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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 65/ मन्त्र 4
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ त॑ इन्द्र महि॒मानं॒ हर॑यो देव ते॒ मह॑: । रथे॑ वहन्तु॒ बिभ्र॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । म॒हि॒मान॑म् । हर॑यः । दे॒व॒ । ते॒ । महः॑ । रथे॑ । व॒ह॒न्तु॒ । बिभ्र॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त इन्द्र महिमानं हरयो देव ते मह: । रथे वहन्तु बिभ्रतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । ते । इन्द्र । महिमानम् । हरयः । देव । ते । महः । रथे । वहन्तु । बिभ्रतः ॥ ८.६५.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 65; मन्त्र » 4
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 46; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, refulgent lord, may your radiating forces of transport and communication bear and bring you here to us with your grandeur and your majesty in the chariot.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ईश्वराचा महिमा या जगात पाहा. त्यातच तो विराजमान आहे हा यात उपदेश आहे. ॥४॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! हे देव ! ते=तव महिमानम्=महत्त्वम् । ते=तव । महस्तेजञ्च । बिभ्रतः=धारयन्तः । इमे=हरयः=परस्परहरणशीलाः सूर्य्यादयो लोका इन्द्रियाणि च । त्वाम् । रथे=रमणीये=संसारे । आवहन्तु=प्रकाशयन्तु ॥४ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमैश्वर्य्यसम्पन्न (देव) हे देव भगवन् ! (ते) तेरे (महिमानम्) महिमा को और (ते+महः) तेरे तेज को (बिभ्रतः) धारण करते हुए ये (हरयः) परस्पर हरणशील सूर्य्यादिलोक तुझको (रथे) रमणीय संसार में (वहन्तु) प्रकाशित करें ॥४ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! ईश्वर की महिमा इस संसार में देखो । इसी में यह विराजमान है । यह इससे उपदेश देते हैं ॥४ ॥

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    विषय

    सर्वव्यापक प्रभु की स्तुति और उपासना।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! हे ( देव ) प्रकाशस्वरूप ! ( महिमानं बिभ्रतः ) महान् सामर्थ्य को धारण करने वाले ( ते ) तुझे और ( महः बिभ्रतः ते ) तेज वा बड़े भारी जगत् को धारण करने वाले ( रथे हरयः ) रथ में लगे अश्वों के तुल्य ( रथे हरयः ) रमण योग्य इस देह में विद्यमान सब मनुष्य ( आ वहन्तु ) आदरपूर्वक धारण करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रागाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९, ११, १२ निचृद् गायत्री। ३,४ गायत्री। ७, ८, १० विराड् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    महिमा+महस्

    पदार्थ

    [१] हे इन्द्र! सब बल के कर्मों को करनेवाले प्रभो! (ते महिमानं) = आपकी महिमा को (हरयः) = ये ज्ञानेन्द्रियरूप (अश्व आवहन्तु) = प्राप्त कराएँ । हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ सर्वत्र आपकी महिमा को देखें। [२] हे (देव) = इस संसाररूप क्रीड़ा के करनेवाले प्रभो! (ते महः) = आपके तेज को (रथे बिभ्रतः) = शरीररूप रथ में धारण करते हुए ये कर्मेन्द्रियरूप अश्व वहन्तु हमें लक्ष्यस्थान पर पहुँचानेवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ सर्वत्र प्रभु की महिमा को देखें और हमारी कर्मेन्द्रियाँ प्रभु की शक्ति का धारण करनेवाली हों।

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