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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 97/ मन्त्र 40
    ऋषिः - पराशरः शाक्त्त्यः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अक्रा॑न्त्समु॒द्रः प्र॑थ॒मे विध॑र्मञ्ज॒नय॑न्प्र॒जा भुव॑नस्य॒ राजा॑ । वृषा॑ प॒वित्रे॒ अधि॒ सानो॒ अव्ये॑ बृ॒हत्सोमो॑ वावृधे सुवा॒न इन्दु॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अक्रा॑न् । स॒मु॒द्रः । प्र॒थ॒मे । विऽध॑र्मन् । ज॒नय॑न् । प्र॒ऽजाः । भुव॑नस्य । राजा॑ । वृषा॑ । प॒वित्रे॑ । अधि॑ । सानौ॑ । अव्ये॑ । बृ॒हत् । सोमः॑ । व॒वृ॒धे॒ । सु॒वा॒नः । इन्दुः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अक्रान्त्समुद्रः प्रथमे विधर्मञ्जनयन्प्रजा भुवनस्य राजा । वृषा पवित्रे अधि सानो अव्ये बृहत्सोमो वावृधे सुवान इन्दु: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अक्रान् । समुद्रः । प्रथमे । विऽधर्मन् । जनयन् । प्रऽजाः । भुवनस्य । राजा । वृषा । पवित्रे । अधि । सानौ । अव्ये । बृहत् । सोमः । ववृधे । सुवानः । इन्दुः ॥ ९.९७.४०

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 97; मन्त्र » 40
    अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (समुद्रः) सम्यग्भूतद्रवणाधारः परमात्मा (भुवनस्य) लोकस्य (राजा) स्वामी (प्रथमे, विधर्मन्) नानाधर्मवति प्रथमान्तरिक्षे (प्रजाः, जनयन्) प्रजा उत्पादयन् (अक्रान्) सर्वोपरि विराजते (इन्दुः) स प्रकाशस्वरूपः (सोमः) परमात्मा (सुवानः) सर्वस्य जनयिता (बृहत्) सर्वमहान् (वृषा) कामनाप्रदः (अव्ये, सानौ) रक्षायुक्ते ब्रह्माण्डस्य उच्चशिखरे (पवित्रे) शुद्धे (अधि, वावृधे) सर्वव्यापकरूपेण विराजते ॥४०॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (समुद्रः) “सम्यग्द्रवन्ति गच्छन्ति भूतानि यस्मात् स समुद्रः परमात्मा”। उससे सब भूतों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होता है, इसलिये उसका नाम समुद्र है। वह (भुवनस्य) सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों का (राजा) स्वामी परमात्मा (प्रथमे) पहिला (विधर्मन्) जो नाना प्रकार के धर्म्मोंवाला अन्तरिक्ष है, उसमें (प्रजाः) प्रजाओं को (जनयन्) उत्पन्न करता हुआ (अक्रान्) सर्वोपरि होकर विराजमान है। (इन्दुः) वह प्रकाशस्वरूप परमात्मा (सुवानः) सर्वोत्पादक (सोमः) सोमगुणसम्पन्न (बृहत्) जो सबसे बड़ा है, (वृषा) सब कामनाओं का देनेवाला है, वह (अव्ये) रक्षायुक्त (पवित्रे) पवित्र ब्रह्माण्ड के (सानौ) उच्च शिखर में (अधिवावृधे) सर्वव्यापकरूप से विराजमान हो रहा है ॥४०॥

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    विषय

    उपास्य प्रभु का वर्णन।

    भावार्थ

    वह (समुद्रः) समुद्र के समान गंभीर, सब शक्तियों और लोकों का परम आश्रय, (प्रथमे) सर्वश्रेष्ठ (विधर्मन्) विशेष रूप से धारण करने वाले इस अन्तरिक्ष में ही (प्रजाः जनयन्) समस्त प्रजाओं, लोकों को गर्भ से बालकवत् उत्पन्न करता हुआ (अक्रान्) सृष्टि रचना का कार्य करता है। वही (भुवनस्य राजा) समस्त जगत् का राजा है। वह (वृषा) बलवान्, सर्व सुखों का वर्षक, वर्धक, सेचक, (पवित्रे) व्यापक (अध्ये) सर्वरक्षक (सानो) उच्च पद पर विराजता हुआ (सुवानः) जगत् को उत्पन्न करता हुआ (इन्दुः) ऐश्वर्ययुक्त प्रभु (सोमः) ‘सोम’ (बृहत्) महान् है, वही (ववृधे) सब से बड़ा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः-१—३ वसिष्ठः। ४-६ इन्द्रप्रमतिर्वासिष्ठः। ७–९ वृषगणो वासिष्ठः। १०–१२ मन्युर्वासिष्ठः। १३-१५ उपमन्युर्वासिष्ठः। १६-१८ व्याघ्रपाद्वासिष्ठः। १९-२१ शक्तिर्वासिष्ठः। २२–२४ कर्णश्रुद्वासिष्ठः। २५—२७ मृळीको वासिष्ठः। २८–३० वसुक्रो वासिष्ठः। ३१–४४ पराशरः। ४५–५८ कुत्सः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ६, १०, १२, १४, १५, १९, २१, २५, २६, ३२, ३६, ३८, ३९, ४१, ४६, ५२, ५४, ५६ निचृत् त्रिष्टुप्। २-४, ७, ८, ११, १६, १७, २०, २३, २४, ३३, ४८, ५३ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ९, १३, २२, २७–३०, ३४, ३५, ३७, ४२–४४, ४७, ५७, ५८ त्रिष्टुप्। १८, ४१, ५०, ५१, ५५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ३१, ४९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४० भुरिक् त्रिष्टुप्। अष्टापञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    मुख्य रक्षक 'सोम'

    पदार्थ

    (प्रथमे) = अत्यन्त विस्तृत [प्रथ विस्तारे] (विधर्मन्) = विशिष्ट धारण के कर्म में (समुद्रः) = [स मुद्] आनन्द से युक्त यह सोम (अक्रान्) = अन्य सब वस्तुओं को लाँघ जाता है। सोम के समान कोई अन्य वस्तु धारण करनेवाली नहीं है। यह सोम (प्रजाः जनयन्) = सब प्रजाओं को जन्म देता है, (भुवनस्य राजा) = सम्पूर्ण शरीर-लोक को दीप्त करता है । (वृषा) = यह शक्ति का सेचन करनेवाला सोम (पवित्रे) = पवित्र हृदय वाले पुरुष में (अधि सानो) = समुचित प्रदेश अर्थात् मस्तिष्क रूप द्युलोक में गतिवाला होता है। मस्तिष्क में यह ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है। अव्ये रक्षकों में उत्तम पुरुष में यह (सोमः) = सोम (बृहत् वावृधे) = खूब वृद्धि को प्राप्त करता है। (सुवानः) = उत्पन्न किया जाता हुआ यह सोम (इन्दुः) = हमें शक्तिशाली बनानेवाला होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम ही मुख्य रक्षक है, यही हमारे अंग-प्रत्यंग को दीप्त करनेवाला है। हमें शक्तिशाली बनाता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma, prime cause of the world of existence, unfathomable as ocean, taking on by itself countless causes of existence in the vast vault of space and time, roaring and generating the evolving stars, planets and forms of life, is the ruling power of the universe. Potent and generous, infinite, creative and generative, refulgent Soma pervades the immaculate, sacred and protective universe and on top of it expands it and transcends.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व श्रेष्ठ परमात्मा सर्व भूतांची उत्पत्ती, स्थिती व प्रलय करणारा असून विस्तृत अंतरिक्षात विराजमान आहे. तोच सर्वांच्या कामना पूर्ण करणारा आहे. त्यामुळे तोच उपासना करण्यायोग्य आहे. ॥४०॥

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