ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 32
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वं तं दे॑व जि॒ह्वया॒ परि॑ बाधस्व दु॒ष्कृत॑म्। मर्तो॒ यो नो॒ जिघां॑सति ॥३२॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । तम् । दे॒व॒ । जि॒ह्वया॑ । परि॑ । बा॒ध॒स्व॒ । दुः॒ऽक्र्त॑म् । मर्तः॑ । यः । नः॒ । जिघां॑सति ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं तं देव जिह्वया परि बाधस्व दुष्कृतम्। मर्तो यो नो जिघांसति ॥३२॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। तम्। देव। जिह्वया। परि। बाधस्व। दुःऽकृतम्। मर्तः। यः। नः। जिघांसति ॥३२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 32
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे देव ! त्वं यो मर्त्तो नो जिघांसति तं दुष्कृतं जिह्वया परि बाधस्व ॥३२॥
पदार्थः
(त्वम्) (तम्) (देव) विद्वन् न्यायेश (जिह्वया) वाचा (परि) सर्वतः (बाधस्व) (दुष्कृतम्) यो दुष्टं कर्म करोति तम् (मर्त्तः) मनुष्यः (यः) (नः) अस्मान् (जिघांसति) हन्तुमिच्छति ॥३२॥
भावार्थः
हे राजन् विद्वन् वा ! यो न्यायधर्म्मं विहाय पक्षपातेनाधर्म्मं करोति तं सद्यो भृशं दण्डय ॥३२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (देव) विद्यायुक्त न्यायाधीश ! (त्वम्) आप (यः) जो (मर्त्तः) मनुष्य (नः) हम लोगों की (जिघांसति) मारने की इच्छा करता है (तम्) उस (दुष्कृतम्) दुष्ट कर्म्म करनेवाले को (जिह्वया) वाणी से (परि) सब ओर से (बाधस्व) पीड़ित करिये ॥३२॥
भावार्थ
हे राजन् वा विद्वन् ! जो न्यायधर्म का त्याग करके पक्षपात से अधर्म्म करता है, उसको शीघ्र निरन्तर दण्ड दीजिये ॥३२॥
विषय
हमारे विरोधी दुष्ट पुरुष को वचन द्वारा दण्डित करना या वाक्छेदन करने का दण्ड ।
भावार्थ
हे ( देव ) दानशील ! हे शत्रुओं को खण्डित करने और विजय करने हारे राजन् ! ( यः मर्त्तः ) जो मनुष्य ( नः ) हमें ( जिघांसति ) मारना चाहता हो ( त्वं ) तू ( दुष्कृतम् ) उस दुष्टाचरण करने वाले पापी पुरुष को ( जिह्वया ) वाणी या आज्ञा द्वारा ( परि बाधस्व ) विनाश कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
दुष्कृतं जिह्वया परिबाधस्व
पदार्थ
[१] हे (देव) = सब शत्रुओं को जीतने की कामनावाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (तम्) = उस (दुष्कृतम्) = पापाचरण करनेवाले मनुष्य को (जिह्वया) = जिह्वा से दिये जानेवाले ज्ञानोपदेश के द्वारा (परिबाधस्य) = बाधित करिये, उसे पाप करने से रोकिये। [२] उस मनुष्य को अशुभ कर्मों से रोकिये (यः मर्तः) = जो मनुष्य (नः जिघांसति) = हमें मारने की कामना करता है। ज्ञानोपदेश द्वारा इसकी इस जिघांसा वृत्ति को करिये ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु दुष्कृत पुरुष को भी ज्ञानोपदेश प्राप्त कराके अशुभ कर्मों से रोकें ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा किंवा विद्वाना ! जो न्याय, धर्म पाळीत नाही व पक्षपाताने अधर्म करतो त्याला तात्काळ दंड दे. ॥ ३२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Brilliant lord of love and justice, with your flames of fire, the power of your word of judgement, prevention and punishment, stop that person alongwith the evil deed that intends or is intended to hurt us and to destroy us.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king do is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O highly learned administrator of justice! punish severely that evil-doer with your tongue (by pronouncing judgement) who desires to kill us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O learned judge or king! inflict quickly severe punishment on him who giving up justice with partiality or prejudice, observes unrighteousness.
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