ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 65/ मन्त्र 7
यच्चि॒द्धि शश्व॑ता॒मसीन्द्र॒ साधा॑रण॒स्त्वम् । तं त्वा॑ व॒यं ह॑वामहे ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । चि॒त् । हि । शश्व॑ताम् । असि॑ । इन्द्र॑ । साधा॑रणः । त्वम् । तम् । त्वा॒ । व॒यम् । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यच्चिद्धि शश्वतामसीन्द्र साधारणस्त्वम् । तं त्वा वयं हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । चित् । हि । शश्वताम् । असि । इन्द्र । साधारणः । त्वम् । तम् । त्वा । वयम् । हवामहे ॥ ८.६५.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 65; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 47; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 4; वर्ग » 47; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
As you bear and sustain the common generality of people since time immortal and the people bear common allegiance to you, we invoke and adore you in all our holy projects of common universal value.
मराठी (1)
भावार्थ
शश्वताम् = याचा अर्थ चिरंतन व सदैव स्थायी आहे. मानव समाज प्रवाहरूपाने अविनश्वर आहे. त्यामुळे तो शाश्वत आहे. परमेश्वर सर्वांचा समान पोषक आहे, यात संशय नाही. त्यासाठी प्रत्येक शुभकर्मात प्रथम त्याचेच स्मरण, कीर्तन, पूजन व प्रार्थना करणे योग्य आहे. ॥७॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे इन्द्र ! यद्=यस्मात् कारणात् । शश्वताम्=सदा स्थायिनां मनुष्यसमाजानाम् । त्वम्+साधारणः=समानः । अस्ति । हीति प्रसिद्धमेतत् । चिदिति निश्चितम् । तस्मात्तं त्वा वयं हवामहे ॥७ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(इन्द्र) हे ईश ! (यद्) जिस कारण (शश्वताम्) सदा स्थायी मनुष्यसमाजों का (त्वम्+साधारणः) तू साधारण=समान स्वामी (अस्ति) है (हि) यह प्रसिद्ध और (चित्) निश्चय है, इस कारण (तम्+त्वाम्) उस तुझको (वयम्+हवामहे) हम सब अपने शुभकर्मों में बुलाते और स्तुति करते हैं ॥७ ॥
भावार्थ
शश्वताम्=इसका अर्थ चिरन्तन और सदा स्थायी है । मनुष्यसमाज प्रवाहरूप से अविनश्वर है, अतः यह शाश्वत है । परमात्मा सबका साधारण पोषक है, इसमें सन्देह स्थल ही नहीं, अतः प्रत्येक शुभकर्म में प्रथम उसी का स्मरण, कीर्त्तन, पूजन व प्रार्थना करना उचित है ॥७ ॥
विषय
सर्वव्यापक प्रभु की स्तुति और उपासना।
भावार्थ
( यत् चित् हि ) जिस कारण से ( शश्वताम् साधारणः त्वम् असि ) तू बहुतों में भी साधारण, समान रूप से सबके प्रति निष्पक्षपात होकर सबको धारण पोषण करने हारा है, इसलिये (तं त्वा) उस तुझ को ( वयं हवामहे ) हम आदरपूर्वक बुलाते, प्रार्थना करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रागाथः काण्व ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः—१, २, ५, ६, ९, ११, १२ निचृद् गायत्री। ३,४ गायत्री। ७, ८, १० विराड् गायत्री॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
शश्वतां साधारणः
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वं) = आप (यत्) = क्योंकि (चित् हि) = निश्चय से (शश्वतां) = अनेक व सनातनकाल से चली आ रही प्रजाओं के (साधारणः असि) = समानरूप से (निष्पक्षपात) = पालक हैं, सो (तं त्वा) = उन आपको (वयं) = हम (हवामहे) पुकारते हैं। [२] प्रभु की रक्षण व पालन- व्यवस्था में किसी प्रकार का पक्षपात नहीं । सो प्रभु का आह्वान हम करते हैं, वहाँ किसी प्रकार के अन्याय का भय नहीं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु समानरूप से सबका पालन करनेवाले हैं।
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