ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 33/ मन्त्र 11
उ॒तासि॑ मैत्रावरु॒णो व॑सिष्ठो॒र्वश्या॑ ब्रह्म॒न्मन॒सोऽधि॑ जा॒तः। द्र॒प्सं स्क॒न्नं ब्रह्म॑णा॒ दैव्ये॑न॒ विश्वे॑ दे॒वाः पुष्क॑रे त्वाददन्त ॥११॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । अ॒सि॒ । मै॒त्रा॒व॒रु॒णः । व॒सि॒ष्ठ॒ । उ॒र्वश्या॑ । ब्र॒ह्म॒न् । मन॑सः । अधि॑ । जा॒तः । द्र॒प्सम् । स्क॒न्नम् । ब्रह्म॑णा । दैव्ये॑न । विश्वे॑ । दे॒वाः । पुष्क॑रे । त्वा॒ । अ॒द॒द॒न्त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उतासि मैत्रावरुणो वसिष्ठोर्वश्या ब्रह्मन्मनसोऽधि जातः। द्रप्सं स्कन्नं ब्रह्मणा दैव्येन विश्वे देवाः पुष्करे त्वाददन्त ॥११॥
स्वर रहित पद पाठउत। असि। मैत्रावरुणः। वसिष्ठ। उर्वश्या। ब्रह्मन्। मनसः। अधि। जातः। द्रप्सम्। स्कन्नम्। ब्रह्मणा। दैव्येन। विश्वे। देवाः। पुष्करे। त्वा। अददन्त ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 33; मन्त्र » 11
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे ब्रह्मन् वसिष्ठ ! यो मैत्रावरुणस्त्वमुर्वश्या उत मनसोऽधिजातोऽसि तं त्वा विश्वे देवा ब्रह्मणा दैव्येन पुष्करे स्कन्नं द्रप्समददन्त ॥११॥
पदार्थः
(उत) अपि (असि) (मैत्रावरुणः) मित्रावरुणयोः प्राणोदानयोरयं वेत्ता (वसिष्ठ) पूर्णविद्वन् (उर्वश्याः) विशेषविद्यायाः। उर्वशीति पदनाम। (निघं०४.२)। (ब्रह्मन्) सकलवेदवित् (मनसः) अन्तःकरणपुरुषार्थात् (अधि) (जातः) प्रादुर्भूतः (द्रप्सम्) कमनीयम् (स्कन्नम्) प्राप्तम् (ब्रह्मणा) बृहता धनेन (दैव्येन) देवैर्विद्वद्भिः कृतेन (विश्वे) सर्वे (देवाः) विद्वांसः (पुष्करे) अन्तरिक्षे। पुष्करमित्यन्तरिक्षनाम। (निघं०१.३)। (त्वा) त्वाम् (अददन्त) दद्युः ॥११॥
भावार्थः
ये मनुष्याः शुद्धान्तःकरणेन प्राणोदानवत्सततं पुरुषार्थेन कमनीयां विद्यां गृह्णन्ति ते विद्वद्वदानन्दिता भवन्ति ॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (ब्रह्मन्) समस्त वेदों को जाननेवाले (वसिष्ठ) पूर्ण विद्वन् ! जो (मैत्रावरुणः) प्राण और उदान के वेत्ता आप (उर्वश्याः) विशेष विद्या से (उत) और (मनसः) मन से (अधि, जातः) अधिकतर उत्पन्न (असि) हुए हो उन (त्वा) आपको (विश्वे) समस्त (देवाः) विद्वान् जन (ब्रह्मणा) बहुत धन से और (दैव्येन) विद्वानों ने किये हुए व्यवहार से (पुष्करे) अन्तरिक्ष में (स्कन्नम्) प्राप्त (द्रप्सम्) मनोहर पदार्थ को (अददन्त) देवें ॥११॥
भावार्थ
जो मनुष्य शुद्धान्तःकरण से प्राण और उदान के तुल्य और निरन्तर मनोहर विद्या को ग्रहण करते हैं, वे विद्वानों के समान आनन्दित होते हैं ॥११॥
विषय
मैत्रावरुण, वसिष्ठ और उर्वशी का रहस्य । उर्वशी प्रकृति, वसिष्ठ जीव, मित्र वरुण, प्राण अपान ।
भावार्थ
हे ( वसिष्ठ ) देह में बसे प्राणों में सर्वश्रेष्ठ जीव ! ( उत ) और तू ( मैत्रावरुणः ) मित्र और वरुण, प्राण और अपान दोनों का स्वामी (असि ) है । हे ( ब्रह्मन् ) वृद्धिशील जीव ! तू ( उर्वश्या: ) अति कान्तिमती, तैजस, सात्विक विकार से युक्त वा 'उरु' अति विस्तृत व्यापक प्रकृति के ऊपर ( मनसः ) मनन शक्ति द्वारा (अधि-जातः) भोक्ता रूप से अध्यक्ष होता है । ( दैव्येन ) समस्त किरणों के समस्त शक्तियों के स्वामी सूर्यवत् तेजस्वी ( ब्रह्मणा ) महान्, परम ब्रह्म परमेश्वर से ( स्कन्नं ) प्रदत्त (द्रप्सं ) वीर्य के समान ( त्वा ) तुझको (देवाः) समस्त दिव्य शक्तियां ( पुष्करे ) पुष्टिकारक तत्व में ( अददन्त ) धारण करती हैं। श्वेताश्वतर में विविध ब्रह्म का वर्णन हैं वह यहां उर्वशी, वसिष्ठ, और ब्रह्म तीनों रूप हैं। उर्वशी प्रकृति, वसिष्ठ जीव, और ब्रह्म परमेश्वर । (२) इसी प्रकार यह जीव प्राणी भी परस्पर प्रेमी और एक दूसरे को वरण करने वाले वर वधू, माता पिता से उत्पन्न होने से मैत्रावरुण है । वह माता पिता के गृह से उत्पन्न होकर ( उर्वश्या ) बड़ी भारी वेदविद्या के अभ्यास से ( ब्रह्मन् ) वेदज्ञान ( मनसः ) मननशील ज्ञानवान् आचार्य से ( जातः ) उत्पन्न होता है । फिर वह ( दैव्येन ब्रह्मणा ) देव, विद्येच्छु शिष्यों के हितैषी चतुर्वेदवित् आचार्य से ( स्कन्नः ) विसर्जित (द्रप्सः ) कान्तियुक्त, तेजस्वी पुरुष को ( देवाः ) विद्वान् लोग (पुष्करे ) पुष्टिकारक, सर्वाश्रमपोषक गृहाश्रम में ( अददन्त ) नियुक्त करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
संस्तवो वसिष्ठस्य सपुत्रस्येन्द्रेण वा संवादः ॥ १ – ९ वसिष्ठपुत्राः । १०-१४ वसिष्ठ ऋषिः ।। त एव देवताः ।। छन्दः–१, २, ६, १२, १३ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ७, ९, १४ निचृत् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विद्वान् सर्व आश्रम पोषक हों
पदार्थ
पदार्थ- हे (वसिष्ठ) = देह में बसे श्रेष्ठ जीव! (उत) = और तू (मैत्रावरुण:) = मित्र और वरुण, प्राण और अपान दोनों का स्वामी (असि) = है। हे (ब्रह्मन्) = वृद्धिशील जीव ! तू (उर्वश्याः) = कान्तिमती, तैजस, सात्त्विक विचार से युक्त वा 'उरु' विस्तृत, व्यापक प्रकृति के ऊपर (मनसः) = मननशक्ति द्वारा (अधि-जातः) = भोक्ता रूप से अध्यक्ष होता है। (दैव्येन) = समस्त किरणों के, समस्त शक्तियों के स्वामी सूर्यवत् तेजस्वी (ब्रह्मणा) = महान् परमेश्वर से (स्कन्नं) = प्रदत्त (द्रप्सं) = वीर्य के समान (त्वा) = तुझको (देवाः) = समस्त दिव्य शक्तियाँ (पुष्करे) = पुष्टिकारक तत्त्व में (अददन्त) = धारण करती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- विद्वान् आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य के पालन द्वारा विद्या एवं बल से पुष्ट गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने के योग्य बनाते हैं। तब ये उत्तम गृहस्थी, ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और तीनों आश्रमों का आश्रय स्थल बनकर इन सभी आश्रमों को पुष्ट करते हैं। ऋषि:- संस्तवो वसिष्ठस्य सपुत्रस्येन्द्रेण वा संवादः; वसिष्ठः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे शुद्ध अंतःकरणाने प्राण उदानाप्रमाणे निरंतर चांगली विद्या ग्रहण करतात ती विद्वानांप्रमाणे आनंदित होतात. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Vasishtha, sage and scholar, living soul, you are a child of sun and moon, born of the heart of Mother Nature nurtured by mother knowledge. Like a drop of distilled soma, all divine powers of the world nourish you in the lotus cradle on celestial wealth of food for vitality and light for knowledge.
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