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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 15/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒ग्नी रक्षां॑सि सेधति शु॒क्रशो॑चि॒रम॑र्त्यः। शुचिः॑ पाव॒क ईड्यः॑ ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । रक्षां॑सि । से॒ध॒ति॒ । शु॒क्रऽशो॑चिः । अम॑र्त्यः । शुचिः॑ । पा॒व॒कः । ईड्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नी रक्षांसि सेधति शुक्रशोचिरमर्त्यः। शुचिः पावक ईड्यः ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। रक्षांसि। सेधति। शुक्रऽशोचिः। अमर्त्यः। शुचिः। पावकः। ईड्यः ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 15; मन्त्र » 10
    अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    यः शुक्रशोचिरमर्त्यः शुचिः पावक ईड्योऽग्निरिव रक्षांसि सेधति स कीर्त्तिमान् भवति ॥१०॥

    पदार्थः

    (अग्निः) अग्निरिव राजा सेनेशो वा (रक्षांसि) रक्षयितव्यानि (सेधति) साधयति (शुक्रशोचिः) शुद्धतेजस्कः (अमर्त्यः) मर्त्यधर्मरहितः (शुचिः) पवित्रः (पावकः) शोधकः पवित्रकर्त्ता (ईड्यः) स्तोतुमन्वेष्टुं वा योग्यः ॥१०॥

    भावार्थः

    यथा राजाऽन्यायं निवार्य्य न्यायं प्रकाशयति तथैव विद्युद्दारिद्र्यं विनाशय लक्ष्मीं जनयति ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (शुक्रशोचिः) शुद्ध तेजस्वी (अमर्त्यः) साधारण मनुष्यपन से रहित (शुचिः) पवित्र (पावकः) शुद्ध पवित्र करनेवाला (ईड्यः) स्तुति करने वा खोजने चाहने योग्य (अग्निः) अग्नि के तुल्य राजा वा सेनाधीश (रक्षांसि) रक्षा करने योग्य कार्यों को (सेधति) सिद्ध करे, वह कीर्तिवाला होता है ॥१०॥

    भावार्थ

    जैसे राजा अन्याय का निवारण कर न्याय का प्रकाश करता है, वैसे विद्युत् दरिद्रता का विनाश कर लक्ष्मी को प्रकट करता है ॥१०॥

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    विषय

    प्रभु की उपासना और प्रार्थना ।

    भावार्थ

    ( अग्निः ) अग्निवत् तेजस्वी ( शुक्र-शोचि: ) शुद्ध तेज वाला, (शुचिः ) धर्मात्मा, स्वच्छाचारवाला, ( पावकः ) स्वयं पवित्र, अन्यों को पवित्र करने वाला पुरुष ( ईड्य: ) स्तुति और आदर करने योग्य है । वह ( अमर्त्यः ) अन्य साधारण मनुष्यों से भिन्न, उनसे अधिक होकर ही ( रक्षांसि ) दुष्ट पुरुषों को ( सेधति ) वश करता है । इत्येकोनविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ३, ७, १०, १२, १४ विराड्गायत्री । २, ४, ५, ६, ९, १३ गायत्री । ८ निचृद्गायत्री । ११ ,१५ आर्च्युष्णिक् ।। पञ्चदशर्चं सूकम् ॥

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    विषय

    रक्षो-बाधन

    पदार्थ

    [१] (अग्नि:) = वे अग्रेणी प्रभु (रक्षांसि) = हमारे राक्षसीभावों को (सेधति) = बाधित करते हैं, हमारे दूर करते हैं। (शुक्रशोचिः) = वे प्रभु दीप्त ज्ञान-ज्योतिवाले हैं, (अमर्त्यः) = अविनाशी हैं। उपासक के लिये भी इस ज्ञान-ज्योति को प्राप्त कराके ये उसे विषय वासनाओं के पीछे मरते रहने से दूर करते हैं। [२] (शुचिः) = वे प्रभु पवित्र हैं। (पावकः) = पवित्र करनेवाले हैं। (ईड्यः) = एतएव स्तुति के योग्य हैं। प्रभु का स्तवन करता हुआ ही तो मैं पवित्र जीवनवाला बनूँगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ज्ञान देकर हमारे राक्षसीभावों को दूर करते हैं। प्रभु पवित्र हैं, हमें पवित्र करते हैं। अतएव उपास्य हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा राजा अन्यायाचे निवारण करून न्याय करतो तसे विद्युत दारिद्र्याचा नाश करून लक्ष्मी प्राप्त करवून देते. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni counters, corrects, also destroys, wickedness. Immortal, purifying, adorable, the lord blazes with dazzling refulgence of fire and the sun.

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