ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 48
नू न॒स्त्वं र॑थि॒रो दे॑व सोम॒ परि॑ स्रव च॒म्वो॑: पू॒यमा॑नः । अ॒प्सु स्वादि॑ष्ठो॒ मधु॑माँ ऋ॒तावा॑ दे॒वो न यः स॑वि॒ता स॒त्यम॑न्मा ॥
स्वर सहित पद पाठनु । नः॒ । त्वम् । र॒थि॒रः । दे॒व॒ । सो॒म॒ । परि॑ । स्र॒व॒ । च॒म्वोः॑ । पू॒यमा॑नः । अ॒प्ऽसु । स्वादि॑ष्ठः । मधु॑ऽमान् । ऋ॒तऽवा॑ । दे॒वः । न । यः । स॒वि॒ता । स॒त्यऽम॑न्मा ॥
स्वर रहित मन्त्र
नू नस्त्वं रथिरो देव सोम परि स्रव चम्वो: पूयमानः । अप्सु स्वादिष्ठो मधुमाँ ऋतावा देवो न यः सविता सत्यमन्मा ॥
स्वर रहित पद पाठनु । नः । त्वम् । रथिरः । देव । सोम । परि । स्रव । चम्वोः । पूयमानः । अप्ऽसु । स्वादिष्ठः । मधुऽमान् । ऋतऽवा । देवः । न । यः । सविता । सत्यऽमन्मा ॥ ९.९७.४८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 48
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे सर्वोत्पादक ! (देव) दिव्यस्वरूप परमात्मन् ! (त्वं) भवान् (रथिरः) बलस्वरूपोऽस्ति (चम्वोः) भुवनानि (पूयमानः) पावयन् (अप्सु) जलेषु (मधुमान्) मधुरं (स्वादिष्ठः) स्वादुतमं रसं (ऋतावा) वितरन् (देवः, न) दिव्यशक्तिरिव (नु) शीघ्रम् (नः) अस्मभ्यं (सत्यमन्मा) सत्यस्वरूपो भवन् भवान् (परि, स्रव) मदन्तःकरणे विराजताम् ॥४८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे सर्वोत्पादक ! (देव) दिव्यस्वरूप परमात्मन् ! (त्वम्) तुम (रथिरः) बलस्वरूप हो, (चम्वोः) सब भुवनों को (पूयमानः) पवित्र करते हुए (अप्सु) जलों में (मधुमान्) मीठा (स्वादिष्ठ) स्वादुरस (ऋतावा) वितीर्ण करते हुए (देवः) दिव्यशक्ति के (न) समान (नु) शीघ्र (नः) हमारे लिये (सत्यमन्मा) सत्यस्वरूप आप हमारे अन्तःकरण में आकर (परिस्रव) विराजमान हो ॥४८॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा से स्व-स्वामिभाव की प्रार्थना की गई है अथवा यों कहो कि प्रेर्य और प्रेरकभाव से परमात्मा की उपासना की गई है ॥४८॥
विषय
उसके कण्टक-शोधन का कर्त्तव्य।
भावार्थ
(यः) जो (सविता) सबका उत्तम मार्ग में प्रेरक (सत्य-मन्मा) सत्य ज्ञान और सत्य चित्त वाला है, वह (त्वम्) तू हे (देव सोम) तेजस्विन् ! सूर्यवत् शासक ! (चम्वोः पूयमानः) दोनों प्रकार की बाह्य, भीतरी सेनाओं के बल पर राष्ट्र को पवित्र, निष्कण्टक करता हुआ (रथिरः) महारथी होकर (परि स्रव) प्रयाण कर। तू (अप्सु) प्रजाओं के बीच में (स्वादिष्टः) अन्नवत् अति मधुर (मधुमान्) सर्वप्रिय, मधुर वचन बोलनेहारा, बलवान् (ऋत-वा) सत्य, तेज को धारण करने वाला हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
मधुमान् ऋतावा
पदार्थ
हे (देव) = प्रकाशमय (सोम) = वीर्य (नु) = अब (नः) = हमारे लिये (त्वम्) = तू (रथिरः) = शरीररथ को उत्तम बनानेवाला होता हुआ (परिस्रव) = शरीर में चारों ओर गतिवाला हो। तू (चम्वो) = इन द्यावापृथिवी के निमित्त मस्तिष्क व शरीर के लिये, (पूयमानः) = पवित्र किया जाता हुआ हो । तेरी पवित्रता पर ही मस्तिष्क की ज्ञान दीप्ति व शरीर की शक्ति निर्भर करती है । यह सोम अप्सु (स्वादिष्ठः) = कर्मों में अधिक से अधिक आनन्द के देनेवाला है । सोमरक्षण ही क्रियाशील बन पाता है। (मधुमान्) = यह सोम जीवन में माधुर्य का संचार करनेवाला व (ऋतावा) = ऋत का, यज्ञादि उत्तम कर्मों का रक्षक है । सोम वह है (यः) = जो कि (देवः न) = उस प्रकाशमय प्रभु के समान हमें (सविता) = कर्मों में प्रेरित करनेवाला है । (सत्यमन्मा) = सत्यज्ञान वाला है। सोमरक्षण से ही बुद्धि की तीव्रता होकर सत्य ज्ञान प्राप्त होता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम सुरक्षित होकर मस्तिष्क व शरीर को सुन्दर बनाता है। 'क्रियाशीलता, माधुर्य व ऋत' को प्राप्त कराता है। सत्य ज्ञान की प्राप्ति का साधन बनता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Verily to us for our vision and experience, you, O master of the cosmic chariot, refulgent Soma, flow on in the mighty forms of existence both physical and psychic. Flow on, pure, purifying and sanctifying in the dynamics of nature, flow into our actions, thoughts and words. Flow on, sweetest spirit, bearing honeyed joys of life, the very spirit of truth and eternal law, you who are self-refulgent and generous like the life-giving sun, sole lord of truth and laws of constant mutability at heart.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमेश्वराची स्वस्वामीभावाने प्रार्थना केलेली आहे अथवा असे म्हणता येईल की प्रेर्य व प्रेरक भावाने परमेश्वराची उपासना केलेली आहे. ॥४८॥
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