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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 62/ मन्त्र 7
    ऋषिः - श्रुतिविदात्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    हिर॑ण्यनिर्णि॒गयो॑ अस्य॒ स्थूणा॒ वि भ्रा॑जते दि॒व्य१॒॑श्वाज॑नीव। भ॒द्रे क्षेत्रे॒ निमि॑ता॒ तिल्वि॑ले वा स॒नेम॒ मध्वो॒ अधि॑गर्त्यस्य ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यऽनिर्निक् । अयः॑ । अ॒स्य॒ । स्थूणा॑ । वि । भ्रा॒ज॒ते॒ । दि॒वि । अ॒श्वाज॑नीऽइव । भ॒द्रे । क्षेत्रे॑ । निऽमि॑ता । तल्वि॑ले । वा॒ । स॒नेम॑ । मध्वः॑ । अधि॑ऽगर्त्यस्य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यनिर्णिगयो अस्य स्थूणा वि भ्राजते दिव्य१श्वाजनीव। भद्रे क्षेत्रे निमिता तिल्विले वा सनेम मध्वो अधिगर्त्यस्य ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यऽनिर्निक्। अयः। अस्य। स्थूणा। वि। भ्राजते। दिवि। अश्वाजनीऽइव। भद्रे। क्षेत्रे। निऽमिता। तिल्विले। वा। सनेम। मध्वः। अधिऽगर्त्यस्य ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 62; मन्त्र » 7
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः प्रसङ्गाद्विद्युद्विद्याविषयमाह ॥

    अन्वयः

    अत्र यो हिरण्यनिर्णिगयोऽस्या जगतो मध्ये दिवि भद्रे तिल्विले क्षेत्रे वि भ्राजते या अश्वाजनीव निमिता वा स्थूणा वि भ्राजते तं तां चाधिगर्त्यस्य मध्वो मध्ये वयं सनेम ॥७॥

    पदार्थः

    (हिरण्यनिर्णिक्) यः पृथिव्या हिरण्यमग्नेस्तेजश्च नितरां नेनेक्ति (अयः) योऽयते गच्छति सः (अस्य) राज्यस्य (स्थूणा) स्तम्भ इव दृढा नीतिः (वि) (भ्राजते) प्रकाशते (दिवि) प्रकाशे (अश्वाजनीव) विद्युदिव (भद्रे) कल्याणकरे (क्षेत्रे) क्षियन्ति निवसन्ति यस्मिन् पुण्ये कर्म्मणि तत्र (निमिता) नितरां मिता (तिल्विले) स्नेहस्थाने (वा) (सनेम) विभजेम (मध्वः) मधुरादिपदार्थस्य (अधिगर्त्यस्य) अधिकसुन्दरे गर्त्ते गृहे भवस्य ॥७॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। ये मनुष्या दिव्ये व्यवहारे विराजमानां विद्युदादिविद्यां गृहीतवन्तः सन्तो गृहकृत्ये यथावत् न्यायं कुर्वन्ति विभज्य विभागञ्च दत्त्वा कृतकृत्या भवन्ति त एव नीतिमन्तो भवन्ति ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर प्रसङ्ग से विद्युद्विद्या विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    इस संसार में जो (हिरण्यनिर्णिक्) पृथिवी के सुवर्ण और अग्नि के तेज को अत्यन्त निश्चय करने और (अयः) जानेवाला (अस्य) इस राज्य और जगत् के मध्य में (दिवि) प्रकाश में (भद्रे) कल्याणकारक (तिल्विले) स्नेह के स्थान में (क्षेत्रे) निवास करते हैं जिस पुण्य कर्म्म में उसमें (वि, भ्राजते) विशेष प्रकाशित होता है और (अश्वाजनीव) बिजुली के सदृश (निमिता) अत्यन्त मापी अर्थात् जाँची गई (वा) अथवा (स्थूणा) खम्भे के सदृश दृढनीति विशेष प्रकाशित होती है उस और उसको (अधिगर्त्यस्य) अधिक सुन्दर गृह में हुए (मध्वः) मधुरादि पदार्थ के मध्य में हम लोग (सनेम) विभाग करें ॥७॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो मनुष्य श्रेष्ठ व्यवहार में विराजमान बिजुली आदि की विद्या को ग्रहण करते हुए गृह के कृत्य में यथावत् न्याय को करते हैं, विभाग कर और विभाग देकर कृत्यकृत्य होते हैं, वे नीतिवाले होते हैं ॥७॥

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    विषय

    प्रमुख की स्तम्भ और कशा के समान स्थिति । शालावत् सेना का कर्त्तव्यं ।

    भावार्थ

    भा०- ( अस्य ) इस राष्ट्र वा क्षात्रबल का स्वरूप ( हिरण्य-निर्णिग् ) सुवर्ण के समान कान्तिमान् एवं राष्ट्र के लिये हितकारी और सुन्दर रमणीय हो । (अस्य) इस क्षात्रबल का ( अयः ) प्राप्त करने और चलाने वाला प्रधान पुरुष ही (स्थूणा ) मुख्यकीलक वा प्रधान स्तम्भ के समान है । ( अश्वाजनी इव) घोड़े को हांकने वाली चाबुक के समान वह प्रधान नायक ही (दिवि ) विजय के निमित्त (अश्वा-जनी ) अश्वों से बने सैन्य और राष्ट्र की संञ्चालन करने वाली सेना के तुल्य ( विभ्राजते ) विविध रूपों में चमकता है । स्तम्भ को जिस प्रकार ( भद्रे क्षेत्रे ) कल्याणकारी क्षेत्र में अथवा ( तिल्विले ) स्नेहयुक्त चिकनी मिट्टी वाले भूमि में ( निमिता ) बनी शाला सुखप्रद होती है उसी प्रकार (भद्रे क्षेत्रे) सुखप्रद क्षेत्र और स्नेहयुक्त वाणी से युक्त व्यवहार के आश्रय पर ( निमिता ) वंश की हुई सेना भी हो। इस प्रकार हम लोग ( अधिगर्त्यस्यमध्वः ) घर में रक्खे अन्न के समान अश्व रक्षादि सैन्य से प्राप्त बल और ऐश्वर्य का ( सनेम ) भोग करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्रुतिविदात्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ६ निचृत्-त्रिष्टुप् । ७, ८, ९ विराट् त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    दीप्त व अशुष्क शरीर

    पदार्थ

    [१] मित्र व वरुण का रथ (हिरण्यनिर्णिक्) = स्वर्ण के रूपवाला होता है, अर्थात् स्नेह व निर्द्वेषता से शरीर-रथ सोने के समान चमकता है। (अस्य) = इस रथ के (स्थूणा) = स्तम्भ अयः = [अयो विकारा:] लोहे के बने होते हैं। अर्थात् इस शरीर-रथ के स्तम्भ अत्यन्त सुदृढ़ होते हैं। यह रथ इस प्रकार (विभ्राजते) = चमकता है, (इव) = जैसे कि (दिवि) = द्युलोक में (अश्वाजनीं) = विद्युत् [अश्वाः व्यापनशीला: मेधाः, तान् अजति गच्छति] [२] इस शरीर-रथ की स्थूणा (भद्रे क्षेत्रे) = कल्याणकर शरीर क्षेत्र में, (वा) = अथवा (तिल्विले) = [तिलु इला यस्य] स्निग्ध-अशुष्क शरीर में निमिता बनी है। अर्थात् यह शरीर न तो किसी रोग आदि अभद्र स्थिति से आक्रान्त है और नां ही शक्तिशून्यता के कारण शुष्क हो गया है। हम (अधिगर्त्यस्य) = शरीर-रथ के लिये हितकर (मध्वः) = सोम का [वीर्यशक्ति का] (सनेम) = संभजन करें, सम्यक् सेवन करें। इस सोम को शरीर में ही सुरक्षित करें।

    भावार्थ

    भावार्थ-मित्र व वरुण की आराधना से शरीर 'दीप्त, दृढ़, भद्र व स्निग्ध' बना रहता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जी माणसे श्रेष्ठ व्यवहार करतात. विद्युत इत्यादी विद्या शिकून गृहकृत्याचे व्यवहार यथायोग्य पाळतात. पदार्थांची योग्य विभागणी करून कृतकृत्य होतात ती नीतिमान असतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    This social order is distinctive, discriminative between gold and merely glittering. It rests on pillars of gold, and it shines like lightning in the skies. Its policy is framed and defined in the house of holiness or, let us say, on the fields of fertility. Let us hope and pray we join and share the honey sweets created by the leading lights and rulers of judgement at the helm of the nation and by the people in the home by the fire-side.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of Mitravarunau is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Let us honour that man who purifies and upholds the gold of the earth and the splendour of the fire and who is active, ever moving forward in this world, who shines therefore in the light of knowledge and in meritorious and benevolent work, full of love. Let us also respect that good policy which is firm like a pillar and resplendent like the lightning or electricity well-regulated or measured out. Let us share that in the sweetness of our home.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those men are true politicians who are established in the divine conduct, who having acquired the knowledge of electricity and other sciences are just in the discharge of their domestic duties and are blessed by sharing their wealth and happiness with others.

    Foot Notes

    हिरण्यनिर्णिक् ) याः पृथिव्या हिरण्यं मग्नेस्तेजश्च नितरां नेनेति । = He who purifies and upholds the gold of the earth and splendour of the fire. (अय) योऽयते गच्छति स: । अय-गतौ ( म्वा० ) = He who goes, ever moves forward, active. (क्षेत्रे ) क्षियन्ति निवसन्ति यस्मिन्पुण्ये कम्मंणि तद् । क्षि-निवासगत्योः । अत्र निवासार्थे गर्त इति गुहनाम (NG 3, 4) = The meritorious work in which a man dwells or takes delight. (अधिगतंस्य ) अधिकसुन्दरे गत-गृहे भवस्य । = Belonging to a beautiful home. (तिल्विले) स्नेहस्थाने । तिल-स्नेहने (चुरा० ) = Full of love.

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