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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 38/ मन्त्र 7
    ऋषिः - श्यावाश्वः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    प्रा॒त॒र्याव॑भि॒रा ग॑तं दे॒वेभि॑र्जेन्यावसू । इन्द्रा॑ग्नी॒ सोम॑पीतये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒त॒र्याव॑ऽभिः । आ । ग॒त॒म् । दे॒वेभिः॑ । जे॒न्या॒व॒सू॒ इति॑ । इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑ । सोम॑ऽपीतये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रातर्यावभिरा गतं देवेभिर्जेन्यावसू । इन्द्राग्नी सोमपीतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रातर्यावऽभिः । आ । गतम् । देवेभिः । जेन्यावसू इति । इन्द्राग्नी इति । सोमऽपीतये ॥ ८.३८.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 38; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra and Agni, victorious creators of wealth for the nation, come with the early morning divinities and leading lights of generosity to join the yajna and have a taste of the soma of the nation’s honour and success.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाने सदैव धनसंग्रह करावा व प्रजेच्या कार्यात तत्पर असावे. ॥७॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तदेवाह ।

    पदार्थः

    हे जेन्यावसू=जययुक्तधनौ यद्वा जेतव्यशत्रुधनौ । इन्द्राग्नी युवाम् । प्रातर्यावभिः=प्रातर्गमनकारिभिः । देवेभिः=देवैः सह । सोमपीतये । आगतम् ॥७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    पुनः उसी विषय को कहते हैं ।

    पदार्थ

    (जेन्यावसू) हे जययुक्त धन यद्वा हे शत्रुधननेता (इन्द्राग्नी) राजन् ! तथा दूत आप दोनों (प्रातर्यावभिः) प्रातःकाल गमन करनेवाले (देवेभिः) विद्वानों के साथ (सोमपीतये) सोमरस पीने के लिये (आगतम्) आइये ॥७ ॥

    भावार्थ

    राजा सदा धनसंग्रह करें और प्रजा के कार्य्य में उद्यत रहें ॥७ ॥

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    विषय

    उनके तुल्य परस्पर सहायकों और विद्वानों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे ( जेन्यावसू ) विजय करने योग्य धनों को प्राप्त करने हारे ( इन्द्राग्नी ) सूर्याग्निवत् तेजस्वी जनो ! आप दोनों ( प्रातः-यावभिः ) प्रातःकाल वा जीवन के पूर्व भाग में ही प्राप्त होने वाले ( देवेभिः ) विद्वान् जनों से ( सोम-पीतये ) उत्तम ज्ञान ग्रहण करने और बलवीर्य की रक्षा करने के लिये आप ( आ गतम् ) आओ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व ऋषिः॥ इन्द्राग्नी देवते॥ छन्दः १, २, ४, ६, ९ गायत्री। ३, ५, ७, १० निचृद्गायत्री। ८ विराड् गायत्री॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'जेन्यावसू' इन्द्राग्नी

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्राग्नी) = बल व प्रकाश के दिव्यभावो ! आप (जेन्यावसू) = जेतव्य धनोंवाले हों-सब धनों का आप ही विजय करते हो। आप (प्रातर्यावभिः प्रातः) = प्रातः ही प्राप्त करने योग्य (देवेभिः) = दिव्यभावों के साथ (आगतम्) = हमें प्राप्त होवें। प्रातः उठते ही हम दिव्यभावनाओं को प्राप्त करने का ध्यान करें। [२] इन दिव्य भावों को प्राप्त करने के हेतु से हे (इन्द्राग्नी) = इन्द्र और अग्नि ! आप (सोमपीतये) = सोम के रक्षण के लिए आइए । सोम का शरीर में रक्षण ही सोमपान है। इस सोमरक्षण से ही सब दिव्यभाव विकसित होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ:- बल व प्रकाश के दिव्यभाव ही सब जेतव्य धनों को प्राप्त कराते हैं। ये ही सोमरक्षण द्वारा सब दिव्य भावों को विकसित करते हैं। बल व प्रकाश के होने पर ही अन्य सब दिव्यभावों के आने का सम्भव होता है।

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