ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 38/ मन्त्र 4
जु॒षेथां॑ य॒ज्ञमि॒ष्टये॑ सु॒तं सोमं॑ सधस्तुती । इन्द्रा॑ग्नी॒ आ ग॑तं नरा ॥
स्वर सहित पद पाठजु॒षेथा॑म् । य॒ज्ञम् । इ॒ष्टये॑ । सु॒तम् । सोम॑म् । स॒ध॒स्तु॒ती॒ इति॑ सधऽस्तुती । इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑ । आ । ग॒त॒म् । न॒रा॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
जुषेथां यज्ञमिष्टये सुतं सोमं सधस्तुती । इन्द्राग्नी आ गतं नरा ॥
स्वर रहित पद पाठजुषेथाम् । यज्ञम् । इष्टये । सुतम् । सोमम् । सधस्तुती इति सधऽस्तुती । इन्द्राग्नी इति । आ । गतम् । नरा ॥ ८.३८.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 38; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra and Agni, come to the people’s house of yajna, honoured ruler and leader, join us and enjoy the honey sweets of soma distilled for you so that we may all realise the aim and purpose of the social order the way we want.
मराठी (1)
भावार्थ
राजा व ब्राह्मण किंवा राजा व दूत दोघांनी मिळून यज्ञाचे रक्षण करावे. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तदेवाह ।
पदार्थः
हे सधस्तुती ! हे प्रजाभिः सहस्तवनीयौ ! हे नरा=नरौ नेतारौ । हे इन्द्राग्नी । युवां । यज्ञम् । जुषेथाम्=सेवेथाम् । इष्टये=यागाय च । सुतं=सम्पादितम् । सोमं पातुम् । आगतम्=आगच्छतम् ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
पुनः उसी विषय को कहते हैं ।
पदार्थ
(सधस्तुती) हे प्रजाओं के साथ स्तवनीय (नरा) हे प्रजाओं के नायक (इन्द्राग्नी) क्षत्रिय ! तथा ब्राह्मण यद्वा राजा और दूत, आप दोनों (यज्ञम्+जुषेथाम्) हम लोगों के शुभकर्म के रक्षा द्वारा सेवें और (इष्टये) यज्ञ के लिये (सुतम्+सोमम्) सम्पादित सोमरस को पीने के लिये यहाँ (आ+गतम्) आवें ॥४ ॥
भावार्थ
राजा और ब्राह्मण या राजा और दूत, दोनों मिलकर यज्ञ की रक्षा करें ॥४ ॥
विषय
उनके तुल्य परस्पर सहायकों और विद्वानों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( इन्द्राग्नी ) विद्युत् और अग्नि के तुल्य (नरा) उत्तम नायक, स्त्री पुरुषो ! आप दोनों ( इष्टये ) अभीष्ट सुख प्राप्त करने के लिये ( यज्ञम् ) पज्ञ, परस्पर सत्संग, दान का ( जुषेथाम् ) प्रेमपूर्वक सेवन करो, आप दोनों ( सध-स्तुती ) एक साथ स्तुति प्राप्त कर ( सुतं सोमं ) उत्पन्न पुत्र को, ऐश्वर्य को और ओषध्यादि रस को भी (जुषेथां) प्रेमपूर्वक प्राप्त करो। ( आ गतम् ) आप दोनों आदरपूर्वक आवो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व ऋषिः॥ इन्द्राग्नी देवते॥ छन्दः १, २, ४, ६, ९ गायत्री। ३, ५, ७, १० निचृद्गायत्री। ८ विराड् गायत्री॥ दशर्चं सूक्तम्॥
विषय
'मधस्तुती' इन्द्राग्नी
पदार्थ
[१] हे (सधस्तुती) = मिलकर स्तुति करनेवाले (इन्द्राग्नी) = बल व प्रकाश के दिव्य भावो ! [जीवन में बल व प्रकाश का मेल होने पर प्रभु का सच्चा स्तवन चलता है] आप (इष्टये) = अभीष्ट [मोक्ष] सुख की प्राप्ति के लिए (यज्ञं) = श्रेष्ठतम कर्मों का -लोकहितात्मक कर्मों का (जुषेथाम्) = सेवन करो। [२] हे (नरा) = उन्नति पथ पर ले चलनेवाले इन्द्राग्नी ! आप (सुतं सोमं) = उत्पन्न हुए हुए सोम के प्रति (आगतम्) = आओ। इस सोम का शरीर में रक्षण करते हुए आप वृद्धि को प्राप्त होवें । सुरक्षित सोम ही बल व प्रकाश की वृद्धि का कारण बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- बल व प्रकाश के दिव्य भाव [क] हमें स्तुति में प्रवृत्त करें, [ख] यज्ञशील बनाएँ, [ग] सोम का शरीर में रक्षण करें।
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