ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 38/ मन्त्र 2
तो॒शासा॑ रथ॒यावा॑ना वृत्र॒हणाप॑राजिता । इन्द्रा॑ग्नी॒ तस्य॑ बोधतम् ॥
स्वर सहित पद पाठतो॒षासा॑ । र॒थ॒ऽयावा॑ना । वृ॒त्र॒ऽहना॑ । अप॑राऽजिता । इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑ । तस्य॑ । बो॒ध॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
तोशासा रथयावाना वृत्रहणापराजिता । इन्द्राग्नी तस्य बोधतम् ॥
स्वर रहित पद पाठतोषासा । रथऽयावाना । वृत्रऽहना । अपराऽजिता । इन्द्राग्नी इति । तस्य । बोधतम् ॥ ८.३८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 38; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Ruling to the satisfaction of the people, going by chariot and reaching fast wherever needed, destroying the evils of darkness, ignorance, want and demonic injustice and exploitation, never frustrated or defeated but always victorious, Indra and Agni, ruler and enlightened sage and scholar, know this purpose well, follow and never relent.
मराठी (1)
भावार्थ
ब्राह्मण, क्षत्रिय हे दोघे प्रत्येक प्रकारच्या विघ्नांचे शमन करणारे आहेत. त्यासाठी त्यांनी आपला अधिकार कधीही विसरू नये किंवा प्रमाद करू नये. ॥२॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदेवाह ।
पदार्थः
हे इन्द्राग्नी=क्षत्रियब्राह्मणौ राजदूतौ वा । तस्य बोधतम्=तदेतज्जानीतम् । युवाम् । तोशासा=शत्रूणां हिंसकौ । पुनः रथयावाना=रथेन गन्तारौ । वृत्रहणौ=विघ्नविनाशकौ । अपराजिता=अपराजितौ ॥२ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः उसी को कहते हैं ।
पदार्थ
(इन्द्राग्नी+तस्य+बोधतम्) हे क्षत्रिय ! तथा हे ब्राह्मण ! यद्वा हे राजन् ! तथा दूत ! आप दोनों इस बात का पूरा ध्यान रक्खें कि आप दोनों (तोशासा) शत्रुसंहारक (रथयावाना) रथ पर चलनेवाले (वृत्रहणौ) निखिल विघ्नविनाशक और (अपराजिता) अपराजित=अन्यों से अजेय हैं ॥२ ॥
भावार्थ
जिस हेतु ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों प्रत्येक प्रकार के विघ्नों के शमन करनेवाले हैं, अतः वे कभी न अपना अधिकार भूलें और न उससे प्रमाद करें ॥२ ॥
विषय
उनके तुल्य परस्पर सहायकों और विद्वानों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( इन्द्राग्नी ) विद्युत् और अग्नि, वा सूर्य और अग्निवत् शत्रुनाशक राजन् ! और ज्ञानवन् विद्वन् ! आप दोनों (तोशासा) शत्रुओं और अज्ञानों, दुष्टाचरणों का नाश करते हुए (रथ-यावाना) रथ, स्वयं वेगवान् रमण योग्य, वा उत्तम यान से जाने वाले, (वृत्र-हणा ) बढ़ते शत्रु को दण्ड देने वाले, ( अपराजिता ) कभी न हारने वाले होवो। आप दोनों ( तस्य बोधत्तम् ) उस प्रजाजन को भली प्रकार जानो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व ऋषिः॥ इन्द्राग्नी देवते॥ छन्दः १, २, ४, ६, ९ गायत्री। ३, ५, ७, १० निचृद्गायत्री। ८ विराड् गायत्री॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'रोगों व वासनाओं के विनाशक' इन्द्राग्नी
पदार्थ
[१] ये (इन्द्राग्नी) = इन्द्र और अग्नि (तोशासा) = रोगरूप शत्रुओं का संहार करनेवाले व (रथयावाना) = इस शरीररथ को लक्ष्य स्थान की ओर ले चलनेवाले हैं। रोग यात्रा में विघ्न पैदा कर देते हैं और आगे बढ़ना रुक जाता है। ये बल व प्रकाश के दिव्यभाव रोगों को समाप्त करके हमें आगे बढ़ाते हैं। [२] ये (वृत्रहण) = ज्ञान की आवरण कामवासना को नष्ट करनेवाले हैं और (अपराजिता) = कभी पराजित होनेवाले नहीं। ये इन्द्र और अग्नि (तस्य) = हमारे उस जीवनयज्ञ का (बोधतम्) = ध्यान करें-उसे सम्यक् परिपूर्ण करें।
भावार्थ
भावार्थ:- बल व प्रकाश के दिव्य भाव रोगों को नष्ट कर शरीररथ को लक्ष्य स्थान की ओर ले चलते हैं। ये वासना को नष्ट करते हैं और कभी काम-क्रोध आदि से पराजित नहीं होते।
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