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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 62/ मन्त्र 4
    ऋषिः - श्रुतिविदात्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ वा॒मश्वा॑सः सु॒युजो॑ वहन्तु य॒तर॑श्मय॒ उप॑ यन्त्व॒र्वाक्। घृ॒तस्य॑ नि॒र्णिगनु॑ वर्तते वा॒मुप॒ सिन्ध॑वः प्र॒दिवि॑ क्षरन्ति ॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । वा॒म् । अश्वा॑सः । सु॒ऽयुजः॑ । व॒ह॒न्तु॒ । य॒तऽर॑श्मयः । उप॑ । य॒न्तु॒ । अ॒र्वाक् । घृ॒तस्य॑ । निः॒ऽनिक् । अनु॑ । व॒र्त॒ते॒ । वा॒म् । उप॑ । सिन्ध॑वः । प्र॒ऽदिवि॑ । क्ष॒र॒न्ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ वामश्वासः सुयुजो वहन्तु यतरश्मय उप यन्त्वर्वाक्। घृतस्य निर्णिगनु वर्तते वामुप सिन्धवः प्रदिवि क्षरन्ति ॥४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। वाम्। अश्वासः। सुऽयुजः। वहन्तु। यतऽरश्मयः। उप। यन्तु। अर्वाक्। घृतस्य। निःऽनिक्। अनु। वर्तते। वाम्। उप। सिन्धवः। प्रऽदिवि। क्षरन्ति ॥४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 62; मन्त्र » 4
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे याननिर्मातृचालकौ ! ये यथा वां सुयुजो यतरश्मयोऽश्वासो घृतस्यार्वागा वहन्तु यानान्युप यन्तु यथा निर्णिगनु वर्त्तते प्रदिवि सिन्धवो वामुप क्षरन्ति तथा प्रयतेथाम् ॥४॥

    पदार्थः

    (आ) (वाम्) युवयोः (अश्वासः) अग्न्याद्यास्तुरङ्गा वा (सुयुजः) ये सुष्ठु युञ्जते ते (वहन्तु) गमयन्तु (यतरश्मयः) यता निगृहीता रश्मयः किरणा रज्जवो वा येषान्ते (उप) (यन्तु) गमयन्तु (अर्वाक्) अधस्तात् (घृतस्य) उदकस्य (निर्णिक्) यो निर्णेनेक्ति स सारथिः (अनु) (वर्त्तते) (वाम्) युवाम् (उप) (सिन्धवः) नद्यः (प्रदिवि) प्रद्योतनात्मकेऽग्नौ (क्षरन्ति) वर्षन्ति ॥४॥

    भावार्थः

    यदि मनुष्या यानेषु यन्त्रकला रचयित्वाऽधोऽग्निमुपरि जलं संस्थाप्य प्रदीप्य मार्गेषु चालयेयुस्तर्हि पुष्कलाः श्रिय एतान् प्राप्नुयुः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे वाहन के बनाने और चलानेवाले जनो ! जो जैसे (वाम्) आप दोनों के (सुयुजः) उत्तम प्रकार मिलनेवाले (यतरश्मयः) ग्रहण की गई किरणें वा रस्सियाँ जिनकी ऐसे (अश्वासः) अग्नि आदि पदार्थ वा घोड़े (घृतस्य) जल के (अर्वाक्) नीचे से (आ, वहन्तु) पहुँचावें और यानों को (उप, यन्तु) चलावें और (निर्णिक्) निर्णय करनेवाला सारथी (अनु, वर्त्तते) प्रवृत्त होता है और (प्रदिवि) प्रकाशस्वरूप अग्नि में (सिन्धवः) नदियाँ (वाम्) आप दोनों को (उप, क्षरन्ति) जल किंछती हैं, वैसा प्रयत्न कीजिये ॥४॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य वाहनों में यन्त्रकलाओं को रच के नीचे अग्नि और ऊपर जल स्थापित करके और फिर उस अग्नि को प्रदीप्त करके मार्गों में चलावें तो बहुत लक्ष्मियाँ इनको प्राप्त हों ॥४॥

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    विषय

    श्रेष्ठ प्रमुख पुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०-हे विद्वान् स्त्री पुरुषो ! ( वाम् ) आप दोनों को (सु-युजः ) उत्तम रीति से जुते हुए (अश्वासः) घोड़े, उनके समान (सु-युजः अश्वासः) उत्तम रीति से नियुक्त विद्या आदि शुभ गुणों में व्याप्त जन ( वां ) आप दोनों को (आ वहन्तु ) आदर पूर्वक सर्वत्र ले जावें। और ( यतरश्मयः) वे कसी लगामों वाले अश्व वा अश्वों के लगामों को वश करने वाले सारथि लोग और उनके समान अपने अधीनस्थों तथा शक्तियों को संयम करने वाले पुरुष भी ( अर्वाक् उप यन्तु ) आप दोनों के समीप प्राप्त हों। ( वां ) आप दोनों को (घृतस्य ) घी के बने शोधक उबटन के समान तेज का (निर्णिग) शुद्ध रूप (वाम् अनु वर्तते ) आप दोनों को प्रात हो । और (प्र-दिवि ) उत्तम ज्ञानप्रकाश के निमित्त ( सिन्धवः ) ज्ञान के समुद्र जन (वाम् उप क्षरन्ति) मेघों के समान आप लोगों के प्रति ज्ञान जलों से वर्षा करें, आपको सेचें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्रुतिविदात्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ६ निचृत्-त्रिष्टुप् । ७, ८, ९ विराट् त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    इन्द्रियों की अन्तर्मुखता

    पदार्थ

    [१] हे मित्र और वरुण ! (वाम्) = आपके (सुयुजः) = शरीर-रथ में उत्तमता से जुते हुए (अश्वासः) = इन्द्रियाश्व (आवहन्तु) = हमें सर्वथा लक्ष्य स्थान पर ले जानेवाले हों । (यतरश्मयः) = जिनकी लगाम काबू में की गई है, वे इन्द्रियाश्व (अर्वाक्) = अन्दर की ओर उपयन्तु प्राप्त हों। इन्द्रियों की वृत्ति बहिर्मुखी न होकर अन्तर्मुखी हो जाये। [२] (घृतस्य) = ज्ञानदीप्ति का (निर्णिक्) = शुद्ध रूप (वां अनुवर्तते) = आपका ही अनुवर्तन करता है। जितना जितना हम स्नेह द्वेषाभाव को धारण कर पाते हैं, उतना उतना ही दीप्त ज्ञानवाले बनते हैं। आपकी आराधना के होने पर (प्रदिवि) = इस प्रकृष्ट मस्तिष्करूप द्युलोक में (सिन्धवः) = ज्ञान-नदियाँ (उप क्षरन्ति) = प्रवाहित होती है, वस्तुत: ईर्ष्या-द्वेष बुद्धि की विकृति का महान् कारण बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्नेह व निर्देषता की आराधना से इन्द्रियाँ हमें लक्ष्य-स्थान की ओर ले जायेंगी ये विषयों में न भटकेंगी, हमारी ज्ञान दीप्ति बढ़ेगी, मस्तिष्क में ज्ञानप्रवाह बहेंगे ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जर माणसांनी यानांमध्ये यंत्रकला निर्माण करून खाली अग्नी व वर जलाची स्थापना करून अग्नीला प्रदीप्त करून मार्गक्रमण केल्यास त्यांना पुष्कळ धन प्राप्त होते. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mitra and Varuna, rulers and scientists of the world, may your motive forces of transport well used and well steered like horses by reins and light by rays bear you and bring you hither. Purified and reinforced waters and liquid fuels are under your command, and let streams of water flow when the fire is ignited.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of attributes of Mitravarunau is dealt.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O constructors (builders or manufacturers. Ed.) and drivers of the vehicles, let your easily- harnessed horses or rapid growing fire, electricity etc. bear you both, and with well-guided reins or rays come down here with water Let the rivers rain water below. May the charioteer follow you. when fire is kindled.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If men build machines in the vehicles, putting fire below and water above, (through steam. Ed.) use them for travelling, they can acquire much wealth thereby.

    Foot Notes

    (अश्वास:) अग्न्याद्यास्तुरङ्गा वा । Fire, electricity or horses. (यतरश्मयः) यता निगृहीता रश्मयः किरणा रज्जवो वा येषान्ते । = Those who have controlled the reins or the rays. (निर्णिक) यो निर्णेनेति स सारथि: । णिजिर् -शौचपोषणयो: (जुहो.) = A charioteer who cleans and strengthens.

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