ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 15/ मन्त्र 13
अग्ने॒ रक्षा॑ णो॒ अंह॑सः॒ प्रति॑ ष्म देव॒ रीष॑तः। तपि॑ष्ठैर॒जरो॑ दह ॥१३॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । रक्ष॑ । नः॒ । अंह॑सः । प्रति॑ । स्म॒ । दे॒व॒ । रिष॑तः । तपि॑ष्ठैः । अ॒जरः॑ । द॒ह॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने रक्षा णो अंहसः प्रति ष्म देव रीषतः। तपिष्ठैरजरो दह ॥१३॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने। रक्ष। नः। अंहसः। प्रति। स्म। देव। रिषतः। तपिष्ठैः। अजरः। दह ॥१३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 15; मन्त्र » 13
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा किंवत्किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे देवाऽग्ने राजन् ! यथाऽग्निस्तपिष्ठैः काष्ठादिकं दहति तथैवाऽजरः सँस्त्वं रीषतो नो रक्ष। अंहसः स्म प्रति रक्ष दुष्टाचाराँस्तपिष्ठैर्दह ॥१३॥
पदार्थः
(अग्ने) पावक इव (रक्षा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (नः) अस्मान् (अंहसः) पापाचरणात् (प्रति) (स्म) एव (देव) दिव्यगुणकर्मस्वभावयुक्त (रीषतः) हिंसकात् (तपिष्ठैः) अतिशयेन प्रतापकैः (अजरः) जरारहितः (दह) भस्मसात्कुरु ॥१३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाग्निः शीतादन्धकाराच्च रक्षति तथा राजादयो विद्वांसो हिंसादिपापाचरणात् सर्वान् पृथग्रक्षन्ति ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा किसके समान क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (देव) उत्तम गुण-कर्म-स्वभावयुक्त (अग्ने) अग्निवत् तेजस्वी राजन् ! जैसे अग्नि (तपिष्ठैः) अत्यन्त तपानेवाले तेजों से काष्ठादि को जलाता है, वैसे (अजरः) वृद्धपन वा शिथिलता रहित हुए आप (रीषतः) हिंसक से (नः) हमारी (रक्ष) रक्षा कीजिये और (अंहसः) पापाचरण से (स्म) ही (प्रति) प्रतीति के साथ रक्षा कीजिये और दुष्टचारियों को तेजों से (दह) जलाइये ॥१३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अग्नि शीत और अन्धकार से रक्षा करता है, वैसे राजा आदि विद्वान् हिंसादि पापरूप आचरण से सब को पृथक् रखते हैं ॥१३॥
विषय
प्रभु की उपासना और प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! राजन् ! तू ( नः ) हमें ( अंहसः और पापी पुरुष से बचा । हे ( देव ) तेजस्विन् ! अभयदातः ! तू ( रीषतः ) हिंसकों को स्वयं ( अजरा: ) उखाड़ने में समर्थ एवं जरारहित, बलवान् होकर ( तपिष्ठैः ) अति सन्तापदायक उपायों से ( प्रति दह स्म) एक २ करके दग्ध कर, समूल नाश कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ३, ७, १०, १२, १४ विराड्गायत्री । २, ४, ५, ६, ९, १३ गायत्री । ८ निचृद्गायत्री । ११ ,१५ आर्च्युष्णिक् ।। पञ्चदशर्चं सूकम् ॥
विषय
शत्रु दहन
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो! आप (नः) = हमें (अंहसः) = पाप से (रक्ष) = बचाइये। सदा प्रगतिशील बनते हुए हम पापों से दूर रहें। (देव) = हे प्रकाशमय प्रभो ! (रीषतः) = हिंसक शत्रु से प्रति [रक्ष] (स्म) = हमें बचाइये। काम-क्रोध-लोभ आदि हमें खा जानेवाले शत्रुओं से प्रभु हमारा रक्षण करें। [२] (अजरः) = कभी जीर्ण न होनेवाले आप (तपिष्ठैः) = अत्यन्त तापक तेजों से (दह) = इन्हें भस्म कर दीजिये। इन शत्रुओं की नगरियों का विध्वंस आपने ही तो करना है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें पापों से बचाएँ। हमारे हिंसक शत्रुओं को अपने तेज से भस्म कर दें।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा अग्नी शीत व अंधकारापासून रक्षण करतो तसे राजा इत्यादी विद्वान हिंसा इत्यादी पापरूपी आचरणापासून सर्वांना पृथक ठेवतात. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, fiery ruler and generous lord of enlightenment, save us from sin, protect us from the sinful and the destroyers. Lord eternal and unaging, with your blazing law, justice and discipline, burn out evil, evil deeds and evil doers.
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