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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 16 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 16/ मन्त्र 27
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - आर्चीपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ते ते॑ अग्ने॒ त्वोता॑ इ॒षय॑न्तो॒ विश्व॒मायुः॑। तर॑न्तो अ॒र्यो अरा॑तीर्व॒न्वन्तो॑ अ॒र्यो अरा॑तीः ॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ते । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । त्वाऽऊ॑ताः । इ॒षय॑न्तः । विश्व॑म् । आयुः॑ । तर॑न्तः । अ॒र्यः । अरा॑तीः । व॒न्वन्तः॑ । अ॒र्यः । अरा॑तीः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ते ते अग्ने त्वोता इषयन्तो विश्वमायुः। तरन्तो अर्यो अरातीर्वन्वन्तो अर्यो अरातीः ॥२७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ते। ते। अग्ने। त्वाऽऊताः। इषयन्तः। विश्वम्। आयुः। तरन्तः। अर्यः। अरातीः। वन्वन्तः। अर्यः। अरातीः ॥२७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 16; मन्त्र » 27
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! यस्तेऽर्य आज्ञापयेत्तत्त्वं कुरु। ये च त्वोता इषयन्तो विश्वमायुस्तरन्तोऽरातीर्वन्वतोऽरातीर्विजयन्ते ते तव सम्बन्धिनः सन्तु त्वमेषामर्य्यो भव ॥२७॥

    पदार्थः

    (ते) (ते) तव (अग्ने) अग्निरिव विद्यया प्रकाशमान (त्वोताः) त्वया रक्षिताः (इषयन्तः) इषमन्नं कामयमानाः (विश्वम्) सर्वम् (आयुः) जीवनम् (तरन्तः) उल्लङ्घयन्तः (अर्य्यः) स्वामी (अरातीः) न विद्यते रातिर्दानं येषु तान् कृपणान् विरोधिनः (वन्वन्तः) विभजन्तः (अर्य्यः) (अरातीः) ॥२७॥

    भावार्थः

    ये ब्रह्मचर्य्यादिना रोगान्निवार्य्य चिरञ्जीविनः स्युस्ते धार्मिकाः सर्वकार्य्येष्वध्यक्षा भवन्तु ॥२७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिए, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान विद्या से प्रकाशमान ! जो (ते) आप का (अर्य्यः) स्वामी आज्ञा देवे उसको आप करिये और जो (त्वोताः) आप से रक्षित (इषयन्तः) अन्न की कामना करते और (विश्वम्) सम्पूर्ण (आयुः) जीवन के (तरन्तः) पार होते हुए (अरातीः) नहीं विद्यमान दान जिनमें उन कृपण विरोधियों का (वन्वन्तः) विभाग करते हुए तथा (अरातीः) जिनमें दान नहीं उन शत्रुओं को विशेष करके जीतते हैं, वे (ते) आपके सम्बन्धी होवें, आप इनके (अर्य्यः) स्वामी होओ ॥२७॥

    भावार्थ

    जो ब्रह्मचर्य आदि से रोगों को दूर करके चिरञ्जीवी होवें, वे धार्मिक सम्पूर्ण कार्य्यों में अध्यक्ष हों ॥२७॥

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    विषय

    प्रभु, स्वामी के सच्चे सैनिक ।

    भावार्थ

    है ( अग्ने ) तेजस्विन् ! स्वप्रकाश ! ( अरातीः अर्यः इव ) न दान देनेवाले कृपणों को जिस प्रकार धनस्वामी अपने वैभव से लांघ जाता है उसी प्रकार जो ( अरातीः अर्थः ) करादि न देने वाले शत्रुओं को ( तरन्तः ) पार करते हुए और ( वन्वन्तः ) उनका नाश करते हुए, ( त्वा उताः ) तुझ से सुरक्षित रहते हैं ( ते ते ) वे तेरे अधीन जन ( इषयन्तः ) अन्न की कामना करते हुए या तेरी सेना बने हुए ( विश्वम् आयु: ) पूर्ण जीवन प्राप्त करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ४८ भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ६, ७ आर्ची उष्णिक् । २, ३, ४, ५, ८, ९, ११, १३, १४, १५, १७, १८, २१, २४, २५, २८, ३२, ४० निचृद्गायत्री । १०, १९, २०, २२, २३, २९, ३१, ३४, ३५, ३६, ३७, ३८, ३९, ४१ गायत्री । २६, ३० विराड्-गायत्री । १२, १६, ३३, ४२, ४४ साम्नीत्रिष्टुप् । ४३, ४५ निचृत्- त्रिष्टुप् । २७ आर्चीपंक्तिः । ४६ भुरिक् पंक्तिः । ४७, ४८ निचृदनुष्टुप् ॥ अष्टाचत्वारिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    तरन्तः-वन्वन्तः

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (ते) = वे (ते) = आपके ही हैं, जो कि (त्वा ऊताः) = आपसे रक्षित हुएहुए, (इषयन्तः) = आपकी प्रेरणा को प्राप्त करने की कामनावाले होते हुए (विश्वं आयुः) = सम्पूर्ण जीवन में (अर्यः) = आक्रमण करनेवाली [अभिगंत्री:] (अराती:) = शत्रुसेनाओं को (तरन्तः) = तैर जाते हैं। [२] प्रभु प्रेरणा को सुनते हुए ये शक्ति (अर्यः) = आक्रमणकारी (अराती:) = शत्रु सेनाओं को (वन्वन्तः) = हिंसित करते हैं। सदा शत्रुओं का शातन करते हुए ये व्यक्ति आगे बढ़ते चलते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु भक्त वे हैं- [क] जो प्रभु के बन जाएँ, [ख] प्रभु से रक्षित हुए हुए प्रभु की प्रेरणा को सुनें, [ग] प्रभु प्रेरणा के द्वारा वासनारूप शत्रुओं का हिंसन कर दें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे ब्रह्मचर्य इत्यादींनी रोग दूर करून दीर्घायु होतात ते धार्मिक असून संपूर्ण कार्यात मुख्य असतात. ॥ २७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, all those devotees of yours, who enjoy your protection and pray for food, energy and sustenance for a full happy life, cross over indigence and hostility, wiping off the envious and the stingy hoarders away from their path.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is told further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O man shining with knowledge like the fire, you should as your master commands you, let those be your kith and kin who protected by you, desiring good food, strong and active all their lives, dividing the miserly adversaries achieve victory. May you be their master.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Let those persons be appointed as in charge of all works, who by the observance of Brahmacharya (abstinence) are free from diseases and long lived.

    Foot Notes

    (अरातीः) न विद्यते रातिर्दानंयेषु तान् कृपणान् विरोधिनः । अ + रा दाने (अदा० ) = Miserly adversaries. (वन्मन्तः) विभजन्त: । वन संभक्तौ (भ्वा० ) Dividing. (अर्य्य:) स्वामी । अर्यः इति ईश्वरनाम (NG 2, 22) Master, lord.

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