ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 65/ मन्त्र 6
सु॒ताव॑न्तस्त्वा व॒यं प्रय॑स्वन्तो हवामहे । इ॒दं नो॑ ब॒र्हिरा॒सदे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒तऽव॑न्तः । त्वा॒ । व॒यम् । प्रय॑स्वन्तः । ह॒वा॒म॒हे॒ । इ॒दम् । नः॒ । ब॒र्हिः । आ॒ऽसदे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुतावन्तस्त्वा वयं प्रयस्वन्तो हवामहे । इदं नो बर्हिरासदे ॥
स्वर रहित पद पाठसुतऽवन्तः । त्वा । वयम् । प्रयस्वन्तः । हवामहे । इदम् । नः । बर्हिः । आऽसदे ॥ ८.६५.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 65; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 46; मन्त्र » 6
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 46; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Dedicated to noble acts of yajna and soma creation, bearing havi for yajna and food for yajnic charity, we invoke and invite you to come and be seated on the holy seats of our vedi and bless our heart and soul.
मराठी (1)
भावार्थ
सुतावन्त: = यावरून हे दर्शविले जाते की, प्रथम शुभकर्मी बना. प्रयस्वन्त: - संपूर्ण सामग्रीसंपन्न व्हा. तेव्हा तुम्ही ईश्वराला आमंत्रित करण्याचे अधिकारी बनाल. ॥६॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! सुतावन्तः=शुभकर्मवन्तः । प्रयस्वन्तः= समिदादिसामग्रीसम्पन्नाः । वयम् । नोऽस्माकं इदम् । बर्हिः=हृदयप्रदेशम् । आसदे=आसत्तुं=प्राप्तुम् । हवामहे= आह्वयामः । स्तुमः ॥६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे इन्द्र ! (सुतावन्तः) सदा शुभकर्मपरायण और (प्रयस्वन्तः) दरिद्रों के देने के लिये और अग्निहोत्रादि कर्म करने के लिये सब प्रकार के अन्न और सामग्रियों से सम्पन्न होकर (वयम्) हम उपासक (नः) हमारे (इदम्+बर्हिः) इस हृदयप्रदेश में (आसदे) प्राप्त होने के लिये (त्वाम्) तुझको (हवामहे) बुलाते और स्तुति करते हैं ॥६ ॥
भावार्थ
सुतावन्तः=इससे यह दिखलाते हैं कि प्रथम शुभकर्मी बनो, प्रयस्वन्तः=तब सकल सामग्रीसम्पन्न होओ, तब तुम ईश्वर को बुलाने के अधिकारी होवोगे ॥६ ॥
विषय
सर्वव्यापक प्रभु की स्तुति और उपासना।
भावार्थ
( वयं सुत-वन्तः ) हम सुत अर्थात् उत्पन्न ज्ञान वाले, और ( प्रयस्वन्तः ) उत्तम अन्नादि से सम्पन्न होकर भी ( त्वा हवामहे ) तुझ से याचना करते हैं कि ( नः ) हमारे ( इदं बर्हिः आसदे ) इस हृदयासन पर विराज। ( २ ) इसी प्रकार उत्तम ऐश्वर्य, अन्न, उद्योगादि से युक्त, प्रजाएं राजा से उत्तम ( बर्हिः ) राष्ट्र प्रजा के ऊपर शासनार्थं विराजने की प्रार्थना करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रागाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९, ११, १२ निचृद् गायत्री। ३,४ गायत्री। ७, ८, १० विराड् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
सुतावन्तः प्रयस्वन्तः
पदार्थ
[१] (सुतावन्तः) = उत्पन्न सोम का प्रशस्तरूप में रक्षण करनेवाले (वयं) = हम (त्वा) = हे प्रभो ! आपको (हवामहे) = पुकारते हैं। [२] (प्रयस्वन्तः) = प्रशस्त सात्त्विक भोजनवाले बनकर हम आपको (नः) = हमारे (इदं बर्हिः) = इस वासनामलशून्य हृदयासन पर (आसदे) = बैठने के लिए पुकारते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम सुतावानम् व प्रयस्वान्-सोम का रक्षण करनेवाले व प्रशस्त सात्त्विक भोजन करनेवाले बनकर प्रभु की आराधना करें।
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