ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 18
ऋषिः - व्याघ्रपाद्वासिष्ठः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ग्र॒न्थिं न वि ष्य॑ ग्रथि॒तं पु॑ना॒न ऋ॒जुं च॑ गा॒तुं वृ॑जि॒नं च॑ सोम । अत्यो॒ न क्र॑दो॒ हरि॒रा सृ॑जा॒नो मर्यो॑ देव धन्व प॒स्त्या॑वान् ॥
स्वर सहित पद पाठग्र॒न्थिम् । न । वि । स्य॒ । ग्र॒थि॒तम् । पु॒ना॒नः । ऋ॒जुम् । च॒ । गा॒तुम् । वृ॒जि॒नम् । च॒ । सो॒म॒ । अत्यः॑ । न । क्र॒दः॒ । हरिः॑ । आ । सृ॒जा॒नः । मर्यः॑ । दे॒व॒ । ध॒न्व॒ । प॒स्त्य॑ऽवान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ग्रन्थिं न वि ष्य ग्रथितं पुनान ऋजुं च गातुं वृजिनं च सोम । अत्यो न क्रदो हरिरा सृजानो मर्यो देव धन्व पस्त्यावान् ॥
स्वर रहित पद पाठग्रन्थिम् । न । वि । स्य । ग्रथितम् । पुनानः । ऋजुम् । च । गातुम् । वृजिनम् । च । सोम । अत्यः । न । क्रदः । हरिः । आ । सृजानः । मर्यः । देव । धन्व । पस्त्यऽवान् ॥ ९.९७.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 18
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे परमात्मन् ! (ग्रथितं) बद्धपुरुषाणां (पुनानः) मुक्तिदो भवान् (नः) अस्माकं (ग्रन्थिं न) बन्धनमिव (वि स्य) मोचयतु (च) तथा (गातुं) मन्मार्गं (ऋजुं) सुगमं करोतु (सोम) हे सौम्यस्वभाव ! (वृजिनं, च) बलं च सम्पादयतु (अत्यः न) विद्युच्छक्तिरिव (क्रदः) शब्दकारी भवान् (आ, सृजानः) उत्पत्तिकाले सर्वस्रष्टा (हरिः) प्रलये च हरणकर्तास्ति (देव) हे भगवन् ! (पस्त्यवान्) अन्यायिशत्रूणां (मर्यः) नाशकः (धन्व) मदन्तःकरणं शोधयतु ॥१८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (ग्रथितम्) बुद्ध पुरुषों के (पुनानः) मुक्तिदाता आप (नः) हमारे (ग्रन्थिं न) गाँठ के समान बन्धन को (विष्य) मोचन करें (च) और (गातुम्) हमारे मार्ग को (ऋजुम्) सरल करें। (सोम) हे परमात्मन् ! (च) तथा (वृजिनम्) हमको बल प्रदान करें, (अत्यो न) विद्युत् की शक्ति के समान (क्रदः) आप शब्दायमान हैं, (आ, सृजानः) उत्पत्तिकाल में सबके स्रष्टा हैं और प्रलयकाल में (हरिः) सबके हरणकर्त्ता हैं। (देव) हे देव ! (पस्त्यवान्) अन्यायकारी शत्रुओं के (मर्यः) आप नाशक हैं, (धन्व) आप हमारे अन्तःकरणों को शुद्ध करें ॥१८॥
भावार्थ
परमात्मा स्वभाव से न्यायकारी है। वह आप उपासकों के अन्तःकरण को शुद्धि प्रदान करता है और अनाचारियों को रुद्ररूप से विनाश करता हुआ इस संसार में धर्म और नीति को स्थापन करता है ॥१८॥
विषय
उसके कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (सोम) ऐश्वर्यवन्! हे शास्तः ! हे प्रभो ! राजन् ! विद्वन् ! तू (पुनानः) पवित्र करता हुआ (ग्रथितं) बंधे हुए जीव को (ग्रन्थिं न) बंधी गांठ के समान (वि स्य) विशेष रूप से खोल दे, मुक्त कर। और तू (ऋजुं च गातुम्) ऋजु, सरल धार्मिक मार्ग को (वि स्य) खोल दे। और (वृजिनं च) बल वा गन्तव्य मार्ग को खोल, (वृजिनं) वर्जन करने योग्य पाप का भी (वि स्य) विशेष प्रकार से अन्त कर। तू (हरिः) सर्वदुःखहारी तेजस्वी, (अत्यः न क्रदः) अश्व के समान सबसे पार होकर, सब को उपदेश करता हुआ, (आ सृजानः मर्यः) आदरणीय पद पर स्थापित मनुष्य के तुल्य (पस्त्यावान्) गृहपति के तुल्य समस्त गृहों और लोकों का स्वामी होकर (धन्व) प्राप्त हो।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
पस्त्यावान्
पदार्थ
हे सोम ! (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ तू वासनाओं के उबाल से मलिन न होने दिया जाता हुआ तू (ग्रथितं) = विषयों से जकड़े हुए मुझको (विष्य) = इन बन्धनों से मुक्त कर । (ग्रन्थिं न) = जैसे कि एक गाँठ को खोल देते हैं, इस प्रकार तू मेरी हृदयग्रन्थियों को भिन्न करनेवाला हो। (च) = और हृदयग्रन्थियों को नष्ट करके तू मुझे (ऋतुं गातुम्) = सरल मार्ग (च) = तथा (वृजिनम्) = बल को प्राप्त करा । मैं विषयों से ऊपर उठकर सबल बनकर सरल मार्ग से जीवनयात्रा में आगे बढ़ें। (आसृजान:) = शरीर में चारों ओर (सृष्ट) = प्रेरित होता हुआ तू (अत्यः न) = सततगामी अश्व के समाने क्रियाशील होकर (क्रदः) = उस प्रभु के नामों का उच्चारण कर । सोमरक्षण से मेरी प्रवृत्ति प्रभुस्मरण की बने। (हरिः) = तू सब रोगों का हरण करनेवाला हो, (मर्यः) = शत्रुओं का मारनेवाला हो। इस प्रकार (पस्त्यावान्) = इस शरीररूप गृह को प्रशस्त बनाता हुआ तू देव हे प्रकाशमय सोम! (धन्व) = मुझे प्राप्त हो ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हृदयग्रन्थियों को भिन्न करे, सरलता व सबलता को प्राप्त कराये, प्रभु की ओर हमें झुकाये, रोगों को हरें, काम-क्रोध आदि को मारे, इस प्रकार शरीर गृह को उत्तम बनाये ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, pure, purifying and refulgent divinity, liberate the man in chains, breaking the bond as you untie a tough knot. Make the paths of life simple and straight, let the strength be natural and sincere, free from guile. Spirit of divinity, you roar as thunder, you are saviour and sustainer, creator and maker of the mortal humanity, and you are the sole master of the universe, your home.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा स्वभावाने न्यायकारी आहे. तो उपासकांचे अंत:करण शुद्ध करतो व अन्यायी लोकांचा रुद्ररुपाने विनाश करत या जगात धर्म व नीतीची स्थापना करतो. ॥१८॥
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