ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 33/ मन्त्र 4
जुष्टी॑ नरो॒ ब्रह्म॑णा वः पितॄ॒णामक्ष॑मव्ययं॒ न किला॑ रिषाथ। यच्छक्व॑रीषु बृह॒ता रवे॒णेन्द्रे॒ शुष्म॒मद॑धाता वसिष्ठाः ॥४॥
स्वर सहित पद पाठजुष्टी॑ । न॒रः॒ । ब्रह्म॑णा । वः॒ । पि॒तॄ॒णाम् । अक्ष॑म् । अ॒व्य॒य॒म् । न । किल॑ । रि॒षा॒थ॒ । यत् । शक्व॑रीषु । बृ॒ह॒ता । रवे॑ण । इन्द्रे॑ । शुष्म॑म् । अद॑धात । व॒सि॒ष्ठाः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जुष्टी नरो ब्रह्मणा वः पितॄणामक्षमव्ययं न किला रिषाथ। यच्छक्वरीषु बृहता रवेणेन्द्रे शुष्ममदधाता वसिष्ठाः ॥४॥
स्वर रहित पद पाठजुष्टी। नरः। ब्रह्मणा। वः। पितॄणाम्। अक्षम्। अव्ययम्। न। किल। रिषाथ। यत्। शक्वरीषु। बृहता। रवेण। इन्द्रे। शुष्मम्। अदधात। वसिष्ठाः ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 33; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कृत्वा किन्न कुर्वन्तीत्याह ॥
अन्वयः
हे वसिष्ठा नरो ! यूयं यद्बृहता रवेण शक्वरीष्विन्द्रे शुष्ममदधात जुष्टी ब्रह्मणा वः पितॄणामव्ययमक्षं किल यूयं न रिषाथ तेन सर्वस्य रक्षणं विधत्त ॥४॥
पदार्थः
(जुष्टी) जुष्ट्व्या प्रीत्या सेवया वा (नरः) नेतारः (ब्रह्मणा) धनेन (वः) युष्माकम् (पितॄणाम्) जनकादीनाम् (अक्षम्) व्याप्तम् (अव्ययम्) नाशरहितम् (न) निषेधे (किल) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (रिषाथ) हिंसथ (यत्) येन (शक्वरीषु) शक्तिमतीषु सेनासु (बृहता) महता (रवेण) शब्देन (इन्द्रे) परमैश्वर्ये (शुष्मम्) बलम् (अदधात) धर्त। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वसिष्ठाः) धनेऽत्यन्तं वासं कुर्वन्तः ॥४॥
भावार्थः
ये मनुष्याः स्वशक्तिं वर्धयित्वा दुष्टान् हिंसित्वा धनवृद्ध्या सर्वार्थमक्षीणं सुखं प्रीत्या वर्धयन्ति ते बृहतीं कीर्तिमाप्नुवन्ति ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करके क्या नहीं करते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (वसिष्ठाः) धन में अत्यन्त वास करते हुए (नरः) नायक मनुष्यो ! तुम (यत्) जिस (बृहता) महान् (रवेण) शब्द से (शक्वरीषु) शक्तियुक्त सेनाओं में और (इन्द्रे) परमैश्वर्य में (शुष्मम्) बल को (अदधात) धारण करते हो (जुष्टी) प्रीति वा सेवा से तथा (ब्रह्मणा) धन से (वः) आप के (पितॄणाम्) जनक अर्थात् पिता आदि का जो (अव्ययम्) नाशरहित (अक्षम्) व्याप्त बल उसे (किल) निश्चय कर तुम (न, रिषाथ) नहीं नष्ट करते हो, उससे सब की रक्षा करो ॥४॥
भावार्थ
जो मनुष्य अपनी शक्ति को बढ़ा के दुष्टों को मार धन की वृद्धि से सब के अर्थ जो नष्ट नहीं, उस सुख को प्रीति से बढ़ाते, वे बड़ी कीर्ति को पाते हैं ॥४॥
विषय
उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( नरः ) उत्तम जनो ! आप लोग ( वः ) अपने ( पितॄणाम् ) पालक जनों के (अव्ययं) कभी नाश न होने वाले उस (अक्षम् ) व्यापक और सत्यदर्शक ज्ञान-ऐश्वर्य (ब्रह्मणा ) बल और महान् बल को ( न किल रिषाथ ) नाश न करे प्रत्युत ऐश्वर्य से (जुष्टी ) प्रेमपूर्वक (अदधात ) धारण करो ( यत् ) जिस (शुष्मं) बल को हे ( वसिष्ठाः) ब्रह्मचर्य पूर्वक गुरु के अधीन रहने वाले और राष्ट्र में बसने वाले जनो ! आप लोग ( बृहत: रवेण ) बड़े भारी आघोष के साथ ( शक्वरीषु ) शक्ति युक्त सेनाओं और ( इन्द्रे ) ऐश्वर्य युक्त राजा में या उनके अधीन रहकर ( अदधात ) धारण करते रहो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
संस्तवो वसिष्ठस्य सपुत्रस्येन्द्रेण वा संवादः ॥ १ – ९ वसिष्ठपुत्राः । १०-१४ वसिष्ठ ऋषिः ।। त एव देवताः ।। छन्दः–१, २, ६, १२, १३ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ७, ९, १४ निचृत् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
प्रजा बलवती हो
पदार्थ
पदार्थ - हे (नरः) = उत्तम जनो! आप (वः) = अपने (पितॄणाम्) = पालक जनों के (अव्ययं) = अविनाशी (अक्षम्) = सत्यदर्शक ज्ञान-ऐश्वर्य को (ब्रह्मणा) = बल से (न किल रिषाथ) = नाश न करो, प्रत्युत् (जुष्टी) = प्रेमपूर्वक (अदधात) = धारण करो (यत्) = जिस (शुष्मं) = बल को, हे (वसिष्ठा:) = के अधीन-गुरु रहनेवालों और राष्ट्रवासी जनो! आप लोग (बृहतः रवेण) = भारी आघोष के साथ (शक्वरीषु) = शक्तियुक्त सेनाओं और (इन्द्रे) = ऐश्वर्य-युक्त राजा में, उसके अधीन रहकर (अदधात) = धारते रहो।
भावार्थ
भावार्थ- जिस प्रकार गुरुकुलों में ब्रह्मचारी गण अपने आचार्य के निर्देश में रहकर ब्रह्मचर्य पूर्वक विद्या प्राप्ति एवं ज्ञान की रक्षा करते हैं, उसी प्रकार राष्ट्र की प्रजा, राजा व सेना के नियन्त्रण में रहकर राजनियमों का पालन करते हुए राष्ट्र एवं राष्ट्र के ऐश्वर्य की रक्षा करे।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे आपली शक्ती वाढवून, दुष्टांचा नाश करून धनाची वृद्धी करतात व प्रेमपूर्वक सुख वाढवितात त्यांना महान कीर्ती प्राप्त होते. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O leading lights of the nation, by your vision, wisdom and active homage, the tradition of the ancients is preserved and happily advanced. Therefore, never for any reason, obstruct the relentless wheel of the nation and never disturb the inviolable equilibrium of forces which, O leading lovers of peace, by your reverberating words and heroic action in the great battles of humanity, you vested in the nation and its governance as the centre of stability.
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