ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 55
ऋषिः - कुत्सः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सं त्री प॒वित्रा॒ वित॑तान्ये॒ष्यन्वेकं॑ धावसि पू॒यमा॑नः । असि॒ भगो॒ असि॑ दा॒त्रस्य॑ दा॒तासि॑ म॒घवा॑ म॒घव॑द्भ्य इन्दो ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । त्री । प॒अवित्रा॑ । विऽत॑तानि । ए॒षि॒ । अनु॑ । एक॑म् । धा॒व॒सि॒ । पू॒यमा॑नः । असि॑ । भगः॑ । असि॑ । दा॒त्रस्य॑ । दा॒ता । असि॑ । म॒घऽवा॑ । म॒घव॑त्ऽभ्यः । इ॒न्दो॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं त्री पवित्रा विततान्येष्यन्वेकं धावसि पूयमानः । असि भगो असि दात्रस्य दातासि मघवा मघवद्भ्य इन्दो ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । त्री । पअवित्रा । विऽततानि । एषि । अनु । एकम् । धावसि । पूयमानः । असि । भगः । असि । दात्रस्य । दाता । असि । मघऽवा । मघवत्ऽभ्यः । इन्दो इति ॥ ९.९७.५५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 55
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! भवान् (त्री) त्रीन् (विततानि, पवित्रा) विस्तृतपदार्थान् (सं, एषि) सम्यक् प्राप्तः (पूयमानः) भवान् पावयंश्च (अनु, एकं) प्रतिपदार्थं (धावसि) गतिरूपेण विराजते च (भगः, असि) ऐश्वर्य्यरूपश्चास्ति (दात्रस्य) धनस्य (दाता, असि) दातापि अस्ति यतो भवान् (मघवद्भ्यः) सर्वधनिकेभ्यः (मघवा) धनिकतमोऽस्ति ॥५५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) हे प्रकाशस्वरूप परमात्मन् ! आप (त्री) तीन (विततानि) विस्तृत (पवित्रा) पवित्र पदार्थों को (सम्) भली प्रकार (एषि) प्राप्त हैं और (पूयमानः) सबको पवित्र करते हुए (अन्वेकम्) प्रत्येक पदार्थ में (धावसि) गतिरूप से विराजमान हैं (भगः) आप ऐश्वर्य्यस्वरूप (असि) हैं, (दात्रस्य) धन के (दाता) देनेवाले (असि) हैं, क्योंकि आप (मघवद्भ्यः) सम्पूर्ण धनिकों से (मघवा) धनी हैं ॥५५॥
भावार्थ
परमात्मा सब ऐश्वर्य्यों का स्वामी है और सब धनिकों से धनी है, इसलिये उसी की कृपा से सब ऐश्वर्यों की प्राप्ति होती है, अन्यथा नहीं ॥५५॥
विषय
प्रजा को ऐश्वर्य दे।
भावार्थ
हे (इन्दो) उत्तम तेजस्विन् ! तू (त्री पवित्रा सम् एषि) पवित्र करने वाले, इन शोधक अग्नि, वायु, जल तीनों को एक साथ प्राप्त करता है। तू (पूयमानः) पवित्र होता या करता हुआ (एकम् अनु धावसि) इनमें से एक का अनुधावन करता है। तू (भगः असि) ऐश्वर्यवान् है। तू (दानस्य दाता असि) दान योग्य धन का देने वाला है। तू (मघवद्भयः मघवा असि) धनवानों के भी धनों का स्वामी है। इत्येकविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
विषय
मघवद्भ्यः मघवा
पदार्थ
हे सोम ! तू (त्री) = तीनों (पवित्रा) = पवित्र (विततानि) = विस्तृत शक्तियों वाले शरीर, मन व बुद्धि को (समेषि) = सम्यक् प्राप्त होता है । सोमरक्षण से शरीर में उचित अग्नितत्त्व, मन में विद्युत् तत्त्व व मस्तिष्क में सूर्य की स्थिति होती है । (पूयमानः) = पवित्र किया जाता हुआ तू (एकम्) = उस अद्वितीय प्रभु की ओर (अनुधावसि) = क्रमशः गतिवाला होता है। सोमरक्षण से हम प्रभु के सान्निध्य को प्राप्त करते हैं। हे सोम ! तू (भगः असि) = वस्तुतः भजनीय सेवनीय है । (दात्रस्य) = देव धन का तू दाता (असि) = देनेवाला है। हे (इन्दो) = सोम ! तू (मघवद्भूयः) = ऐश्वर्य वालों से (मघवा) = ऐश्वर्यवाला है, अर्थात् सर्वाधिक ऐश्वर्यवाला है। सुरक्षित सोम ही सब कोशों को उस उस ऐश्वर्य से युक्त करता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम शरीर, मन व बुद्धि को पवित्र करता है, हमें प्रभु की ओर ले चलता है। यह सेवनीय है, सब देव धनों को देनेवाला है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Hey Indu, spirit of beauty, power and glory of divinity, you move and bless three holy expansive loved favourites of your choice and, pure and purifying, you hasten to them one by one since you are the wealth and power for the mighty, you are the giver for the generous, and you are the glory for the glorious.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा सर्व ऐश्वर्याचा स्वामी आहे व सर्व श्रीमंतापेक्षा श्रीमंत आहे. त्यासाठी त्याच्याच कृपेने सर्व ऐश्वर्याची प्राप्ती होते अन्यथा नाही. ॥५५॥
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