ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 65/ मन्त्र 5
इन्द्र॑ गृणी॒ष उ॑ स्तु॒षे म॒हाँ उ॒ग्र ई॑शान॒कृत् । एहि॑ नः सु॒तं पिब॑ ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । गृ॒णी॒षे । ऊँ॒ इति॑ । स्तु॒षे । म॒हान् । उ॒ग्रः । ई॒शा॒न॒ऽकृत् । आ । इ॒हि॒ । नः॒ । सु॒तम् । पिब॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र गृणीष उ स्तुषे महाँ उग्र ईशानकृत् । एहि नः सुतं पिब ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र । गृणीषे । ऊँ इति । स्तुषे । महान् । उग्रः । ईशानऽकृत् । आ । इहि । नः । सुतम् । पिब ॥ ८.६५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 65; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 46; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 46; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, great, blazing brave, ruler and glorifier of rulers, I adore and exalt you. Pray come, drink the soma of our achievement and protect and promote the world of your creation.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर सर्वात महान आहे व तोच धनाचा स्वामी आहे व उग्रही आहे. कारण त्याच्यासमोर पापी थांबू शकत नाहीत. त्यासाठी त्याची स्तुती प्रार्थना अवश्य केली पाहिजे. ॥५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! त्वं सर्वैः । गृणीषे=ग्रियसे गीयसे । उ=निश्चयेन । त्वं स्तुषे=स्तूयसे । त्वं महान् । उग्रः । ईशानकृत्=ऐश्वर्य्यकृदसि । नोऽस्मानेहि । सुतं सृष्टं जगत् । पिब=रक्ष ॥५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(इन्द्र) हे इन्द्र भगवन् ! तू (गृणीषे) सबसे गीयमान होता है अर्थात् तेरी कीर्ति को सब ही गाते बजाते हैं, (उ) निश्चय करके (महान्) तुझको महान् (उग्रः) न्यायदृष्टि से भयंकर और (ईशानकृत्) ऐश्वर्य्ययुत धनदाता मान कर (स्तुषे) स्तुति करते हैं, वह तू (नः+एहि) हमारे निकट आ और (सुतम्+पिब) इस सृष्टि संसार को उपद्रवों से बचा ॥५ ॥
भावार्थ
ईश्वर सबसे महान् है और वही धन का भी स्वामी है और उग्र भी है, क्योंकि उसके निकट पापी नहीं ठहर सकते, अतः उसकी स्तुति प्रार्थना अवश्य करनी चाहिये ॥५ ॥
विषय
सर्वव्यापक प्रभु की स्तुति और उपासना।
भावार्थ
हे ( इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू ( महान् ) बड़ा, ( उग्रः ) बलवान्, दुष्टों को भयजनक, (ईशान-कृत् ) सर्वस्वामी होकर, सब जगत् पर शासन करने वाला, ( गृणीषे ) वर्णन किया और ( स्तुषे उ ) स्तुति भी किया जाता है, तू ( नः आ इहि ) हमें प्राप्त हो और ( सुतं पिब ) उत्पन्न जगत् का पालन कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रागाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९, ११, १२ निचृद् गायत्री। ३,४ गायत्री। ७, ८, १० विराड् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
महिमा-बल-ऐश्वर्य
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = सब बल के कर्मों को करनेवाले प्रभो ! (गृणीषे) = आप ही इस रूप में कहे जाते हो कि (महान्) = आप पूजनीय व सर्वव्यापक हैं, (उग्र:) = उद्गूर्ण बलवाले हैं-बढ़े हुए बलवालें हैं, (ईशानकृत्) = सब ऐश्वर्यों के करनेवाले हैं। [२] हे इन्द्र ! मैं (उ) = निश्चय से (स्तुषे) = आपका स्तवन करता हूँ। आप (नः एहि) = हमें प्राप्त होइए और (सुतं पिब) = हमारे अन्दर उत्पन्न हुए हुए सोम का पान करिये। इस सोमरक्षण द्वारा ही हम 'महिमा - बल व ऐश्वर्य' को प्राप्त करनेवाले होंगे।
भावार्थ
भावार्थ - उस 'महान्, उग्र, ईशानकृत्' प्रभु का स्मरण करते हुए हम सोम का रक्षण करें और 'महिमा, बल व ऐश्वर्य' को प्राप्त करने का प्रयत्न करें। मन में महिमा, शरीर में बल व मस्तिष्क में ज्ञानैश्वर्य का हम धारण करें।
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