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यजुर्वेद अध्याय - 13

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  • यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 56
    ऋषिः - उशना ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - निचृदतिधृतिः स्वरः - षड्जः
    4

    अ॒यं प॒श्चाद् वि॒श्वव्य॑चा॒स्तस्य॒ चक्षु॑र्वै॒श्वव्यच॒सं व॒र्षाश्चा॑क्षु॒ष्यो जग॑ती वा॒र्षी जग॑त्या॒ऽ ऋक्स॑म॒मृक्स॑माच्छु॒क्रः शु॒क्रात् स॑प्तद॒शः स॑प्तद॒शाद् वै॑रू॒पं ज॒मद॑ग्नि॒र्ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्वया॒ चक्षु॑र्गृह्णामि प्र॒जाभ्यः॑॥५६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम्। प॒श्चात्। वि॒श्वव्य॑चा॒ इति॑ वि॒श्वऽव्य॑चाः। तस्य॑। चक्षुः॑। वै॒श्व॒व्य॒च॒समिति॑ वैश्वऽव्य॒च॒सम्। व॒र्षाः। चा॒क्षु॒ष्यः᳖। जग॑ती। वा॒र्षी। जग॑त्याः। ऋक्स॑म॒मित्यृक्ऽस॑मम्। ऋक्स॑मा॒दित्यृक्ऽस॑मात्। शु॒क्रः। शु॒क्रात्। स॒प्त॒द॒श इति॑ सप्तऽद॒शः। स॒प्त॒द॒शादिति॑ सप्तऽद॒शात्। वै॒रू॒पम्। ज॒मद॑ग्नि॒रिति॑ ज॒मत्ऽअ॑ग्निः। ऋषिः॑। प्र॒जाप॑तिगृहीत॒येति॑ प्र॒जाप॑तिऽगृहीतया। त्वया॑। चक्षुः॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑ ॥५६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयम्पश्चाद्विश्वव्यचास्तस्य चक्षुर्वैश्वव्यचसँवर्षाश्चाक्षुष्यः जगती वार्षी जगत्याऽऋक्सममृक्समाच्छुक्रः शुक्रात्सप्तदशः सप्तदशाद्वैरूपञ्जमदग्निरृषिः प्रजापतिगृहीतया त्वया चक्षुर्गृह्णामि प्रजाभ्यः॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। पश्चात्। विश्वव्यचा इति विश्वऽव्यचाः। तस्य। चक्षुः। वैश्वव्यचसमिति वैश्वऽव्यचसम्। वर्षाः। चाक्षुष्यः। जगती। वार्षी। जगत्याः। ऋक्सममित्यृक्ऽसमम्। ऋक्समादित्यृक्ऽसमात्। शुक्रः। शुक्रात्। सप्तदश इति सप्तऽदशः। सप्तदशादिति सप्तऽदशात्। वैरूपम्। जमदग्निरिति जमत्ऽअग्निः। ऋषिः। प्रजापतिगृहीतयेति प्रजापतिऽगृहीतया। त्वया। चक्षुः। गृह्णामि। प्रजाभ्य इति प्रऽजाभ्यः॥५६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 13; मन्त्र » 56
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ स्त्रीपुरुषौ मिथः कथमाचरेतामित्याह॥

    अन्वयः

    हे वरानने! यथाऽयमादित्य इव विद्वान् विश्वव्यचाः सन् पश्चादादित्यस्तस्य वैश्वव्यचसं चक्षुश्चाक्षुष्यो वर्षा वार्षी जगती जगत्या ऋक्सममृक्समाच्छुक्रः शुक्रात् सप्तदशः सप्तदशाद् वैरूपं यथा च जमदग्निर्ऋषिः प्रजापतिगृहीतया सह प्रजाभ्यश्चक्षुर्गृह्णाति तथाऽहं त्वया साकं संसाराद् बलं गृह्णामि॥५६॥

    पदार्थः

    (अयम्) आदित्यः (पश्चात्) पश्चिमायां दिशि वर्त्तमानः (विश्वव्यचाः) विश्वं व्यचति प्रकाशेनाभिव्याप्य प्रकटयति सः (तस्य) सूर्यस्य (चक्षुः) नयनम् (वैश्वव्यचसम्) प्रकाशकम् (वर्षाः) यासु मेघा वर्षन्ति ताः (चाक्षुष्यः) चक्षुष इमा दर्शनीयाः (जगती) जगद्गता (वार्षी) वर्षाणां व्याख्यात्री (जगत्याः) (ऋक्समम्) ऋचः सनन्ति संभजन्ति येन तद् ऋक्समम् (ऋक्समात्) (शुक्रः) पराक्रमः (शुक्रात्) वीर्य्यात् (सप्तदशः) सप्तदशानां पूरकः (सप्तदशात्) (वैरूपम्) विविधानि रूपाणि यस्मात् तस्येदम् (जमदग्निः) प्रज्वलिताग्निर्नयनम् (ऋषिः) रूपप्रापकः (प्रजापतिगृहीतया) (त्वया) (चक्षुः) (गृह्णामि) (प्रजाभ्यः)॥५६॥

    भावार्थः

    दम्पतिभ्यां सामवेदाध्ययनेन सूर्यादिप्रसिद्धं जगदर्थतो विज्ञाय सर्वस्याः सृष्टेः सुदर्शनचरित्रे संग्राह्ये॥५६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब स्त्री पुरुष आपस में कैसा आचरण करें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे उत्तम मुखवाली स्त्री! जैसे (अयम्) यह सूर्य्य के समान विद्वान् (विश्वव्यचाः) सब संसार को चारों ओर के प्रकाश से व्यापक होकर प्रकट करता (पश्चात्) पश्चिम दिशा में वर्त्तमान (तस्य) उस सूर्य्य का (वैश्वव्यचसम्) प्रकाशक किरणरूप (चक्षुः) नेत्र (चाक्षुष्यः) नेत्र से देखने योग्य (वर्षाः) जिस समय मेघ वर्षते हैं, वह वर्षा ऋतु (वार्षी) वर्षा ऋतु के व्याख्यान वाला (जगती) संसार में प्रसिद्ध जगती छन्द (जगत्याः) जगती छन्द से (ऋक्समम्) ऋचाओं के सेवन का हेतु विज्ञान (ऋक्समात्) उस विज्ञान से (शुक्रः) पराक्रम (शुक्रात्) पराक्रम से (सप्तदशः) सत्रह तत्त्वों का पूरक विज्ञान (सप्तदशात्) उस विज्ञान से (वैरूपम्) अनेक रूपों का हेतु जगत् का ज्ञान और जैसे (जमदग्निः) प्रकाशस्वरूप (ऋषिः) रूप का प्राप्त कराने हारा नेत्र (प्रजापतिगृहीतया) सन्तानरक्षक पति ने ग्रहण की हुई विद्यायुक्त स्त्री के साथ (प्रजाभ्यः) प्रजाओं के लिये तेरे साथ (चक्षुः) विद्यारूपी नेत्रों का ग्रहण करता है, वैसे मैं तेरे साथ संसार से बल को (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ॥५६॥

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुषों को चाहिये कि सामवेद के पढ़ने से सूर्य आदि प्रसिद्ध जगत् को स्वभाव से जान के सब सृष्टि के गुणों के दृष्टान्त से अच्छा देखें और चरित्र ग्रहण करें॥५६॥

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    विषय

    दिशा भेद से प्राण भेद से, और ऋतुभेद से राजा, आत्मा और सूर्य संवत्सर, बलों विद्वानों और यज्ञागों के अनुरूप राष्ट्रागों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( अयम् ) यह प्रजापति ( पश्चात् ) पश्चिम दिशा में ( विश्व- व्यचा: ) तेज द्वारा समस्त विश्व में फैलने वाले सूर्य के समान है (अस्य) उसका ( चक्षुः ) चक्षु भी ( वैश्वव्यचम् ) विश्व में व्यापक सूर्य के आकाश से जिस प्रकार पुरुष की आँख उत्पन्न होती है उसी प्रकार प्रजापालक परमेश्वर की भी चक्षु सूर्य की बनी हुई है। अर्थात् सूर्य ही अलंकार रूप से ईश्वर की चक्षु है । ( वर्षा : चाक्षुष्यः ) जैसे आंखों से प्रेम-अश्रु बहते हैं उसी प्रकार मानो ये समस्त वर्षाएं सूर्य से उत्पन्न होकर परमेश्वर की से बहते हैं । और राजा के ज्ञानवान् पुरुष ही चक्षु हैं उनके द्वारा चक्षु ही समस्त ऐश्वयों की वृष्टि होती है । ( जगती वार्षी ) यह समस्त सृष्टि वर्षा से ही उत्पन्न होती है । इसी प्रकार राजा के राज्य में सब कारबार विद्वानों द्वारा उत्पादित ऐश्वयों द्वारा ही चलते हैं । ( जगत्याः ऋक् समम् ) जगती छन्द से जिस प्रकार 'ऋकसम' नाम साम की उत्पत्ति है और जगत् की रचना देख कर ज्ञान की प्राप्ति होती है । ( ऋक् समात् शुक्रः ) ऋक् सम नामक साम से जैसे शुक्र 'ग्रह' उत्पन्न होता है । और ज्ञान प्राप्ति के बाद वीर्य शुद्ध बल, उत्पन्न होता है। और जिस प्रकार, ऋक् अर्थात् स्त्री का साम पति है और पति पत्नी के मिलने पर वीर्य उत्पन्न होता है, उसी प्रकार राष्ट्र में ऋक्-सम प्रजा को समान रूप से प्राप्त करके ही राजा को बल प्राप्त होता | ( शुक्रात् सप्तदशः) शुक्र ग्रह से यज्ञ में 'सप्तदश' स्तोम की उत्पत्ति होती | अध्यात्म में वीर्य से सप्तदश नाम आत्मा के शरीर उत्पत्ति होती है । राजा प्रजा के बल से १७ अंगों वाले सप्तदशाङ्ग राज्य और उसपर स्थित राजा की उत्पत्ति होती है। (सप्तदशात् वैरूपम्) सप्तदश नाम आत्मा से ही रूप अर्थात् विविध जीवसृष्टि का प्रादुर्भाव होता है। साम में सप्तदश स्तोम से वैरूप नाम 'पृष्ठ' का उदय होता है । राष्ट्र में, सप्त दश अङ्गों से युक्त राजा के द्वारा राज्य की विविध रचना होती है । ( जमदग्निः ऋषिः ) यह चक्षु सूर्य ही जमदग्नि है, वही सब का द्रष्टा है । परमेश्वर उसी द्वारा जगत् को देखता और उसी से देख कर उनको वश करता है। इस शरीर में चक्षु वही जमदग्नि है। राष्ट्र में सर्वोपरि द्रष्टा पुरुष ही जगमदसि है । ( प्रजापति गृहीतया त्वया ) प्रजा के पालक परमेश्वर द्वारा स्वीकार की गई पत्नी के समान तुझ निर्मात्री शक्ति से, एवं देह में आत्मा द्वारा प्राप्त चितिशक्ति से, राष्ट्र में राज्य शक्ति से मैं ( प्रजाभ्यः चक्षुः ) प्रजाओं को चक्षु को (ग्रहणामि) अपने वंश करता हूं । शत० ८।१।२।१-३॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रजापतिर्देवता । निचृद्धृतिः । षड्जः ॥

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    विषय

    आदित्य [पश्चात् विश्वव्यचाः ] चक्षु - ग्रहण - जमदग्नि

    पदार्थ

    १. (अयम्) = यह (पश्चात् विश्वव्यचा:) = [ असौ वादित्यो विश्वव्यचाः यदाह मैवेष उदेति अथेदं सर्वं व्यचो भवति पश्चादिति एतं प्रत्यञ्चमेदमन्तं पश्यन्ति-श० ८।१।२।१] पूर्व में उदय होकर निरन्तर पश्चिम की ओर चलनेवाला, सम्पूर्ण संसार को व्यक्त करनेवाला सूर्य है। इस सूर्य का ध्यान करके मनुष्य ने भी सदा आगे बढ़ते हुए पीछे न लौटने का पाठ पढ़ना है - इन्द्रियों का प्रत्याहार करना है। २. (तस्य वैश्वव्यचसं चक्षुः) = उस मनुष्य की आँख भी इस सूर्य की सन्तान बनती है। सूर्य की भाँति ही वस्तुओं की प्रकाशक होती है। ३. (चक्षुष्यः वर्षाः) = इसकी चक्षु की सन्तान वर्षा होती है, अर्थात् इसका ज्ञान औरों पर सुखों की वर्षा करनेवाला होता है। ४. (जगती वार्षी) = इसकी ज्ञानवर्षा लोकहित करनेवाली होती है । ५. (जगत्या ऋक्समम्) = इस लोकहित के द्वारा ही [ऋच् स्तुतौ] इसका विज्ञानपूर्वक स्तवन चलता है [ वह साम जो विज्ञान के साथ है 'ऋक्सम्' कहलाता है ]। ६. (ऋक्समात्) = [ऋचः सन्ति सम्भजन्ति येन - द० ] इस विज्ञानपूर्वक स्तवन से ही (शुक्रः) = यह [शुच्] अत्यन्त शुद्ध बनता है। ७. (शुक्रात्) = इस शुद्ध बनने से (सप्तदश:) = यह पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण तथा मन व बुद्धि इन १७ तत्त्वोंवाला होता है। इन सत्रह को यह उत्तम बना पाता है । ९. इस विशिष्ट रूप से ये (जमदग्निर्ऋषि:) = [जमति जगत् पश्यति इति जमद् अङ्गति सर्वत्र गच्छति इति अग्निः] केवल अपने हित को न देखकर सभी के हित को देखनेवाला क्रियाशील तत्त्वद्रष्टा बनता है। १०. यह जमदग्नि पत्नी से कहता है कि प्रजापतिगृहीतया प्रजापति का ग्रहण करनेवाली त्वया तेरे साथ (चक्षुः गृह्णामि) = चक्षु का ग्रहण करता हूँ, जिससे हम (प्रजाभ्यः) = उत्तम सन्तान को प्राप्त करनेवाले हों। संसार में हमारा दृष्टिकोण ठीक हो, हमारा ज्ञान ठीक हो तथा ये चक्षु हमारे वश में हो तो सन्तानों का उत्तम होना स्वाभाविक ही है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम निरन्तर पश्चिम की ओर चलनेवाले सूर्य के समान ज्ञान व प्रकाश के अधिपति हों। अपनी चक्षु को वश में करके उत्तम सन्तानों को प्राप्त करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुषांनी सामवेदाचे अध्ययन करून सूर्य इत्यादी पदार्थांचे गुणधर्म जाणून सर्व सृष्टीतील सर्व पदार्थांचे गुण दर्शविणारे दाखले चांगल्या प्रकारे पाहावेत व आपले चारित्र्य निर्माण करावे.

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    विषय

    पति-पत्नीनी एकमेकाशी कसे आचर करावे, पुढील मंत्रात याविषयी वर्णन केले आहे-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (पती पत्नीस म्हणतो) हे सुंदरवदनी (आयम्‌) हा सूर्य आणि हा विद्वान (विश्‍वव्यचा:) सर्व दिशाने जगाला प्रकाशित करतात व सर्व पदार्थांचे दर्शन घडवितात. (पश्‍चात्‌) पश्‍चिम दिशेत विद्यमान (तस्य) त्या सूर्याची (वैश्‍वव्यचसम्‌) किरणे व सर्वत्र पसरणारा प्रकाश आहे, तो (चक्षु:) नेत्राने (चाक्षष्य:) दर्शनीय आहे (पश्‍चिमेत अस्तावतात जाणाऱ्या सूर्याचा प्रकाश किती रम्य आहे, हे तू पहा) (वर्षा:) ज्या ऋतूत मेघवृष्टी होते, ती वर्षाऋतू, (वार्षी) त्या वर्षाऋतूचे वर्णन करणारा जो (जगती) जगप्रसिद्ध जगती छंद आहे, त्या (जगत्या) जगती छंदात (ऋक्समम्‌) वैदिक ऋचांमधे विज्ञान, विशेषज्ञान सांगितले आहे. त्या (ऋक्‌सामात्‌) विज्ञानाने (शुक्र:) पराक्रम (कार्यशक्ती) (शुक्रात) कार्यशक्तीचे (सप्तदश:) सतरा तत्त्वांचे पूरक विज्ञान. (सप्तदशात्‌) सतरा तत्त्वाने (वैरुपम्‌) अनेकरुप जगाचे ज्ञान प्राप्त होते. ज्याप्रमाणे (जमदग्नि:) प्रज्वलित अग्नी वा प्रकाशाला (ऋषि:) रुप पाहणारे नेत्र चटकन ग्रहण करतात आणि ज्या प्रमाणे (प्रजापतिगृहीतया) संतानाचे रक्षण करणारा एक विद्वान पती आपल्या विद्यावती पत्नीसह (प्रजाभ्य:) आपल्या मुलाबाळांसाठी (चक्षु:) विद्यारुप नेत्र ग्रहण करतो (विद्या प्राप्त करून ती विद्या वा ज्ञान आपल्या संतानाला देतो) त्याप्रमाणे, हे पत्नी, मी तुझ्यासह संसार करायला शक्ती (गृह्णामि) ग्रहण करतो (शक्तिमान होतो) ॥56॥

    भावार्थ

    भावार्थ - स्त्रियांनी व पुरुषांनी सामवेद वाचावा आणि तो वाचून जगातील सूर्य आदी पदार्थांचा स्वभाव जाणावा आणि सृष्टीतील गुण लाभ आदी ओळखून चांगले ते घ्यावे व चरित्र चांगले ठेवावे ॥56॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O wife, this sun rising in the East goes to the west, illuminating the universe. The lustrous rays of the sun are its eyes. The eye enjoys the rainy season. The Jagati verse is the expositor of the rainy season. From Jagati is derived the knowledge of vedic verses. From that knowledge comes prosperity. From prosperity we get the knowledge of seventeen fold powerful soul. From that knowledge comes the knowledge of different phases and objects of the world. The eye makes us receive light. Just as a husband, the guardian of offspring attains to discerning knowledge with his educated wife, so do I with thee gain power from the world.

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    Meaning

    In the west (on the back) this sun is the divine power that illuminates and covers the whole world with light. The offspring of the sun is the light and the vision of the eye. The product of light and heat is the rain. The joy of rain is expressed in the jagati verse. In jagati metre are composed the Rik-samans. From the joy of Rik- Samans is born ‘shukra’, the lustre and vitality of life. From shukra is born the sapta-dasha (seventeen) stoma and the seventeen faculty subtle body. From this seventeen-element living life is born the diversity of living forms, of which the seer and visionary expert is jamadagni, man of light and lustre. Woman of knowledge, virtue and love blest by Prajapati, along with you I receive light and vision for family and the people.

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    Translation

    This on the western side is the Visvavyacas (the allilluminating sun). (1) The offspring of that Visvavyacas is the Caksu (the eye). (2) The offspring of the Caksu is Varsa (the rainy season). (3) The daughter of Varsa is the Jagati metre. (4) From the Jagati, the Rk Saman. (5) From the Rk Ѕаman, the Sukra. (6) From the Sukra, the Saptadasa hymn (of 17 verses). (7) From the Saptadasa hymn, the Vairupa Saman. (8) Jamadagni is the seer. (9) With you taken from the Creator Lord, I secure the Caksu (the eye) for our progeny. (10)

    Notes

    ViSvavyacah, विश्वं विचति उदित: सन् प्रकाशयति य: स:, one that illuminates all the things when it rises; the sun. Pascàt, behind. Also, west. Sukra graha, a certain measure of Soma juice. Jamadagnih, जगत् पश्यन् अंगति सर्वत्र गच्छति , one that moves everywhere looking at the world, that is the eye. चक्षुर्वै जमदग्निर्यदेनेन जगत् पश्यति अथो मनुते पश्यति अथो मनुते:; vision indeed is Jamadagni, as one looks at the world with it and then thinks about it,

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ স্ত্রীপুরুষৌ মিথঃ কথমাচরেতামিত্যাহ ॥
    এখন স্ত্রী-পুরুষ পরস্পর কীরকম আচরণ করিবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে উত্তম মুখযুক্তা স্ত্রী ! যেমন (অয়ম্) এই সূর্য্যের সমান বিদ্বান্ (বিশ্বব্যচাঃ) সকল সংসারকে চতুর্দ্দিকের প্রকাশ দ্বারা ব্যাপক হইয়া প্রকট করে, (পশ্চাৎ) পশ্চিম দিকে বর্ত্তমান (তস্য) সেই সূর্য্যের (বৈশ্বব্যচসম্) প্রকাশক কিরণরূপ (চক্ষুঃ) নেত্র (চাক্ষুষ্যঃ) নেত্র দ্বারা দর্শনীয় (বর্ষাঃ) যে সময় মেঘ বর্ষণ করে সেই বর্ষাঋতু (বার্ষী) বর্ষা ঋতুর ব্যাখ্যাতা (জগতী) সংসারে প্রসিদ্ধ জগতী ছন্দ (জগত্যাঃ) জগতী ছন্দ হইতে (ঋক্সমম্) ঋচাদের সেবন হেতু বিজ্ঞান (ঋক্সমাৎ) সেই বিজ্ঞান হইতে (শুক্রঃ) পরাক্রম (শুক্রাৎ) পরাক্রম হইতে (সপ্তদশঃ) সতের তত্ত্বের পূরক বিজ্ঞান (সপ্তদশাৎ) সেই বিজ্ঞান হইতে (বৈরূপম্) অনেক রূপের হেতু জগতের জ্ঞান এবং যেমন (জমদগ্নিঃ) প্রকাশস্বরূপ (ঋষিঃ) রূপ প্রাপক নেত্র (প্রজাপতিগৃহীতয়া) সন্তানরক্ষক পতি গ্রহণ করা বিদ্যাযুক্ত স্ত্রী সহ (প্রজাভ্যঃ) প্রজাদিগের জন্য (চক্ষুঃ) বিদ্যারূপী নেত্রের গ্রহণ করে সেইরূপ আমি (ত্বয়া) তোমার সঙ্গে সংসার হইতে (গৃহ্নামি) বলকে গ্রহণ করি ॥ ৫৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- স্ত্রী পুরুষদিগের উচিত যে, সামবেদ অধ্যয়ন করিলে সূর্য্যাদি প্রসিদ্ধ জগৎকে স্বভাব দ্বারা জানিয়া সকল সৃষ্টির গুণের দৃষ্টান্ত হইতে ভাল দেখিবে এবং চরিত্র গ্রহণ করিবে ॥ ৫৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒য়ং প॒শ্চাদ্ বি॒শ্বব্য॑চা॒স্তস্য॒ চক্ষু॑র্বৈ॒শ্বব্যচ॒সং ব॒র্ষাশ্চা॑ক্ষু॒ষ্যো᳕ জগ॑তী বা॒র্ষী জগ॑ত্যা॒ऽ ঋক্স॑ম॒মৃক্স॑মাচ্ছু॒ক্রঃ শু॒ক্রাৎ স॑প্তদ॒শঃ স॑প্তদ॒শাদ্ বৈ॑রূ॒পং জ॒মদ॑গ্নি॒র্ঋষিঃ॑ প্র॒জাপ॑তিগৃহীতয়া॒ ত্বয়া॒ চক্ষু॑গৃর্হ্ণামি প্র॒জাভ্যঃ॑ ॥ ৫৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অয়ং পশ্চাদিত্যস্যোশনা ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । নিচৃদতিধৃতিশ্ছন্দঃ ।
    ষড্জঃ স্বরঃ ॥

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