ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 33/ मन्त्र 9
त इन्नि॒ण्यं हृद॑यस्य प्रके॒तैः स॒हस्र॑वल्शम॒भि सं च॑रन्ति। य॒मेन॑ त॒तं प॑रि॒धिं वय॑न्तोऽप्स॒रस॒ उप॑ सेदु॒र्वसि॑ष्ठाः ॥९॥
स्वर सहित पद पाठते । इत् । नि॒ण्यम् । हृद॑यस्य । प्र॒ऽके॒तैः । स॒हस्र॑ऽवल्शम् । अ॒भि । सम् । च॒र॒न्ति॒ । य॒मेन॑ । त॒तम् । प॒रि॒ऽधिम् । वय॑न्तः । अ॒प्स॒रसः॑ । उप॑ । से॒दुः॒ । वसि॑ष्ठाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त इन्निण्यं हृदयस्य प्रकेतैः सहस्रवल्शमभि सं चरन्ति। यमेन ततं परिधिं वयन्तोऽप्सरस उप सेदुर्वसिष्ठाः ॥९॥
स्वर रहित पद पाठते। इत्। निण्यम्। हृदयस्य। प्रऽकेतैः। सहस्रऽवल्शम्। अभि। सम्। चरन्ति। यमेन। ततम्। परिऽधिम्। वयन्तः। अप्सरसः। उप। सेदुः। वसिष्ठाः ॥९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 33; मन्त्र » 9
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
के सत्यं निश्चयं कर्त्तुमर्हन्तीत्याह ॥
अन्वयः
ये अप्सरसो यमेन सह ततं परिधिं वयन्तो वसिष्ठाः प्रकेतैर्हृदयस्य निण्यं सहस्रवल्शमुपसेदुस्त इत्पूर्णविद्या अभि सं चरन्ति ॥९॥
पदार्थः
(ते) विद्वांसः (इत्) एव (निण्यम्) निर्णीतान्तर्गतम् (हृदयस्य) आत्मनो मध्ये (प्रकेतैः) प्रकृष्टाभिः प्रज्ञाभिः (सहस्रवल्शम्) सहस्राण्यसंख्या वल्शा अङ्कुरा इव शास्त्रबोधा यस्मिंस्तं विज्ञानमयं व्यवहारम् (अभि) आभिमुख्ये (सम्) (चरन्ति) सम्यगाचरन्ति (यमेन) नियन्त्रा जगदीश्वरेण (ततम्) व्याप्तम् (परिधिम्) सर्वलोकावरणम् (वयन्तः) व्याप्नुवन्तः (अप्सरसः) या अप्स्वन्तरिक्षे सरन्ति गच्छन्ति ताः (उप) (सेदुः) सीदन्ति (वसिष्ठाः) अतिशयेन विद्यावन्तः ॥९॥
भावार्थः
त एव विद्वांसो जगदुपकारिणो भवन्ति ये दीर्घेण ब्रह्मचर्येणाप्तानां विदुषां सकाशाच्छिक्षां प्राप्याऽखिलां विद्याम् अधीत्य परमात्मना व्याप्तं सर्वं सृष्टिक्रमं विशन्ति ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
कौन सत्य का निश्चय करने योग्य हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(अप्सरसः) जो अन्तरिक्ष में जाते हैं वे और (यमेन) नियन्ता जगदीश्वर से (ततम्) व्याप्त (परिधिम्) सर्व लोकों के परकोटे को (वयन्तः) व्याप्त होते हुए (वसिष्ठाः) अतीव विद्यावान् जन (प्रकेतैः) उत्तम बुद्धियों से (हृदयस्य) आत्मा के बीच (निण्यम्) निर्णीत अन्तर्गत (सहस्रवल्शम्) हजारों असंख्य अङ्कुरों के समान शास्त्रबोध जिसमें उस विद्या व्यवहार को (उप, सेदुः) उपस्थित होते अर्थात् स्थिर होते हैं (ते, इत्) वे ही पूर्ण विद्याओं का (अभि,सम्, चरन्ति) सब ओर से संचार करते हैं ॥९॥
भावार्थ
वे ही विद्वान् जन संसार के उपकारी होते हैं, जो दीर्घ ब्रह्मचर्य्य से और आप्त विद्वानों की उत्तेजना से शिक्षा पाय समस्त विद्या पढ़ परमात्मा से व्याप्त सर्व सृष्टिक्रम को प्रवेश करते हैं ॥९॥
विषय
वे ही सद्-गृहस्थ हों ।
भावार्थ
( ते इत् वसिष्ठाः ) वे ही पूर्ण ब्रह्मचारी, गुरु के अधीन विद्या प्राप्ति के लिये अच्छी प्रकार कर्म करने हारे विद्वान् जन ( यमेन ) नियन्त्रण करने वाले आचार्य वा परमेश्वर द्वारा ( ततं ) विस्तारित ( परिधिं ) सब प्रकार से धारण करने योग्य ज्ञान, व्रत और दीक्षादि को ( वयन्तः ) प्राप्त होते और उसका पालन करते हुए ( अप्सरसः उप-सेदुः ) गृहाश्रम में स्त्रियों को प्राप्त करें। अथवा, वे विद्वान् जन ही ( अप्सरसः ) प्राप्त प्रजा जनों में और उत्तम कर्म मार्गों पर विचरते हुए (अप्सरस:) आकाश में विचरते हुए सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, वायु और मेघादि के तुल्य ही उपकारक होकर हमें प्राप्त हों। ( त इत् ) वे ही ( हृदयस्य ) हृदय के ( प्रकेतैः ) उत्तम ज्ञानों से सहस्रों अंकुरों, शास्त्र ज्ञानों से युक्त ( निण्यं ) निश्चित ज्ञान को ( अभि सञ्चरन्ति ) प्राप्त कर विचरें । इसी प्रकार राज्य में बसे उत्तम वीर पुरुष भी ( यमेन ततं ) नियन्ता राजा की बनाई ( परिधिं ) नगर के दीवार की ( वयन्तः ) रक्षा करते हुए, ( प्रकेतैः ) उत्तम संकेतों से ( सहस्रवल्शं ) सहस्रों शाखाओं वाले ( निण्यं ) सुगुप्त दुर्ग वा राष्ट्र में (अभि सञ्चरन्ति ) सर्वत्र विचरें । वे ही (अप्सरसः उप सेदु:) प्रजाओं में विचरते हुए सदा अपने कर्त्तव्यों में उपस्थित हों । इसी प्रकार ये सब 'वसिष्ठ' जन वसुओं प्राणों में श्रेष्ठ आत्मा, जीव गण हैं जो नियन्ता प्रभु के बनाये 'परिधि' मर्यादा को पालन करते हुए ( अप्सरसः ) आकाश में या प्राप्त शरीरों, कर्मों और प्रकृति के घटक परमाणुओं या लिंग शरीरों में विचरते हुए ( उपसेदुः ) इन शरीरों में प्राप्त होते हैं । वे ही हृदय, अन्तःकरण स्थित प्रज्ञानों से अप्रकट सहस्र शाखा वाले संसार के मार्गों पर विचरते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
संस्तवो वसिष्ठस्य सपुत्रस्येन्द्रेण वा संवादः ॥ १ – ९ वसिष्ठपुत्राः । १०-१४ वसिष्ठ ऋषिः ।। त एव देवताः ।। छन्दः–१, २, ६, १२, १३ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ७, ९, १४ निचृत् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
तेजस्वी राष्ट्र
पदार्थ
पदार्थ - (ते इत् वसिष्ठा:) = वे ही पूर्ण ब्रह्मचारी, गुरु के अधीन विद्या प्राप्ति के लिये बसने हारे जन (यमेन) = नियन्त्रक आचार्य वा परमेश्वर द्वारा (ततं) = विस्तारित (परिधि) = सब प्रकार से धारणयोग्य ज्ञान, व्रत और दीक्षादि को (वयन्तः) = प्राप्त होते और उसका पालन करते हुए (अप्सरसः उपसेदुः) = गृहाश्रम में स्त्रियों को प्राप्त करें। (त इत्) = वे ही (हृदयस्य) = हृदय के (प्रकेतैः) = उत्तम ज्ञानों से सहस्रों अंकुरों, शास्त्र ज्ञानों से युक्त (निण्यं) = निश्चित ज्ञान को (अभि सञ्चरन्ति) प्राप्त कर विचरें।
भावार्थ
भावार्थ- गुरुओं के पास ब्रह्मचर्य के तप से तपकर विद्याओं में निष्णात दीप्तिमान विद्वान् ब्रह्मचारी विभिन्न विषयों में शोध करके राष्ट्र को ज्ञान-विज्ञान से भरपूर करें। सैनिक व सेनापति ब्रह्मचर्य के तप से वीर्यवान् व शौर्यवान् होकर राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा करें। संन्यासी- महात्मा गण ब्रह्मचर्य के तप द्वारा ईश्वर की प्राप्ति योगाभ्यास द्वारा करके राष्ट्र की प्रजा को अध्यात्म का उपदेश करके तेजस्वी बनावें ।
मराठी (1)
भावार्थ
जे दीर्घ ब्रह्मचर्य प्राप्त करून विद्वानांच्या सहवासाने शिक्षण प्राप्त करून संपूर्ण विद्या शिकतात व परमात्म्याकडून व्याप्त असलेल्या सर्व सृष्टीत वावरतात तेच विद्वान जगाला उपकारक ठरतात. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Leading scholars and sages by the reflections of divine light of their heart sojourn over the mystery of the thousand branched tree of existence, going round and round across, and by the bounds of this web of life woven by the cosmic law giver and by their imagination rise up to the wonders of heaven in the clouds.
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