्यस्य) सूर्य्य के (उदिता) उदय में और (उषसः) प्रातःकाल के (व्युष्टौ) विशेष दाह वा निवास में (अयःस्थूणम्) सुवर्ण के खम्भे के सदृश (हिरण्यरूपम्) तेजःस्वरूप को (आ, रोहथः) आरोहण करते हैं, (अतः) इस कारण से (गर्त्तम्) गृह को अधिष्ठित हो के (अदितिम्) नहीं नष्ट होनेवाले कारण (दितिम्, च) और नाश होनेवाले कार्य्य का (चक्षाथे) उपदेश करते हैं, उन दोनों को हम लोग मिलें ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य्य के उदय होने पर अन्धकार निवृत्त होता और प्रकाश होता है, वैसे ही कार्य्य और कारणरूप विद्या के जाननेवाले राजा और मन्त्रीजन मित्र के सदृश वर्त्ताव करके दृढ़ न्याय का प्रचार करावें ॥८॥

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    विषय

    देह में प्राण उदानवत् सभा - सेनाध्यक्षों के वर्णन ।

    भावार्थ

    भा०-हे ( वरुण हे मित्र ) शरीर में प्राण उदान के समान, राष्ट्र में शत्रु का वारण करने और प्रजा के प्रति स्नेह करनेवाले आप दोनों राजा अमात्य ! (सूर्यस्य उदिता ) सूर्य के उदय होजाने पर और (उषसः ) उषा के (व्युष्टौ) अच्छी प्रकार निकल जाने पर जिस प्रकार स्त्री पुरुष (अय:-स्थूणा ) सुवर्ण या लोह के बने कील या स्तम्भ से युक्त ( हिरण्य-रूपम्) हित और रमणीय एवं स्वर्णमय ( गर्तम् ) गृह के तुल्य रथ पर ( आरोहथः ) चढ़ते और ( दितिम् अदितिम् च चक्षाथे) अदिति माता, पुत्र आदि और 'दिति' देने और रक्षा करने योग्य भृत्यादि सब को देखते हैं । उसी प्रकार आप दोनों भी (सूर्यस्य उदिता) सूर्यवत् तेजस्वी राजा के उदय होने पर और ( उषसः व्युष्टौ ) शत्रु को दग्ध करने में समर्थ सर्ववशकारिणी सेनाबल के प्रकट होने पर तुम दोनों सभा, सेना के अध्यक्ष जनो ! (हिरण्य-रूपं ) सुर्वर्णादि से रूपवान् ऐश्वर्य युक्त (अय:-स्थूणं ) सुवर्ण धन के प्रबल स्तम्भ पर आश्रित तथा हितकारी, रमणीय, लोहखण्डादि पर अवलम्बित कान्तिमय, (गर्तम् ) सभास्थल तथा युद्ध रथ पर ( आरोहथः ) आराहण करो और वहां न्यायकारी सभापति तथा सेना नायक के पद पर विराजो और ( अतः ) तदनन्तर (अदितिम् ) अखण्डनीय सत्य तथा ( दितिम् ) दिति अर्थात् खण्डनीय असत्य पक्ष को तथा (अदिति) अखण्डनीय प्रबल मित्र वा शत्रु और ( दितिम् ) खण्डनीय वा पालनीय शत्रु वा मित्र को (चक्षाथे) देखो, उनका विवेकपूर्वक निर्णय करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्रुतिविदात्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ६ निचृत्-त्रिष्टुप् । ७, ८, ९ विराट् त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    हिरण्यरूपम् अयः स्थूणं [गर्तम् ]

    पदार्थ

    [१] (उषसः व्युष्टौ) = उषा के निकलने पर, (सूर्यस्य उदिता) = सूर्य के उदय होने पर (वरुण मित्र) = हे मित्र और वरुण [स्नेह व निर्देष के भावो] ! आप (गर्तम्) = शरीर-रथ पर (आरोहथः) = आरोहण करते हो उस शरीर-रथ पर जो (हिरण्यरूपम्) = ज्योतिर्मय दीप्त रूपवाला है और (अयः स्थूणम्) = लौह स्तम्भोंवाला, अर्थात् अत्यन्त दृढ़ है। [२] हे मित्र व वरुण ! आप (अतः) = इस शरीर-रथ पर स्थित होकर (अदितिं दितिं च) = अदिति और दिति को (चक्षाथे) = देखते हो। 'क्या तो खण्डित होने का कारण है क्या खण्डित नहीं होने का' इस को आप देखते हो। अदिति को अपनाते हो, और दिति को अपने से दूर करते हो। अदिति को अपनाने से आप आदित्यों [देवों] वाले बनते हो और दिति के परिहार से आप दैत्यवृत्तियों से बचे रहते हो।

    भावार्थ

    भावार्थ- मित्र और वरुण शरीर को 'हिरण्यरूप अयः स्थूण' बनाते हैं। अदिति को अपनाते हैं, दिति का परिहार करते हैं। आदित्यों [देवों] से युक्त व दैत्यों से दूर होते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जसा सूर्योदय झाल्यावर अंधार नष्ट होतो व प्रकाश पसरतो तसेच कार्य व कारणरूप विद्या जाणणारा राजा व मंत्री यांनी मित्राप्रमाणे वागून दृढ न्यायाचा प्रचार करावा. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Mitra and Varuna, rulers and leaders of the earth, commanding vision and judgement, at the break of dawn and rise of the sun you ride your chariot of golden pillars and take your seat on the helm and thence watch the realm for what is permanent of value and preservable and what is merely transient and destructible.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the Mitra and Varuna (king and his minister) are told further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king and his minister ! you are like the Mitra and Varuna (Prana and Udana) at the rising of the sun, and the end of the dawn you mount on your splendid car which is like the golden pillar. Seated at your home, you tell people about eternal cause and the perishable world (which is its effect). Let us association with you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As at the rising of the sun, darkness disappears and light sets in, in the same manner the kings and their ministers who are knowers of the cause and effect and Atma (God and soul) should illuminate firm justice being friendly to all..

    Translator's Notes

    Eternal God as Efficient Cause of the Universe and Eternal matter-as material cause of the world. दिति: is this perishable world. It is noteworthy that differing from Sayanacharya who interprets अदिति as अखण्डनीया भूमिः or the Earth as an inviolable, whole and दिति as 'खण्डितां प्रजादिकाम् i.e. the divisible. people and living creatures inhabiting it, Griffith in his footnote on the mantra has expressed the view that the two words Aditi and Diti may perhaps mean eternal and the perishable, yonder boundless space and the bounded space near us." (Hymns of the Rigveda Vol. 1 Translated by Griffith p. 534). Though to a certain extent, it is a better interpretation than Sayanacharya's; it does not come to the standard of Maharshi Dayananda Sarasvati's philosophical interpretation which should be accepted by all lovers of truth. How strange it is for Sayanacharya to call the earth as inviolable? '

    Foot Notes

    (अय: स्थूणम् ) सुवर्णस्तम्भमिव । अय: इति हिरंष्यनाम (NG 1, 2)। = Like golden pillar. (वरुण) (मित्र) प्राणोदानाविव वर्त्तमानौ राजामात्यो । = The king and minister who are like Prana and Udana-two vital breaths. (अदितिम्) अविनाशिकारणम् । अदितिः = Imperishable cause. (दीतिम्) नाशवत्कार्य्यम्। = Perishable effect.

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