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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 38
    ऋषिः - पराशरः शाक्त्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स पु॑ना॒न उप॒ सूरे॒ न धातोभे अ॑प्रा॒ रोद॑सी॒ वि ष आ॑वः । प्रि॒या चि॒द्यस्य॑ प्रिय॒सास॑ ऊ॒ती स तू धनं॑ का॒रिणे॒ न प्र यं॑सत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । पु॒ना॒नः । उप॑ । सूरे॑ । न । धाता॑ । उ॒भे इति॑ । अ॒प्राः॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । वि । सः । आ॒व॒रित्या॑वः । प्रि॒या । चि॒त् । यस्य॑ । प्रि॒य॒सासः॑ । ऊ॒ती । सः । तु । धन॑म् । का॒रिणे॑ । न । प्र । यं॒स॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स पुनान उप सूरे न धातोभे अप्रा रोदसी वि ष आवः । प्रिया चिद्यस्य प्रियसास ऊती स तू धनं कारिणे न प्र यंसत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः । पुनानः । उप । सूरे । न । धाता । उभे इति । अप्राः । रोदसी इति । वि । सः । आवरित्यावः । प्रिया । चित् । यस्य । प्रियसासः । ऊती । सः । तु । धनम् । कारिणे । न । प्र । यंसत् ॥ ९.९७.३८

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 38
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पुनानः) सर्वं पावयन् (सः, सोमः) स परमात्मा (व्यावः) अज्ञानं नाशयति (न) यथा (उभे, रोदसी) द्यावापृथिव्योर्मध्ये (सूरे) सूर्ये आश्रयभूते (धाता) कालो निवसति, एवं हि सर्वे लोकाः परमात्मानमाश्रित्य तिष्ठन्ति, (आप्राः) स च परमात्मा सर्वत्र पूरितः (चित्) अथ च (यस्य, प्रियाः) यस्य प्रेमधाराः (प्रियसासः) अत्यन्तप्रियाः (ऊती) जगद्रक्षायै प्रचारं लभन्ते (सः, सोमः) स परमात्मा (धनं) ऐश्वर्यं मह्यं ददातु (न) यथा (कारिणे) धनस्वामी स्वभृत्याय (प्र, यंसत्) ददाति एवं परमात्मा मह्यमपि प्रयच्छतु ॥३८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पुनानः) सब को पवित्र करता हुआ (स सोमः) वह उक्त परमात्मा अज्ञानों का (व्यावः) नाश करता है, (न) जिस प्रकार (उभे रोदसी) द्युलोक और पृथिवीलोक के मध्य में (सूरे) सूर्य्य के आश्रित (धाता) काल निवास करता है, इसी प्रकार सम्पूर्ण लोक- लोकान्तर परमात्मा को आश्रय कर स्थिर होते हैं, (आप्राः) वह परमात्मा सर्वत्र व्याप्त है (चित्) और (प्रियाः) जिस परमात्मा के प्रेममय धाराएँ (प्रियसासः) जो अत्यन्त प्रिय हैं (ऊती) जगद्रक्षा के लिये प्रचार पाती हैं, (सः) वह (सोमः) परमात्मा हमको (धनं) ऐश्वर्य्य प्रदान करे (न) जैसे कि धन का स्वामी (कारिणे) अपने भृत्य के लिये (धनम्) धन को (प्रयंसत्) देता है, इसी प्रकार परमात्मा हमको धन प्रदान करे ॥३८॥

    भावार्थ

    अविद्यान्धकार को परमात्मरूपी सूर्य्य ही निवृत्त करता है, भौतिक प्रकाश उस अन्धकार के निवृत्त करने के लिये समर्थ नहीं होता ॥३८॥

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    विषय

    ऐश्वर्य पदाधिकारी के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (सः) वह शासक (धाता) प्रजा का पालक होकर (सूरे न धाता) सूर्य के अधीन उसके ही तेज को धारण करने वाले चन्द्र के तुल्य, सूर्य के सदृश ज्ञान-प्रकाश वा तेजस्वी पुरुष के अधीन होकर (उप पुनानः) कार्य करता हुआ (उभे रोदसी आ अप्राः) दोनों लोकों को भली प्रकार प्रकाश से पूर्ण करे। (यस्य प्रियसासः ऊती) जिसके सब प्रिय होकर रक्षा के लिये उद्यत हों (सः प्रिया आवः) वह भी सब के प्रिय धनों, कर्मों, गुणों को भी प्रकट करे। और (सः) वह (कारिणे न धनं प्र यंसत्) कर्मकर श्रमी को मज़दूरी के तुल्य ही अपने अधीनों को धन प्रदान करे।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    धनं कारिणे न, प्रयंसत्

    पदार्थ

    (स:) = वह सोम [वीर्य] (पुनानः) = पवित्र किया जाता हुआ (नः) = हमें (सूरे उपधाता) = ज्ञान सूर्य के समीप धारण करनेवाला होता है । (उभे रोदसी) = दोनों द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को (आ अप्राः) = पूरित करता है, मस्तिष्क को ज्ञान से तथा शरीर को शक्ति से । (सः) = वह सोम (वि आवः) = हमारे जीवन में से ज्ञानसूर्योदय के द्वारा, अन्धकारों को दूर करनेवाला होता है । (यस्य) = जिस सोम की (प्रिया चित्) = निश्चय से प्रिय धारायें (प्रियसासः) = प्रीणित करनेवाली होती हैं, और (ऊती) = रक्षण के लिये होते हैं । (सः) = वह सोम (धनं प्रयंसत्) = धन को ये इस प्रकार दे (न) = जैसे कि (कारिणे) = कर्म करनेवाले के लिये मजदूरी के रूप में धन को देते हैं । हम सोम का रक्षण करने के लिये काम श्रम करें, सोम हम श्रमिकों को पारिश्रमिक के रूप में धन को देगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम हमारे जीवन में ज्ञान सूर्य का उदय करता है। शरीर व मस्तिष्क का पूरण करता है, अन्धकार को दूर करता है, हमें आवश्यक धनों को प्राप्त कराता है ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That Soma, pure and purifying, creator and sustainer, pervades and fills the heaven and earth as it abides in the sun and destroys darkness and ignorance. Dearer than dear are its powers for our protection for sure. May Soma give us wealth, honour and excellence as one would give wealth to the artist.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अविद्यान्धकाराला परमात्मरूपी सूर्यच निवृत्त करतो. भौतिक प्रकाश त्या अंध:काराला निवृत्त करण्यासाठी समर्थ नसतो. ॥३८॥

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