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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 65/ मन्त्र 11
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    स॒हस्रे॒ पृष॑तीना॒मधि॑ श्च॒न्द्रं बृ॒हत्पृ॒थु । शु॒क्रं हिर॑ण्य॒मा द॑दे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒हस्रे॑ । पृष॑तीनाम् । अधि॑ । च॒न्द्रम् । बृ॒हत् । पृ॒थु । शु॒क्रम् । हिर॑ण्यम् । आ । द॒दे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सहस्रे पृषतीनामधि श्चन्द्रं बृहत्पृथु । शुक्रं हिरण्यमा ददे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सहस्रे । पृषतीनाम् । अधि । चन्द्रम् । बृहत् । पृथु । शुक्रम् । हिरण्यम् । आ । ददे ॥ ८.६५.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 65; मन्त्र » 11
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 47; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Besides thousands and more golden gifts of lands and cows, I have received beautiful, great and abundant pure gifts of gold from Indra, ruler of the earth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ही ऋचा ही शिकवण देते की, त्याच्या कृपेने ज्याला जसे धन प्राप्त होईल तसे ईश्वराला निवेदन करावे व आपली कृतज्ञता प्रकट करावी = तेच धन योग्य असते जे शुक्र = शुद्ध असते. अर्थात् पापापासून उत्पन्न झालेले नसते व चन्द्र अर्थात् आनंददायक असते. शुभ कर्मात व दानात व्यय केलेले धन सुखप्रद असते. ॥११॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अनेन मन्त्रेण कृतज्ञतां प्रकाशयेत् ।

    पदार्थः

    अहमुपासकः । पृषतीनां=नानावर्णानां गवाम् । सहस्रे=सहस्रादपि । अधि=अधिकम् । हिरण्यं= हिरण्यकोशम् । आददे=प्राप्तोऽस्मि । अतोऽहं तं यथा प्रार्थये, तथा यूयमपि तं प्रार्थयध्वमित्यर्थः । कीदृशम् । चन्द्रमाह्लादकम् । पुनः बृहत् । पृथु । शुक्रञ्च ॥११ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस मन्त्र को पढ़कर ईश्वर के निकट कृतज्ञता प्रकाश करे ।

    पदार्थ

    मैं उपासक (पृषतीनाम्) नाना वर्णों की गौवों के (सहस्रे+अधि) एक सहस्र से अधिक अर्थात् एक सहस्र गौवों के सिवाय (हिरण्यम्+आददे) सुवर्णकोश को भी पाया हुआ हूँ । जो हिरण्य (चन्द्रम्) आनन्दप्रद है (बृहत्) महान् और (पृथु) ढेर है और (शुक्रम्) शुद्ध है ॥११ ॥

    भावार्थ

    यह ऋचा यह शिक्षा देती है कि उसकी कृपा से जिसको जैसा धन प्राप्त हो, वैसा ईश्वर से निवेदन करे और अपनी कृतज्ञता प्रकाश करे । वही धन ठीक है, जो शुक्र=शुद्ध हो अर्थात् पापों से उत्पन्न न हुआ हो और चन्द्र अर्थात् आनन्दजनक हो । शुभकर्म और सुदान में लगाने से धन सुखप्रद होता है । इत्यादि ॥११ ॥

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    विषय

    सर्वव्यापक प्रभु की स्तुति और उपासना।

    भावार्थ

    ( पृषतीनाम् सहस्रे अधि ) सहस्रों सुखवर्षक वाणियों या नाड़ियों के भी ऊपर सहस्र नाड़ियों से युक्त मूर्धा में ( बृहत् पृथु ) बड़े विस्तृत ( चन्द्रं ) आल्हादजनक ( शुक्रम् हिरण्यं ) हितकारी सुखप्रद कान्तियुक्त वीर्य को ( आददे ) धारण करूं, मैं ऊर्ध्वरेता होऊं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रागाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९, ११, १२ निचृद् गायत्री। ३,४ गायत्री। ७, ८, १० विराड् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'चन्द्रं बृहत् पृथु शुक्रं ' हिरण्यम्

    पदार्थ

    [१] (पृषतीनाम् सहस्त्रे अधि) = अपने को शक्ति से सिक्त करनेवाली कमेन्द्रियों के सहस्रसंख्याक धनों के ऊपर अर्थात् कर्मेन्द्रियों द्वारा सहस्रों धनों का अर्जन करने के साथ मैं ज्ञानेन्द्रियों के व्यापार के द्वारा उस (हिरण्यम्) = हितरमणीय ज्ञान को (आददे) = ग्रहण करता हूँ जो (बृहत्) = [बृहि वृद्धौ ] शक्तियों की वृद्धि का कारणभूत हैं, (पृथु) = हृदय को विशाल बनानेवाला है और इस प्रकार (चन्द्र) = आह्लादजनक है और (शुक्रं) = पवित्र जीवन को देनेवाला है। [२] कर्मेन्द्रियों के व्यापार द्वारा-श्रम द्वारा-शतशः धनों का अर्जन आवश्यक है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम श्रम द्वारा धनों का अर्जन करते हुए हितरमणीय ज्ञान का उपादान करें जो हमारे जीवन को बढ़ी हुई शक्तियोंवाला, विशाल हृदयवाला व पवित्र बनाता है।

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