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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 38/ मन्त्र 6
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒मां गा॑य॒त्रव॑र्तनिं जु॒षेथां॑ सुष्टु॒तिं मम॑ । इन्द्रा॑ग्नी॒ आ ग॑तं नरा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माम् । गा॒य॒त्रऽव॑र्तनिम् । जु॒षेथा॑म् । सु॒ऽस्तु॒तिम् । मम॑ । इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑ । आ । ग॒त॒म् । न॒रा॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमां गायत्रवर्तनिं जुषेथां सुष्टुतिं मम । इन्द्राग्नी आ गतं नरा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाम् । गायत्रऽवर्तनिम् । जुषेथाम् । सुऽस्तुतिम् । मम । इन्द्राग्नी इति । आ । गतम् । नरा ॥ ८.३८.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 38; मन्त्र » 6
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra and Agni, leaders of the world order, come, listen and accept this exhilarating gayatri homage of mine in your honour.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रजेने राजाला बोलाविल्यास तेथे जाऊन प्रजेचे रक्षण करावे. ॥६॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तदेवाह ।

    पदार्थः

    हे नरा=नेतारौ इन्द्राग्नी=राजदूतौ ! युवाम् । गायत्र- वर्तनिम्=गायत्रमार्गयुताम्=गायत्रीछन्दोयुताम् । ममेमाम्= सष्टुतिम्=शोभनां स्तुतिम् । जुषेथाम्=सेवेथाम् । तथा आगतम्=आगच्छतम् ॥६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    पुनः उसी विषय को कहते हैं ।

    पदार्थ

    (नरा) हे प्रजानेता (इन्द्राग्नी) राजन् तथा दूत ! आप दोनों (गायत्रवर्तनिम्) गायत्रीछन्दोयुक्त (मम) मेरी (इमाम्+सुष्टुतिम्) इस शोभन स्तुति को (जुषेथाम्) सेवें और तदर्थ (आगतम्) यहाँ आवें । ॥६ ॥

    भावार्थ

    प्रजाजन जहाँ राजा को बुलावें, वहाँ सगण जाकर रक्षा करें ॥६ ॥

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    विषय

    उनके तुल्य परस्पर सहायकों और विद्वानों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्राग्नी नरा ) अभिवत् नायक जनो ! आप दोनों ( आ गतं ) आओ। ( इमां ) इस (गायत्र- वर्तनिं) गायत्री छन्द में विद्यमान ( सु-स्तुतिं ) उत्तम स्तुति वा उपदेश को (जुषेथाम्) प्रेमपूर्वक स्वीकार करो। अथवा—गायत्र वर्तनिं, गायत्री वा इयं पृथिवी श० । ४ । ३ । ४ ॥९॥ गायत्रोऽयं भूलोकः। तां० ७। ३। प्राणः। ९। कौ० ८। ५॥ अग्निः। श० १ । ८ । २ । १३॥ इति विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व ऋषिः॥ इन्द्राग्नी देवते॥ छन्दः १, २, ४, ६, ९ गायत्री। ३, ५, ७, १० निचृद्गायत्री। ८ विराड् गायत्री॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    गायत्रवर्तनि सुष्टुति

    पदार्थ

    [१] गय का अर्थ है प्राण, उनका रक्षण ही त्राण है। प्राणरक्षण सम्बन्धी वर्तनि [मार्ग] ही गायत्रवर्तनि है। हे (इन्द्राग्नी) = बल व प्रकाश के देवो! आप (इमां) = इस मम मेरी (गायत्रवर्तनिं) = प्राणरक्षण की मार्गभूत (सुष्टुतिं) = उत्तम स्तुति को (जुषेथाम्) = प्रीतिपूर्वक सेवित करो। मैं उत्तम स्तवन में प्रवृत्त हुआ हुआ अपने प्राणों का रक्षण करूँ। वह रक्षित प्राणशक्ति मेरे बल व प्रकाश का वर्धन करे। [२] हे इन्द्राग्नी ! आप (नरा) = मुझे उन्नति पथ पर ले चलनेवाले हो, (आगतम्) = आप मुझे प्राप्त होवें ।

    भावार्थ

    भावार्थ:- मैं बल व प्रकाश के वर्धन के लिए उस उत्तम स्तुति को करनेवाला बनूँ, जो मेरी प्राणशक्ति का रक्षण करती है।

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