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यजुर्वेद अध्याय - 13

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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 1
    ऋषिः - वत्सार ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्ची पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    12

    मयि॑ गृह्णा॒म्यग्रे॑ अ॒ग्निꣳ रा॒यस्पोषा॑य सुप्रजा॒स्त्वाय॑ सु॒वीर्या॑य। मामु॑ दे॒वताः॑ सचन्ताम्॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मयि॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। अग्रे॑। अ॒ग्निम्। रा॒यः। पोषा॑य। सु॒प्र॒जा॒स्त्वायेति॑ सुप्रजाः॒ऽत्वाय॑। सु॒वीर्य्या॒येति॑ सु॒ऽवीर्य्या॑य। माम्। उ॒ इत्यूँ॑। दे॒वताः॑। स॒च॒न्ता॒म् ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मयि गृह्णाम्यग्रे अग्निँ रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्याय । मामु देवताः सचन्ताम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मयि। गृह्णामि। अग्रे। अग्निम्। रायः। पोषाय। सुप्रजास्त्वायेति सुप्रजाःऽत्वाय। सुवीर्य्यायेति सुऽवीर्य्याय। माम्। उ इत्यूँ। देवताः। सचन्ताम्॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैरादिमाऽवस्थायां किं किं कार्य्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे कुमाराः कुमार्य्यश्च! यथाऽहमग्रे मयि रायस्पोषाय सुप्रजास्त्वाय सुवीर्य्यायाग्निं गृह्णामि, येन मामु देवताः सचन्ताम्, तथा यूयमपि कुरुत॥१॥

    पदार्थः

    (मयि) आत्मनि (गृह्णामि) (अग्रे) (अग्निम्) परमविद्वांसम् (रायः) विज्ञानादिधनस्य (पोषाय) पुष्टये (सुप्रजास्त्वाय) शोभनाश्च ताः प्रजाः सुप्रजास्तासां भावाय (सुवीर्य्याय) आरोग्येण सुष्ठु पराक्रमाय (माम्) (उ) (देवताः) दिव्या विद्वांसो गुणा वा (सचन्ताम्) समवयन्तु। [अयं मन्त्रः शत॰७.४.१.२ व्याख्यातः]॥१॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्याणामिदं समुचितमस्ति ब्रह्मचर्यकुमारावस्थायां वेदाद्यध्ययनेन पदार्थविद्यां, ब्रह्मकर्म, ब्रह्मोपासनां, ब्रह्मज्ञानं स्वीकुर्युर्येन दिव्यान् गुणानाप्तान् विदुषश्च प्राप्योत्तमश्रीप्रजापराक्रमान् प्राप्नुयुरिति॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब तेरहवें अध्याय का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को पहिली अवस्था में क्या-क्या करना चाहिये, यह विषय कहा है॥

    पदार्थ

    हे कुमार वा कुमारियो! जैसे मैं (अग्रे) पहिले (मयि) मुझ में (रायः) विज्ञान आदि धन की (पोषाय) पुष्टि (सुप्रजास्त्वाय) सुन्दर प्रजा होने के लिये और (सुवीर्य्याय) रोगरहित सुन्दर पराक्रम होने के अर्थ (अग्निम्) उत्तम विद्वान् को (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ, जिससे (माम्) मुझ को (उ) ही (देवताः) उत्तम विद्वान् वा उत्तम गुण (सचन्ताम्) मिलें, वैसे तुम लोग भी करो॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को यह उचित है कि ब्रह्मचर्य्ययुक्त कुमारावस्था में वेदादि शास्त्रों के पढ़ने से पदार्थविद्या, उत्तमकर्म और ईश्वर की उपासना तथा ब्रह्मज्ञान को स्वीकार करें, जिससे श्रेष्ठ गुण और आप्त विद्वानों को प्राप्त होके उत्तम धन, सन्तानों और पराक्रम को प्राप्त होवें॥१॥

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    विषय

    उत्तम विद्वानों के अधीन राजा का रहना ।

    भावार्थ

    ( अग्रे ) सत्र से प्रथम ( मयि ) अपने में, अपने ऊपर नियन्ता रूप में ( अग्निम् ) ज्ञानवान्, विद्वान्, तेजस्वी पुरुष को या परमेश्वर को ( रायस्पोषाय ) धनैश्वर्य समृद्धि के प्राप्त करने के लिये. ( सुप्रजास्त्वाय ) उत्तम प्रजाएं प्राप्त करने के लिये, । सुवीर्याय ) और उत्तम वीर्य, बल प्राप्त करने के लिये ( गृहणामि ) मैं स्वीकार करता हूं। जिसके अनुग्रह से ( देवताः) उत्तम विद्वान् या उत्तम गुण ( माम् उ सचन्ताम् ) मुझे प्राप्त हों। राजा अपने भी ऊपर विद्वान्, पुरोहित, ज्ञानवान् पुरुष को, ऐश्वर्य वृद्धि, उत्तम प्रजाओं, बल वृद्धि के लिये नियुक्त करें। इसी प्रकार अभी प्रथम अपने ऊपर उपदेशयद गुरु आचार्य रूप अग्नि को रखकर ( राय: पोपाय ) उत्तम गुणों की पुष्टि वीर्यलाभ, ब्रह्मचर्य और उत्तम सन्तान के लिये रक्खें ॥ शत० ७ । ४ । १ । २ ॥

    टिप्पणी

    अथातः पुष्करपर्णाद्यपधानम् ॥ ककुप् । सर्वा० । वस्सार ऋषिः द० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । आर्ची पंक्तिः ककुम् वा । पञ्चमः स्वरः ॥

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    विषय

    प्रभु का ग्रहण

    पदार्थ

    बारहवें अध्याय की समाप्ति पर प्रभु का स्मरण करते हुए कहा गया था कि ('सम्राडेको विराजति') = वह प्रभु ही सम्राट् हैं, अद्वितीय हैं, सारे संसार का शासन करते हैं। उसी प्रभु का उपासन करता हुआ प्रभु-भक्त कहता है कि मैं (अग्रे) = सबसे पहले (मयि) = अपने अन्दर (अग्निं गृह्णामि) = सब उन्नतियों के साधक प्रभु का ग्रहण करता हूँ। मेरी सर्वोपरि इच्छा यही होती है कि मैं प्रभु को अपने अन्दर धारण कर सकूँ। २. (रायस्पोषाय) = धन के पोषण के लिए मैं प्रभु को धारण करता हूँ। वे प्रभु ही लक्ष्मी पति हैं- माधव हैं। प्रभु को धारण करने से मैं भी लक्ष्मी को प्राप्त करता हूँ और वस्तुतः प्रभु अपने भक्तों के योगक्षेम का तो अवश्य ध्यान करते ही हैं । ३. (सुप्रजास्त्वाय) = उत्तम प्रजावाला होने के लिए मैं प्रभु का धारण करता हूँ। प्रभु के धारण से सब अशुभवृत्तियाँ दूर हो जाती हैं और परिणामतः पवित्र हृदयोंवाले पति पत्नी उत्तम सन्तानों को जन्म देते हैं। ४. (सुवीर्याय) = उत्तम वीर्य के लिए मैं प्रभु का धारण करता हूँ। प्रभु का धारण मुझे वासनाशून्य बनाता है और इस वासनाशून्यता के परिणामरूप मैं उत्तम वीर्यवाला बनता हूँ। इस उत्तम वीर्यवाला होने से मैं प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'वत्सार' बनता हूँ। सुरक्षित किया है सारभूत शक्ति को जिसने । ५. मैं इस वीर्य - रक्षा को इसलिए चाहता हूँ कि (माम्) = मुझे (उ) = निश्चय से (देवताः) = सब दिव्य गुण (सचन्ताम्) = प्राप्त हों । प्रभु महादेव हैं। प्रभु के धारण से अन्य देवों का धारण तो हो ही जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - यदि हम अपने में प्रभु को धारण करेंगे तो १. हम धन का पोषण करनेवाले होंगे २. हमारी सन्तान उत्तम होगी ३. हम उत्तम वीर्य का पोषण करेंगे ४. दिव्य गुणों के धारणवाले होंगे।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी युवावस्थेतच ब्रह्मचर्याचे पालन करून वेदादी शास्त्राचे अध्ययन करावे व पदार्थ विद्या, उत्तम कर्म, ईश्वराची उपासना आणि ब्रह्मज्ञान यांचा अंगीकार करावा. ज्यामुळे श्रेष्ठ गुण, विद्वानांची संगती, उत्तम धन, संतान व पराक्रम यांची प्राप्ती होईल.

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    विषय

    आता तेराव्या अध्यायाचा आरंभ होत आहे. या अध्यायाच्या पहिल्या मंत्रात सांगितले आहे की मनुष्यांनी प्रथम अवस्थेत (ब्रह्मचर्य-आश्रमात) काय केले पाहिजे-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (एक विद्वान बालक-बालिका वा कुमार-कुमारींना म्हणत आहे) हे कुमार मुलांनो अथवा कुमारी मुलींनो ज्याप्रमाणे मी (अग्ने) आधी (तुमच्यापूर्वी) (मयि) स्वत:च्या कल्याणाकरिता (राय:) तसेच विज्ञान आदी धनाच्या (पोषाय) प्राप्ती व वृद्धीसाठी आणि (सप्रजास्त्वाय) उत्तम संतान उत्पन्न होण्यासाठी एका विद्वानाला निवडले आहे) शिवाय (सुवीर्य्याय) नीरोग राहण्यासाठी आणि पराक्रमी होण्यासाठी (अग्निम्‌) त्या उत्तम विद्वानाला (गृह्णामि) निवडले आहे. (त्याच्याकडून शिक्षण घेत आहे) की ज्यामुळे (माम्‌) मला (उ) निश्‍चयाने (देवता:) उत्तम गुणांची (सचन्ताम्‌) प्राप्ती होईल, त्याप्रमाणे तुम्ही देखील करा (वरील हेतूंसाठी तुम्ही देखील योग्य विद्वान गुरु निवडा) ॥1॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. मनुष्यांकरिता हे उचित आहे की त्यांनी कुमारवयात ब्रह्मचर्य-पालन करून वेदादी शास्त्रांचे अध्यमन करावे, पदार्थविद्या शिकून उत्तम कर्म करीत ईश्‍वराची उपासना करावी आणि ब्रह्मज्ञानी व्हावे. त्यामुळे त्यांना श्रेष्ठ गुण आणि आप्त विद्वान मिळतील आणि पुढे (विवाहानंतर उत्तम संतान, ऐश्‍वर्य आणि पराक्रम यांची प्राप्ती होईल ॥1॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    I realise within me God first of all, for increase of my knowledge, good offspring and manly strength. So may noble virtues wait upon me.

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    Meaning

    First of all I dedicate my mind and soul to the Lord Almighty, Agni, lord of light and life, power and prosperity, and I instal the yajna-fire in my home for the gifts of vigour and valour, wealth and prosperity and a noble family. May all the divine powers, for sure, favour and bless me. (Just as a house-holder or a student is dedicated to Agni, the Lord Almighty, and to agni, the yajna-fire, so too should he/she be dedicated to the agnis among the community, leading men and women of knowledge, wisdom and virtue who have specialised in various fields of knowledge and development. )

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    Translation

    First of all I take the fire divine in me, so that I may get plenty of riches, good progeny and good manly power. May the bounties of Nature also favour me. (1)

    Notes

    Agre, first of all. Agnii mayi grhnàmi, I take the fire in myself. This expression may be interpreted in several ways. I accummulate energy within myself; or 1 arouse enthusiasm within me, etc. Rayasposaya, धनस्य पोषाय, for plenty of riches. Suprajastvaya, so that my progeny may be good. Mamu, मां उ' here means also. Devatàs also favour me.

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    बंगाली (1)

    विषय

    ॥ ও৩ম্ ॥
    অথ ত্রয়োদশাऽধ্যায়ারম্ভঃ
    ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥
    মনুষ্যৈরাদিমাऽবস্থায়াং কিং কিং কার্য়্যমিত্যাহ ॥
    এখন ত্রয়োদশ অধ্যায়ের প্রারম্ভ, উহার প্রথম মন্ত্রে মনুষ্যদিগের প্রথম অবস্থায় কী কী করা উচিত এই বিষয় বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে কুমার বা কুমারীগণ ! যেমন আমি (অগ্রে) প্রথমে (ময়ি) আমাতে (রায়ঃ) বিজ্ঞানাদি ধনের (পোষায়) পুষ্টি (সুপ্রজাস্ত্বায়) সুন্দর প্রজা হওয়ার জন্য এবং (সুবীর্য়্যায়) রোগরহিত সুন্দর পরাক্রম হওয়ার জন্য (অগ্নিম্) উত্তম বিদ্বান্কে (গৃহ্নামি) গ্রহণ করি যাহাতে (মাম্) আমাকে (উ)(দেবতাঃ) উত্তম বিদ্বান্ বা উত্তমগুণ (সচন্তাম্) প্রাপ্ত হউক সেইরূপ তোমরাও কর ॥ ১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, ব্রহ্মচর্য্যযুক্ত কুমারাবস্থায় বেদাদি শাস্ত্র পড়িয়া পদার্থবিদ্যা, উত্তম কর্ম এবং ঈশ্বরের উপাসনা তথা ব্রহ্মজ্ঞানকে স্বীকার করিবে । যদ্দ্বারা শ্রেষ্ঠগুণ এবং আপ্ত বিদ্বান্দিগকে প্রাপ্ত হইয়া উত্তম ধন, সন্তান ও পরাক্রম প্রাপ্ত হইবে ॥ ১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    ময়ি॑ গৃহ্ণা॒ম্যগ্রে॑ অ॒গ্নিꣳ রা॒য়স্পোষা॑য় সুপ্রজা॒স্ত্বায়॑ সু॒বীর্য়া॑য় ।
    মামু॑ দে॒বতাঃ॑ সচন্তাম্ ॥ ১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    তত্র ময়ি গৃহ্ণামীত্যাদ্যস্য বৎসার ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । আর্চী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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