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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठपुत्राः देवता - त एव छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दू॒रादिन्द्र॑मनय॒न्ना सु॒तेन॑ ति॒रो वै॑श॒न्तमति॒ पान्त॑मु॒ग्रम्। पाश॑द्युम्नस्य वाय॒तस्य॒ सोमा॑त्सु॒तादिन्द्रो॑ऽवृणीता॒ वसि॑ष्ठान् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दू॒रात् । इन्द्र॑म् । अ॒न॒य॒न् । आ । सु॒तेन॑ । ति॒रः । वै॒श॒न्तम् । अति॑ । पान्त॑म् । उ॒ग्रम् । पाश॑ऽद्युम्नस्य । वा॒य॒तस्य॑ । सोमा॑त् । सु॒तात् । इन्द्रः॑ । अ॒वृ॒णी॒त॒ । वसि॑ष्ठान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दूरादिन्द्रमनयन्ना सुतेन तिरो वैशन्तमति पान्तमुग्रम्। पाशद्युम्नस्य वायतस्य सोमात्सुतादिन्द्रोऽवृणीता वसिष्ठान् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दूरात्। इन्द्रम्। अनयन्। आ। सुतेन। तिरः। वैशन्तम्। अति। पान्तम्। उग्रम्। पाशऽद्युम्नस्य। वायतस्य। सोमात्। सुतात्। इन्द्रः। अवृणीत। वसिष्ठान् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 33; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा कीदृशान् विदुषः स्वीकुर्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! ये सुतेन वैशन्तं पान्तमुग्रमिन्द्रं दूरादनयन् दारिद्र्यं तिरो नयन्ति तैः पाशद्युम्नस्य वायतस्य सुतात्सोमादिन्द्रो वसिष्ठानत्यावृणीत ॥२॥

    पदार्थः

    (दूरात्) (इन्द्रम्) परमैश्वर्यम् (अनयन्) नयन्ति (आ) (सुतेन) निष्पन्नेन पुत्रेण वा (तिरः) तिरस्कारे (वैशन्तम्) वेशन्तस्य विशतो जनस्येमम् (अति) (पान्तम्) रक्षन्तम् (उग्रम्) तेजस्विनम् (पाशद्युम्नस्य) पाशात्प्राप्तं द्युम्नं यशो धनं येन तस्य (वायतस्य) विज्ञानवतः (सोमात्) ऐश्वर्यात् (सुतात्) धर्म्येण निष्पादितात् (इन्द्रः) परमैश्वर्यो राजा (अवृणीत) वृणुयात्। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वसिष्ठान्) अतिशयेन विद्यासु कृतवासान् ॥२॥

    भावार्थः

    राजादयो जनाः ! ये दूरादैश्वर्यं स्वदेशं प्रापयन्ति द्रारिद्र्यं विनाश्य श्रियं जनयन्ति तानुत्तमाञ्जनान्सर्वतो सततं रक्षेयुः ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा कैसे विद्वानों को स्वीकार करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (सुतेन) उत्पन्न हुए पदार्थ वा पुत्र से (वैशन्तम्) प्रवेश होते हुए जन के सम्बन्धी (पान्तम्) पालना करते हुए (उग्रम्) तेजस्वी (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवान् को (दूरात्) दूर से (अनयन्) पहुँचाते और दारिद्र्य को (तिरः) तिरस्कार करते हैं उनसे (पाशद्युम्नस्य) जिसने धन यश पाया है उस (वायतस्य) विज्ञानवान् के (सुतात्) धर्म से उत्पन्न किये (सोमात्) ऐश्वर्य से (इन्द्रः) परमैश्वर्य राजा (वसिष्ठान्) अतीव विद्याओं में किया निवास जिन्होंने उन को (अति, आ, अवृणीत) अत्यन्त स्वीकार करे ॥२॥

    भावार्थ

    हे राजन् आदि जनो ! जो दूर से अपने देश को ऐश्वर्य पहुँचाते और दारिद्र्य का विनाश कर लक्ष्मी को उत्पन्न करते हैं, उन उत्तम जनों की निरन्तर रक्षा कीजिये ॥२॥

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    विषय

    उनका सादर वरण, उनसे उत्तम २ प्रार्थनाएं ।

    भावार्थ

    विद्वान् लोग ( वैशन्तम् ) राष्ट्र में प्रविष्ट प्रजा के हितकारी ( उग्रम् ) बलवान् (पान्तम् ) पालन करने वाले ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्य को ( सुतेन ) धर्म से उत्पन्न ऐश्वर्य के बल से ( दूरात् ) दूर देश से भी ( तिरः अनयन् ) अपने समीप ले आते हैं उन ( वसिष्ठान ) राष्ट्र में बसे उत्तम पुरुषों को ( पाश-द्युम्नस्य ) धन के पाश में फँसे वैश्यवर्ग और ( वायतस्य ) विज्ञानवान् पुरुषों और (वायतस्य ) तेज और रक्षा से युक्त क्षात्रवर्ग के ( सुतात् सोमात् ) उत्तम अन्न ऐश्वर्य और ज्ञान से ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् पुरुष ( अवृणीत ) वरण करे । उनका मान, आदर, सत्कार करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    संस्तवो वसिष्ठस्य सपुत्रस्येन्द्रेण वा संवादः ॥ १ – ९ वसिष्ठपुत्राः । १०-१४ वसिष्ठ ऋषिः ।। त एव देवताः ।। छन्दः–१, २, ६, १२, १३ त्रिष्टुप् । ३, ४, ५, ७, ९, १४ निचृत् त्रिष्टुप् । १० भुरिक् पंक्तिः ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    ऐश्वर्यवान् पुरुष का वरण

    पदार्थ

    पदार्थ- विद्वान् लोग (वैशन्तम्) = राष्ट्र में प्रविष्ट, (प्रजा) = हितकारी (उग्रम्) = बलवान् (पान्तम्) = ऐश्वर्य को (सुतेन) = धर्म से उत्पन्न बल से (दूरात्) = दूर देश से भी (तिरः अनयन्) = पास पालक (इन्द्रम्) = ले आते हैं, उन (वसिष्ठान्) = राष्ट्रवासी उत्तम पुरुषों को (पाश-द्युम्नस्य) = धन से पास में फँसे वैश्यवर्ग और (वायतस्य) = विज्ञानवान् पुरुषों और रक्षा युक्त क्षात्रवर्ग के (सुतात् सोमात्) = उत्तम अन्न और ज्ञान से (इन्द्रः) = ऐश्वर्यवान् पुरुष (अवृणीत) = उनका सत्कार करे।

    भावार्थ

    भावार्थ- विविध विद्याओं में निष्णात उत्तम कोटि के विद्वान् विदेशों तथा अन्य राज्यों में जाकर अपनी विद्या के प्रभाव से ऐश्वर्य का संग्रह करके स्वदेश में लाकर राष्ट्र को सम्पन्न एवं ऐश्वर्यशाली बनाते हैं। ऐसे विद्वानों का सम्मान राष्ट्र के व्यापारी, सेना सेनापति, विज्ञानवेत्ता तथा किसान-मजदूर सभी मिलकर किया करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा इत्यादींनो ! जे दूर राहूनही आपल्या देशाला ऐश्वर्यसंपन्न करतात व दारिद्र्याचा नाश करून लक्ष्मी प्राप्त करतात त्या उत्तम लोकांचे निरंतर रक्षण करा. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    From far off and in view of their achievement in preference to others’, they invite and bring over Indra, pioneer of knowledge and power and strong supporter of people settled in peace, and Indra agrees and accepts the invitation of the aspiring scholars in recognition of the progress and prosperity of the producers of wealth, scholarship of the learned and the governance and justice of the organisers.$(The mantra points to the free movement of scholars and specialists across the globe for advancement of knowledge and culture on the international level.)

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