ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 15/ मन्त्र 14
अधा॑ म॒ही न॒ आय॒स्यना॑धृष्टो॒ नृपी॑तये। पूर्भ॑वा श॒तभु॑जिः ॥१४॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । म॒ही । नः॒ । आय॑सी । अना॑धृष्टः । नृऽपी॑तये । पूः । भ॒व॒ । श॒तऽभु॑जिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधा मही न आयस्यनाधृष्टो नृपीतये। पूर्भवा शतभुजिः ॥१४॥
स्वर रहित पद पाठअध। मही। नः। आयसी। अनाधृष्टः। नृऽपीतये। पूः। भव। शतऽभुजिः ॥१४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 15; मन्त्र » 14
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजानौ प्रजाः प्रति किं कुर्यातामित्याह ॥
अन्वयः
हे राज्ञि ! यथा तवाऽनाधृष्टः पती राजा न्यायेन नॄन्पालयति तथाऽधाऽऽयसी पूरिव मही शतभुजिस्त्वं नृपीतये नो रक्षिका भव ॥१४॥
पदार्थः
(अधा) अध अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (मही) महती वागेव राज्ञी (नः) अस्मान् स्त्रीजनान् (आयसी) अयोमयी दृढा (अनाधृष्टः) केनाऽप्याधर्षयितुमयोग्या (नृपीतये) नृणां पालनाय (पूः) नगरीव रक्षिका (भवा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (शतभुजिः) शतमसंख्याता भुजयः पालनानि यस्याः सा ॥१४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यत्र शुभगुणकर्मस्वभावो राजा नॄणां तादृशी राज्ञी च स्त्रीणां न्यायपालने कुर्यातां तत्र सर्वदा विद्यानन्दायुरैश्वर्याणि वर्धेरन् ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा और राणी प्रजा के प्रति क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे राणी ! जैसे तुम्हारा (अनाधृष्टः) किसी से न धमकाने योग्य पति राजा न्याय से मनुष्यों का पालन करता है, वैसे (अध) अब (आयसी) लोहे से बनी दृढ़ (पूः) नगरी के समान रक्षक (मही) महती वाणी के तुल्य (शतभुजिः) असंख्यात जीवों का पालन करनेवाली आप (नृपीतये) मनुष्यों के पालन के लिये (नः) हम स्त्री जनों की रक्षा करनेवाली (भव) हूजिये ॥१४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जहाँ शुभ गुणकर्मस्वभावयुक्त राजा पुरुषों और वैसे गुणोंवाली राणी स्त्रियों का न्याय और पालन करें, वहाँ सब काल में विद्या, आनन्द, अवस्था और ऐश्वर्य बढ़ें ॥१४॥
विषय
राजा रानी को उपदेश ।
भावार्थ
(अध) और हे राजन् और राज्ञि ! जिस प्रकार ( नृ-पीत्तये ) मनुष्यों के पालन करने के लिये तू (अनाधृष्टः ) शत्रुओं से कभी पराजित नहीं होता उसी प्रकार हे रानी ! तू भी (अनाधृष्टा उ नृ-पीतये) मनुष्यों में नारियों की रक्षा करने के लिये कभी पराजित न हो । और (आयसी पू: ) लोह की बनी प्रकोट के समान (शत-भुजिः ) सैकड़ों की पालक, पालिका, ( भव ) हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ३, ७, १०, १२, १४ विराड्गायत्री । २, ४, ५, ६, ९, १३ गायत्री । ८ निचृद्गायत्री । ११ ,१५ आर्च्युष्णिक् ।। पञ्चदशर्चं सूकम् ॥
विषय
आयसी पूः
पदार्थ
[१] (अधा) = अब (अनाधृष्टः) = किसी भी शत्रुओं से धर्षणीय न होते हुए आप (नः) = हमारे (नृपीतये) = सब मनुष्यों के रक्षण के लिये (आयसी: पूः) = लोहे की नगरी के समान (भवा) = होइये । जैसे लोह निर्मित प्राकार से वेष्टित नगरी में एक व्यक्ति सुरक्षित रहता है, इसी प्रकार आप हमारे लिये लोह-निर्मित पुरी के समान हों। हम आपके अन्दर निवास करते हुए सब शत्रुओं के आक्रमण से सुरक्षित हों। [२] वह 'आयसी पूः' (मही) = अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है तथा (शतभुजि:) = शतवर्षपर्यन्त हमारा पालन करनेवाली है। इस नगरी में रहते हुए हम शत्रुओं से आक्रान्त नहीं होते।
भावार्थ
भावार्थ- उपासक के लिये प्रभु लोहपुरी के समान बनते हैं। उसमें निवास करता हुआ उपासक शत्रुओं से धर्षणीय नहीं होता।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जेथे शुभ गुण-कर्म-स्वभावयुक्त राजा पुरुषांचे पालन करतो तशाच गुणांच्या राणीने स्त्रियांचे पालन करावे. तेथे सर्वकाळी विद्या, आनंद, अवस्था व ऐश्वर्य आणि आयुष्य वाढते. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
And O lord redoubtable, let the earth, the land, and the governance of the state, firm as adamant and strong as steel, be like a mother city of a hundred-fold defences for the protection, promotion and progress of the people.
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