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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 12
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - साम्नीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नः॑ पृ॒थु श्र॒वाय्य॒मच्छा॑ देव विवाससि। बृ॒हद॑ग्ने सु॒वीर्य॑म् ॥१२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । नः॒ । पृ॒थु । श्र॒वाय्य॑म् । अच्छ॑ । दे॒व॒ । वि॒वा॒स॒सि॒ । बृ॒हत् । अ॒ग्ने॒ । सु॒ऽवीर्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नः पृथु श्रवाय्यमच्छा देव विवाससि। बृहदग्ने सुवीर्यम् ॥१२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। नः। पृथु। श्रवाय्यम्। अच्छ। देव। विवाससि। बृहत्। अग्ने। सुऽवीर्यम् ॥१२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 12
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 23; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः परस्परं कथं वर्त्तितव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे देवोऽग्नेऽग्निरिव यतस्त्वं नः पृथु श्रवाय्यं बृहत्सुवीर्य्यमच्छा विवाससि तस्मात् स त्वं सत्कर्त्तव्योऽसि ॥१२॥

    पदार्थः

    (सः) (नः) अस्मभ्यम् (पृथु) विस्तीर्णम् (श्रवाय्यम्) श्रोतुमर्हम् (अच्छा) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (देव) विद्यादातः (विवाससि) परिचरसि (बृहत्) (अग्ने) अग्निरिव कार्य्यसाधक (सुवीर्य्यम्) सुबलम् ॥१२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये यस्योपकारं कुर्वन्ति ते तस्य सत्कर्त्तव्या भवन्ति ॥१२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को परस्पर कैसा वर्त्ताव करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (देव) विद्या के देनेवाले (अग्ने) अग्नि के समान कार्य्य के साधक ! जैसे अग्नि वैसे जिस कारण से आप (नः) हम लोगों के लिये (पृथु) विस्तारयुक्त (श्रवाय्यम्) सुनने योग्य (बृहत्) बड़े (सुवीर्य्यम्) श्रेष्ठ बलयुक्त (अच्छा) अच्छे प्रकार (विवाससि) सेवा करते हो, इससे (सः) वह आप सत्कार करने योग्य हो ॥१२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो जिसका उपकार करते हैं, वे उनके सत्कार करने योग्य होते हैं ॥१२॥

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    विषय

    प्रकाशवत् ज्ञानवितरण ।

    भावार्थ

    हे ( देव ) ज्ञान देने हारे विद्वन् ! हे (अग्ने ) अन्धकार में अग्नि के समान ज्ञान के प्रकाश से सब पदार्थों को प्रकाशित करने हारे ! ( सः ) वह तू ( नः ) हमें ( पृथु ) बहुत बड़ा विस्तृत (श्रवाय्यं ) श्रवण करने योग्य और ( बृहत् ) बड़ा भारी ( सुवीर्यं ) उत्तम वीर्य, बल के देने वाला, ज्ञान और तप ( अच्छ विवाससि ) अच्छी प्रकार प्राप्त कराओ ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    श्रवाय्यं, सुवीर्यम्

    पदार्थ

    [१] हे (देव) = प्रकाशमय प्रभो ! (सः) = वे आप (नः) = हमारे लिये (पृथु) = विशाल (श्रवाय्यम्) = श्रवणीय ज्ञान को अच्छा (विवाससि) = आभिमुख्येन प्राप्त कराते हैं [अभिगमय] । [२] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो! आप हमें (बृहत्) = वृद्धि के कारणभूत (सुवीर्यम्) = उत्तम शक्ति को देते हैं। वस्तुतः ज्ञान और शक्ति के बिना किसी भी उन्नति का होना सम्भव नहीं। प्रभु से ज्ञान व शक्ति को प्राप्त करके ही हम भी 'देव व अग्नि' बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-वे प्रकाशमय प्रभु हमें विशाल ज्ञान प्राप्त कराते हैं, उन्नति की साधनभूत शक्ति को देते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे ज्याच्यावर उपकार करतात ते सत्कार करण्यायोग्य असतात. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light and lustre, mighty expansive power, you bless us graciously with admirable strength and courage worthy of universal honour and fame.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should men deal with one another is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O giver of true knowledge! O accomplisher of noble works like the fire, as you give us well great knowledge which is worth hearing and is a great power, you are worthy of respect.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who do good to the persons, must be respected by them.

    Foot Notes

    ( विवाससि ) परिचरसि । विवासति परिचरणकर्मा (NG 3, 5) = Serve (by giving good knowledge and power).

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