ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 15/ मन्त्र 12
त्वम॑ग्ने वी॒रव॒द्यशो॑ दे॒वश्च॑ सवि॒ता भगः॑। दिति॑श्च दाति॒ वार्य॑म् ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒ग्ने॒ । वी॒रऽव॑त् । यशः॑ । दे॒वः । च॒ । स॒वि॒ता । भगः॑ । दितिः॑ । च॒ । दा॒ति॒ । वार्य॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्ने वीरवद्यशो देवश्च सविता भगः। दितिश्च दाति वार्यम् ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। अग्ने। वीरऽवत्। यशः। देवः। च। सविता। भगः। दितिः। च। दाति। वार्यम् ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 15; मन्त्र » 12
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने राजन् ! यथा देवः सविता दितिश्च वार्यं वीरवद्यशो भगश्च दाति तदेतत्त्वं देहि ॥१२॥
पदार्थः
(त्वम्) (अग्ने) अग्निरिव राजन् (वीरवत्) प्रशस्ता वीरा विद्यन्ते यस्मिंस्तत् (यशः) धनं कीर्तिं च (देवः) दाता देदीप्यमानः (च) (सविता) प्रेरकः सूर्यो वा (भगः) धनैश्वर्यम् (दितिः) दुःखनाशिका नीतिः (च) (दाति) ददाति (वार्यम्) वरणीयम् ॥१२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यो राजा सुसम्प्रयुक्ताऽग्न्यादिवत्प्रजास्वैश्वर्यमुद्योगेन सुनीत्या च कारयित्वा दुःखं खण्डयति स एव यशस्वी भवति ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य तेजस्वि राजन् ! जैसे (देवः) दानशील वा प्रकाशमान (सविता) प्रेरणा करनेवाला वा सूर्य और (दितिः) दुःखनाशक नीति (च) भी (वार्यम्) स्वीकार के योग्य (वीरवत्) जिससे उत्तम वीर पुरुष हों (यशः) उस धन वा कीर्ति (च) और (भगः) ऐश्वर्य को (दाति) देती है, इसको (त्वम्) आप दीजिये ॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा अच्छे प्रकार सम्प्रयुक्त अग्नि आदि के तुल्य प्रजाओं में उद्योग से और अच्छी नीति से ऐश्वर्य कराके दुःख को खण्डित करता है, वही यशस्वी होता है ॥१२॥
विषय
प्रभु की उपासना और प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! विद्वन् ! तू और (देवः सविता च) प्रकाशमान सूर्यवत् उत्तम दानशील, सर्वोत्पादक ( भगः ) ऐश्वर्यवान्, ( दितिः च ) दुःखों, कष्टों को नाश करने वाली नीति और हल आदि से कर्षित भूमि ये सब (वार्यम् दाति ) उत्तम धन प्रदान करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ३, ७, १०, १२, १४ विराड्गायत्री । २, ४, ५, ६, ९, १३ गायत्री । ८ निचृद्गायत्री । ११ ,१५ आर्च्युष्णिक् ।। पञ्चदशर्चं सूकम् ॥
विषय
विरागायत्री
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = अग्रेणी प्रभो ! (त्वम्) = आप (वीरवत्) = उत्तम वीर सन्तानोंवाले (यशः) = यश को- यशस्वी जीवन को हमारे लिये (दाति) = देते हैं। [२] (च) = और (सविता देव:) = वे प्रेरक सर्वोत्पादक [सविता] प्रकाशमय प्रभु हमारे लिये (वार्यम्) = वरणीय धनों को प्राप्त कराते हैं। (भगः) = ऐश्वर्य के पुञ्ज प्रभु हमारे लिये ऐश्वर्य को देते हैं। (च) = तथा (दितिः) = उदारता हमें ऐश्वर्य के देनेवाली हो। जितने हम उदार बनेंगे, उतना अधिक ऐश्वर्य को प्राप्त करेंगे।
भावार्थ
भावार्थ- हम अग्नि की उपासना करते हुए प्रगतिशील बनकर उत्तम वीर सन्तानोंवाले यशस्वी जीवन को प्राप्त करें। उत्पादक कार्यों में प्रवृत्त होकर वरणीय धनों को प्राप्त करें। उदारता हमारे धनों की वृद्धि का हेतु बने।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो राजा चांगल्या प्रकारे संयुक्त केलेल्या अग्नीप्रमाणे प्रजेमध्ये उद्योगाद्वारे व चांगल्या नीतीद्वारे ऐश्वर्य वाढवून दुःख नष्ट करतो तोच यशस्वी होतो. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, refulgent ruler, Deva Savita, generous creative power of inspiration, Bhaga, commanding power of wealth and excellence, Did, law and ethics of universality, you bless us with honour and magnificence with noble progeny of our choice and ambition of the best order with freedom from suffering.
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