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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 65/ मन्त्र 12
    ऋषिः - प्रगाथः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    नपा॑तो दु॒र्गह॑स्य मे स॒हस्रे॑ण सु॒राध॑सः । श्रवो॑ दे॒वेष्व॑क्रत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नपा॑तः । दुः॒ऽगह॑स्य । मे॒ । स॒हस्रे॑ण । सु॒ऽराध॑सः । श्रवः॑ । दे॒वेषु॑ । अ॒क्र॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नपातो दुर्गहस्य मे सहस्रेण सुराधसः । श्रवो देवेष्वक्रत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नपातः । दुःऽगहस्य । मे । सहस्रेण । सुऽराधसः । श्रवः । देवेषु । अक्रत ॥ ८.६५.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 65; मन्त्र » 12
    अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 47; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    My honour and renown, unfallen, unmatched and blest as I am with a thousandfold gifts of divine munificence, may, I pray, reach and abide with the divinities.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात आपले पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र व दौहित्र इत्यादींना सुखी राहण्यासाठी ईश्वराला प्रार्थना करावी. ॥१२॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    दुर्गहस्य=दुःखं गाहमानस्य । मे=मम । नपातः=नपाताः= पौत्रदौहित्रादयः । सहस्रेण=अपरिमितेन धनेन । सुराधसः=सुधनाः । भवन्तु । तथा । देवेषु=श्रेष्ठपुरुषेषु । श्रवः=यशः अन्नं पश्वादिकञ्च । अक्रत=लभन्ताम् ॥१२ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे ईश ! यद्यपि मैं (दुर्गहस्य) दुःख में निमग्न हूँ, तथापि (मे) मेरे (नपातः) पौत्र, दौहित्र आदि जन (सहस्रेण) आपके लिए हुए अपरिमित धन से (सुराधसः) धनसम्पन्न होवें और (देवेषु) श्रेष्ठ पुरुषों में वे (श्रवः) यश, अन्न, पशु, हिरण्य और आपकी कृपा (अक्रत) पावें ॥१२ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र से अपने पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र और दौहित्रादिकों को सुखी होने के लिये ईश्वर से प्रार्थना करें ॥१२ ॥

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    विषय

    सर्वव्यापक प्रभु की स्तुति और उपासना।

    भावार्थ

    व्रत से न गिरने वाले ( सहस्रेण दुर्गहस्य ) हजारों से दुर्ग्राह्य, अविज्ञेय, ( सु-राधसः ) उत्तम ऐश्वर्ययुक्त ( मे ) मेरा ( श्रवः ) ज्ञान ( देवेषु ) ज्ञान की कामना करने वाले शिष्यों में ( अक्रत ) प्रदान करो। इति सप्तचत्वारिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रागाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९, ११, १२ निचृद् गायत्री। ३,४ गायत्री। ७, ८, १० विराड् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    उत्कृष्ट ज्ञानधन

    पदार्थ

    [१] (नपातः) = न गिरने देनेवाले [ न पातयति इति ] - पापों में फंसने के बचानेवाले, (सहस्त्रेण) = शतशः धनों से (दुर्गहस्य) = दुर्ग्राह्य-धनों के द्वारा अप्राप्य (मे) = मेरे (सुराधसः) = उत्तम ज्ञानरूप ऐश्वर्य का (श्रवः) = श्रवण (देवेषु) = माता, पिता व आचार्यरूप देवों की समीपता में अक्रत करो। [२] ज्ञानरूप धन इन बाह्य धनों के द्वारा अप्राप्य हैं। यह तो नम्रता, जिज्ञासा व बड़ों की सेवा से ही प्राप्त होता है। इस ज्ञान के लिए हम बड़ों की उपासना करें। उनकी समीपता में ही यह ज्ञान प्राप्त होगा।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु से दत्त वेदज्ञान हमारा रक्षक है। यह धनों से प्राप्य नहीं । देवों की शुश्रूषा से ही यह प्राप्त होता है। देवों की उपासना से इस ज्ञान का संख्यान [सम्यग् दर्शन] करनेवाला 'कलि' अगले सूक्त का ऋषि है। यह 'प्रागाथ' प्रभु के गुणों का गायन करनेवाला होता हुआ 'इन्द्र' नाम से प्रभु का उपासन करता है-

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