ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 15/ मन्त्र 4
नवं॒ नु स्तोम॑म॒ग्नये॑ दि॒वः श्ये॒नाय॑ जीजनम्। वस्वः॑ कु॒विद्व॒नाति॑ नः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठनव॑म् । नु । स्तोम॑म् । अ॒ग्नये॑ । दि॒वः । श्ये॒नाय॑ । जी॒ज॒न॒म् । वस्वः॑ । कु॒वित् । व॒नाति॑ । नः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
नवं नु स्तोममग्नये दिवः श्येनाय जीजनम्। वस्वः कुविद्वनाति नः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठनवम्। नु। स्तोमम्। अग्नये। दिवः। श्येनाय। जीजनम्। वस्वः। कुवित्। वनाति। नः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 15; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तेऽतिथयः कीदृशाः स्युरित्याह ॥
अन्वयः
यो नो वस्वः कुविद्वनाति तस्मै श्येनायेवाग्नये दिवो नवं स्तोममहं नु जीजनम् ॥४॥
पदार्थः
(नवम्) नवीनम् (नु) क्षिप्रम् (स्तोमम्) प्रशंसाम् (अग्नये) पावकवत्पवित्राय (दिवः) कामनायाः (श्येनाय) श्येन इव पाखण्डिहिंसकाय (जीजनम्) जनयेयम् (वस्वः) धनस्य (कुवित्) महत् (वनाति) सम्भजेत् (नः) अस्माकम् ॥४॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। येऽतिथयः श्येनवच्छीघ्रगन्तारः पाखण्डहिंसका द्रव्यविद्योपदेशका यतयः स्युस्तान् गृहस्थाः सत्कुर्युः ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे संन्यासी लोग कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (नः) हमारे (वस्वः) धन के (कुवित्) बड़े भाग को (वनाति) सेवन करे उस (श्येनाय) श्येन के तुल्य पाखण्डियों के विनाश करनेवाले (अग्नये) अग्नि के समान पवित्र के लिये (दिवः) कामना की (नवम्) नवीन (स्तोमम्) प्रशंसा को मैं (नु) शीघ्र (जीजनम्) प्रकट करूँ ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो अतिथि लोग श्येन पक्षी के तुल्य शीघ्र चलनेवाले, पाखण्ड के नाशक, द्रव्य और विद्या के उपदेशक संन्यासधर्म युक्त हों, उनका गृहस्थ सत्कार करें ॥४॥
विषय
उससे उत्तम २ प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
जो ( नः ) हमें ( कुवित् ) बहुत अधिक ( वस्वः ) धन की मात्रा ( वनाति ) प्रदान करता है उस ( दिवः ) शुभ कामना और विजय की पूर्ति के लिये ( श्येनाय ) श्येन, वाज के समान वेग से और उत्तम गति से जाने वाले (अग्नये ) तेजस्वी, पुरुष के लिये ( नवं स्तोमं ) उत्तम स्तुतिवचन ( जीजनम् ) कहूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ।। अग्निर्देवता ॥ छन्दः – १, ३, ७, १०, १२, १४ विराड्गायत्री । २, ४, ५, ६, ९, १३ गायत्री । ८ निचृद्गायत्री । ११ ,१५ आर्च्युष्णिक् ।। पञ्चदशर्चं सूकम् ॥
विषय
दिवः श्येनाय
पदार्थ
[१] मैं (अग्नये) = उस प्रभु के लिये (नु) = अब (नवं स्तोमम्) = इस प्रशंसनीय स्तुति समूह को (जीजनम्) = उत्पन्न करता हूँ जिससे (दिवः श्येनाय) = ज्ञान के द्वारा शंसनीय गतिवाला बन सकूँ। ज्ञान को प्राप्त करके शंसनीय गतिवाला बनने के लिये मैं प्रभु का स्तवन करता हूँ। [२] ये प्रभु (नः) = हमारे लिये (वस्वः) = धनों को (कुविद्) = खूब ही (वनाति) = देते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु स्तवन से उत्कृष्ट ज्ञान को प्राप्त करके मैं उत्तम गतिवाला बनूँ। प्रभु ही तो हमारे लिये सब प्रशस्त धनों को प्राप्त कराते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे अतिथी श्येन पक्ष्याप्रमाणे शीघ्र चालणारे, पाखंडनाशक, द्रव्य व विद्येचे उपदेशक, संन्यासी असतील तर गृहस्थांनी त्यांचा सत्कार करावा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
I create a new song of adoration for Agni. who, like an angel of heaven, wise and great, begets us the wealth, honour and excellence of the world.
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