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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 62/ मन्त्र 6
    ऋषिः - श्रुतिविदात्रेयः देवता - मित्रावरुणौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अक्र॑विहस्ता सु॒कृते॑ पर॒स्पा यं त्रासा॑थे वरु॒णेळा॑स्व॒न्तः। राजा॑ना क्ष॒त्रमहृ॑णीयमाना स॒हस्र॑स्थूणं बिभृथः स॒ह द्वौ ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अक्र॑विऽहस्ता । सु॒ऽकृते॑ । प॒रः॒ऽपा । यम् । त्रासा॑थे । व॒रु॒णा॒ । इला॑सु । अ॒न्तरिति॑ । राजा॑ना । क्ष॒त्रम् । अहृ॑णीयमाना । स॒हस्र॑ऽस्थूणम् । बि॒भृ॒थः॒ । स॒ह । द्वौ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अक्रविहस्ता सुकृते परस्पा यं त्रासाथे वरुणेळास्वन्तः। राजाना क्षत्रमहृणीयमाना सहस्रस्थूणं बिभृथः सह द्वौ ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अक्रविऽहस्ता। सुऽकृते। परःऽपा। यम्। त्रासाथे इति। वरुणा। इळासु। अन्तरिति अन्तः। राजाना। क्षत्रम्। अहृणीयमाना। सहस्रऽस्थूणम्। बिभृथः। सह। द्वौ ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 62; मन्त्र » 6
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे वरुणा सभासेनेशौ राजामात्यौ ! वायुसूर्य्यवदक्रविहस्ता परस्पा राजाना क्षत्रमहृणीयमाना द्वौ युवामिळास्वन्तः सुकृते वर्त्तमानौ सह यं त्रासाथे तं सहस्रस्थूणं बिभृथः ॥६॥

    पदार्थः

    (अक्रविहस्ता) अहिंसाहस्तौ दानशीलहस्तौ वा (सुकृते) धर्म्ये कर्मणि (परस्पा) यौ परां पातो रक्षतस्तौ (यम्) (त्रासाथे) भयं दद्यातम् (वरुणा) अतिश्रेष्ठौ (इळासु) पृथिवीषु (अन्तः) मध्ये (राजाना) राजमानौ (क्षत्रम्) राज्यं धनं वा (अहृणीयमाना) क्रोधरहिताचरणौ सन्तौ (सहस्रस्थूणम्) सहस्रमसंख्या वा स्थूणा यस्मिंस्तज्जगत् राज्यं यानं वा (बिभृथः) धरथः (सह) सार्धम् (द्वौ) ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजामात्या ! भवन्तः स्वयं धर्मात्मानो भूत्वा सहस्रशाखस्य राज्यस्य रक्षणाय दुष्टान् दण्डयित्वा श्रेष्ठान् सत्कृत्य यशस्विनो भवन्तु ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (वरुणा) अति श्रेष्ठ सभा और सेना के स्वामी राजा और मन्त्री जनो ! वायु और सूर्य के सदृश (अक्रविहस्ता) नहीं हिंसा करनेवाले हस्त जिनके वा दानशील हस्त जिनके वे (परस्पा) दूसरों की रक्षा करनेवाले (राजाना) प्रकाशमान और (क्षत्रम्) राज्य वा धन को (अहृणीयमाना) क्रोध से रहित आचरण करते हुए (द्वौ) दोनों आप (इळासु) पृथिवियों के (अन्तः) मध्य में (सुकृते) धर्मयुक्त काम में वर्त्तमान (सह) साथ (यम्) जिसको (त्रासाथे) भय देवें उस (सहस्रस्थूणम्) सहस्र वा असंख्य थूनीवाले जगत्, राज्य वा वाहन को (बिभृथः) धारण करो ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजा और मन्त्रीजन ! आप स्वयं धर्मात्मा होकर सहस्र शाखा जिसकी, ऐसे राज्य के रक्षण के लिये दुष्टों को दण्ड देकर और श्रेष्ठों का सत्कार करके यशस्वी होवें ॥६॥

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    विषय

    राजा अमात्य, स्त्री पुरुषों को भवन और स्तम्भवत् रहने का उपदेश ।

    भावार्थ

    भा-हे ( वरुणा) दोनों श्रेष्ठ जनो ! दुःखों को वारण करने वाले ! सभा के स्वामियो, राजा अमात्यो ! स्त्री पुरुषो! आप दोनों (अक्रवि-हस्ता) अहिंसक एवं अकृपण, दयालु दानशील हाथ वाले होकर ( सुकृते ) उत्तम पुण्यकार्य की वृद्धि के लिये ( परस्पा ) एक दूसरे की रक्षा करते हुए भी ( इडासु ) भूमियों, वाणियों और आदर सत्कार की क्रियाओं के ( अन्तः ) बीच ( यं त्रासाथे ) जिसकी रक्षा करते वा जिसको भय दिलाते हो, हे ( राजाना ) तेजस्वी राजपद पर विराजने वालो ! उस शत्रु तथा ( क्षत्रम् ) बलशाली सैन्य को ( अहृणीयमाना ) क्रोधरहित होकर (सह द्वौ ) दोनों साथ मिल कर (सहस्र-स्थूणं ) सहस्रों वा दृढ़ स्तम्भों से युक्त विशाल भवन के समान महान् राष्ट्र को भी ( बिभृथः ) निरन्तर परिपुष्ट करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्रुतिविदात्रेय ऋषिः ॥ मित्रावरुणौ देवते ॥ छन्द:- १, २ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ६ निचृत्-त्रिष्टुप् । ७, ८, ९ विराट् त्रिष्टुप ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    अक्रविहस्ता परस्पा

    पदार्थ

    [१] हे (वरुण) = मित्र और वरुण (यम्) = जिसको आप (इडासु अन्तः) = वेदवाणियों के अन्दर (त्रासाथे) = रक्षित करते हो उसके लिए (अक्रविहस्ता) = अकृपण हाथोंवाले, दानशूर होते हो, उस (सुकृते) = पुण्यशाली के लिये (परस्पा) = शत्रुओं से रक्षा करनेवाले होते हो । मित्र व वरुण की आराधना हमें सब उत्तम गुणों को प्राप्त कराती है और शत्रुओं से हमारा रक्षण करती है। [२] (राजाना) = हमारे जीवन को दीप्त करनेवाले, (अहृणीयमाना) = क्रोध न करते हुए ये मित्र और वरुण (सह द्यौ) = साथसाथ मिले हुए दोनों (क्षत्रम्) = बल को तथा (सहस्त्रस्थूणम्) = शतशः स्तम्भोंवाले इस शरीरगृह को (बिभृथः) = धारण करते हो । स्नेह व निर्देषता के भाव से शरीर का बल ठीक बना रहता है और शरीर का धारण करनेवाले सब अंग अविकृत बने रहते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्नेह व निर्दोषता का भाव [१] हमें शत्रुओं से रक्षित करता है, [२] हमारे बलको स्थिर रखता है, [३] शरीर के अंग-प्रत्यंग को सुदृढ़ बनाता है ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा व मंत्र्यांनो! तुम्ही स्वतः धर्मात्मा बनून ज्या राज्याच्या सहस्त्रो शाखा असतात त्यांचे रक्षण करून दुष्टांना दंड देऊन श्रेष्ठांचा सत्कार करा व यशस्वी व्हा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Mitra and Varuna, leading lights of vision and judgement, ruling and refulgent powers of humanity, kind and loving nobilities of non-violent hands, holy of action, helpful for others, seated at the centres of yajnic activity over the earth’s regions, ruling and protecting the social order without hurting and damaging it, both of you bear and hold up the order of a thousand pillars together and protect it against fear and violence of terror.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More about the Mitravarunau is said.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O very good President of the council of ministers and Commander-in-Chief of the army, king and minister your hands are free from undue violence or generous like the air and the sun, protector of others, shining on account of your virtues, free from anger, preserve the kingdom or the wealth on earth. Doing always noble deeds you terrify the wicked and protect the world containing thousands of pillars or the charming vehicles.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king and ministers, you should become glorious by being righteous and protecting the kingdom with thousands of departments. You should punish the wicked and honour good persons,

    Foot Notes

    (अक्रविहस्ता) अहिन्साहस्तौ दानशील हस्तौ। = Whose hands are free from undue violence or generous in giving charity. (अहृणीयमाना ) क्रोधरहिताचरणौ सन्तो । हृणीयते ऋध्यपतिकर्मा (NG 2, 12) = Of conduct free from anger. (सहस्त्रस्थूयूणम्) सहस्त्रम् (असंख्या वा स्थूणा यस्मिंस्तज्जगत्, राज्यं यानं वा । = The world containing thousand of pillars are the State or the charming vehicles.

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