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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 33/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठपुत्राः देवता - त एव छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उद्द्यामि॒वेत्तृ॒ष्णजो॑ नाथि॒तासोऽदी॑धयुर्दाशरा॒ज्ञे वृ॒तासः॑। वसि॑ष्ठस्य स्तुव॒त इन्द्रो॑ अश्रोदु॒रुं तृत्सु॑भ्यो अकृणोदु लो॒कम् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । द्याम्ऽइ॑व । इत् । तृ॒ष्णऽजः॑ । ना॒थि॒तासः॑ । अदी॑धयुः । दा॒श॒ऽरा॒ज्ञे । वृ॒तासः॑ । वसि॑ष्ठस्य । स्तु॒व॒तः । इन्द्रः॑ । अ॒श्रो॒त् । उ॒रुम् । तृत्सु॑ऽभ्यः । अ॒कृ॒णो॒त् । ऊँ॒ इति॑ । लो॒कम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्द्यामिवेत्तृष्णजो नाथितासोऽदीधयुर्दाशराज्ञे वृतासः। वसिष्ठस्य स्तुवत इन्द्रो अश्रोदुरुं तृत्सुभ्यो अकृणोदु लोकम् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। द्याम्ऽइव। इत्। तृष्णऽजः। नाथितासः। अदीधयुः। दाशऽराज्ञे। वृतासः। वसिष्ठस्य। स्तुवतः। इन्द्रः। अश्रोत्। उरुम्। तृत्सुऽभ्यः। अकृणोत्। ऊँ इति। लोकम् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 33; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः के मनुष्याः सूर्य्यवद्भवन्तीत्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! ये द्यामिव नाथितासस्तृष्णजो वृतास इत् दाशराज्ञे उददीधयुर्य इन्द्रो वसिष्ठस्य स्तुवत उरुं वाक्यमश्रोत् तृत्सुभ्य उ लोकमकृणोत्तान् सर्वे सत्कुर्वन्तु ॥५॥

    पदार्थः

    (उत) (द्यामिव) सूर्यमिव (इत्) एव (तृष्णजः) प्राप्ततृष्णः (नाथितासः) याचमानाः (अदीधयुः) दीपयेयुः (दाशराज्ञे) दाशानां दातॄणां राज्ञे (वृतासः) स्वीकृताः (वसिष्ठस्य) अतिशयेन विदुषः (स्तुवते) स्तुवतः (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान्राजा (अश्रोत्) शृणुयात् (उरुम्) बहुसुखकारकम् (तृत्सुभ्यः) शत्रूणां हिंसकेभ्यः (अकृणोत्) करोति (उ) (लोकम्) ॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । ये मनुष्याः सूर्य्य इव विद्याविनयप्रकाशिता तृषितास्जलमिवैश्वर्य्यमन्वेषमाणाः सकलविद्यायुक्तेभ्य आनन्दं दधति शूरवीरेभ्यो धनं च प्रयच्छन्ति ते बहुसुखं लभन्ते ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर कौन मनुष्य सूर्य के तुल्य होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (द्यामिव) सूर्य के समान (नाथितासः) माँगते हुए और (तृष्णजः) तृष्णा को प्राप्त (वृतासः) स्वीकार किये हुए (इत्) ही (दाशराज्ञे) देनेवालों के राजा के लिये (उत्, अदीधयुः) ऊपर को प्रकाशित करें जो (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (वसिष्ठस्य) अतीव विद्वान् की (स्तुवतः) स्तुति करनेवाले के लिये =वाले की (उरुम्) बहुत सुख करनेवाले वाक्य को (अश्रोत्) सुने (तृत्सुभ्यः) और शत्रुओं के मारनेवाले के लिये (उ) ही (लोकम्) लोक को (अकृणोत्) प्रसिद्ध करता है, उनको सब सत्कार करें ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो मनुष्य सूर्य के समान विद्या और नम्रता से प्रकाशित और तृषित जल के समान ऐश्वर्य के ढूँढ़नेवाले सकल विद्यायुक्त विद्वानों के लिये आनन्द को धारण करते और शूरवीरों के लिये धन भी देते हैं, वे बहुत सुख पाते हैं ॥५॥

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( वृतासः ) वरण किये गये ( तृष्णजः ) तृष्णा अर्थात् उत्तम फल वा धन आदि की कामना से युक्त (नाथितासः) धनादि की याचना करने वाले, लोग ( दाशराज्ञे ) दानशीलों में तेजस्वी राजा के लिये ( द्याम् इव द्याम् ) सूर्य के समान तेज या उसकी कामना या भूमि को ( उद् अदीधयुः ) उत्तम रीति से धारण करें । ( स्तुवतः ) स्तुति करने वाले ( वसिष्ठस्य ) बसे उत्तम प्रजाजन की ( इन्द्रः ) शत्रुहन्ता ऐश्वर्यवान् सूर्यवत् तेजस्वी राजा भी ( अश्रोत्) श्रवण करे और वह (तृत्सुभ्यः) शत्रुओं का नाश करने वाले सैनिकों के लिये भी ( उरुम् लोकम् ) बहुत बड़ा स्थान ( अकृणोत् ) प्रदान करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    संस्तवो वसिष्ठस्य सपुत्रस्येन्द्रेण वा संवादः ॥ १ – ९ वसिष्ठपुत्राः । १०-१४ वसिष्ठ ऋषिः ।। त एव देवताः ।। छन्दः–१, २, ६, १२, १३ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ७, ९, १४ निचृत् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    दानशील तेजस्वी राजा

    पदार्थ

    पदार्थ - (वृतासः) = वरण किये गये (तृष्णज:) = तृष्णा, वा धन की कामना से युक्त (नाथितासः) = धनादि-याचना करनेवाले लोग (दाशराज्ञे) = दानशीलों में तेजस्वी राजा के लिये (द्याम् इव) सूर्य तुल्य तेज, या भूमि को (उद् अदीधयुः) = उत्तम रीति से धारण करें। (स्तुवतः) = स्तुतिकर्ता (वसिष्ठस्यबसे) = उत्तम प्रजाजन की बात (इन्द्रः) = ऐश्वर्यवान् तेजस्वी राजा (अश्रोत्) = सुने और वह (तृत्सुभ्यः) = नाशक सैनिकों के लिये (उरुम् लोकम्) = बड़ा स्थान (अकृणोत्) = दे।

    भावार्थ

    भावार्थ- सूर्य जैसे ऊर्जा को सबके लिए देता रहता है उसी प्रकार राजा भी अपने में तेजस्वी होकर याचकों, पात्रों को दान देता रहे। प्रजा के कल्याणार्थ राजा जल, स्वास्थ्य, शिक्षासुरक्षा, संरक्षा आदि की परियोजनाओं में धन लगाकर प्रजा का प्रिय बने । ऋ

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे सूर्याप्रमाणे विद्या व नम्रतेने प्रसिद्ध होतात व तृषार्त जसा जल शोधतो तसे ऐश्वर्य शोधणाऱ्या संपूर्ण विद्यायुक्त विद्वानांसाठी आनंद धारण करतात व शूर वीरांसाठी धनही देतात. ती भरपूर सुख प्राप्त करतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The leading lights of the nation, selected and duly appointed, thirsting to cross over the hurdles of life, shine and glorify the generous ruler like the sun for the advancement of the liberal order for the people. Let Indra, enlightened ruler, listen to the leading lights and scholars and create vast and brilliant channels and possibilities for the defence and developmental forces of the nation.

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