यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 57
ऋषिः - उशना ऋषिः
देवता - प्रजापतिर्देवता
छन्दः - स्वराड्ब्राह्मी त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
4
इ॒दमु॑त्त॒रात् स्व॒स्तस्य॒ श्रोत्र॑ꣳ सौ॒वꣳ श॒रछ्रौ॒त्र्युड्टनु॒ष्टुप् शा॑र॒द्यनु॒ष्टुभ॑ऽ ऐ॒डमै॒डान् म॒न्थी म॒न्थिन॑ऽ एकवि॒ꣳशऽ ए॑कवि॒ꣳशाद् वै॑रा॒जं वि॒श्वामि॑त्र॒ऽ ऋषिः॑ प्र॒जाप॑तिगृहीतया॒ त्वया॒ श्रोत्रं॑ गृह्णामि प्र॒जाभ्यः॑॥५७॥
स्वर सहित पद पाठइ॒दम्। उ॒त्त॒रात्। स्व॒रिति॒ स्वः᳖। तस्य॑। श्रोत्र॑म्। सौ॒वम्। श॒रत्। श्रौ॒त्री। अ॒नु॒ष्टुप्। अ॒नु॒स्तुबित्य॑नु॒ऽस्तुप्। शा॒र॒दी। अ॒नु॒ष्टुभः॑। अ॒नु॒स्तुभ॒ इत्य॑नु॒ऽस्तुभः॑। ऐ॒डम्। ऐ॒डात्। म॒न्थी। म॒न्थिनः॑। ए॒क॒वि॒ꣳश इत्ये॑कऽवि॒ꣳशः। ए॒क॒वि॒ꣳशादित्ये॑ऽकवि॒ꣳशात्। वै॒रा॒जम्। वि॒श्वामि॑त्रः। ऋषिः॑। प्र॒जाप॑तिगृहीत॒येति॑ प्र॒जाप॑तिऽगृहीतया। त्वया॑। श्रोत्र॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑ ॥५७ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इदमुत्तरात्स्वस्तस्य श्रोत्रँ सौवँ शरच्छ्रौत्र्यनुष्टुप्शारद्यनुष्टुभऽऐडमैडान्मन्थी मन्थिनऽएकविँशऽएकविँशाद्वैराजँविश्वामित्रऽऋषिः प्रजापतिगृहीतया त्वया श्रोत्रङ्गृह्णामि प्रजाभ्यः ॥
स्वर रहित पद पाठ
इदम्। उत्तरात्। स्वरिति स्वः। तस्य। श्रोत्रम्। सौवम्। शरत्। श्रौत्री। अनुष्टुप्। अनुस्तुबित्यनुऽस्तुप्। शारदी। अनुष्टुभः। अनुस्तुभ इत्यनुऽस्तुभः। ऐडम्। ऐडात्। मन्थी। मन्थिनः। एकविꣳश इत्येकऽविꣳशः। एकविꣳशादित्येऽकविꣳशात्। वैराजम्। विश्वामित्रः। ऋषिः। प्रजापतिगृहीतयेति प्रजापतिऽगृहीतया। त्वया। श्रोत्रम्। गृह्णामि। प्रजाभ्य इति प्रऽजाभ्यः॥५७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ शरदृतौ कथं वर्त्तितव्यमित्याह॥
अन्वयः
हे सुभगे! यथेदमुत्तरात् स्वस्तस्य सौवं श्रौत्री शरच्छारद्यनुष्टुबनुष्टुभ ऐ[मैडान्मन्थी मन्थिन एकविंश एकविंशाद्वैराजं साम प्राप्तो विश्वामित्र ऋषिश्च प्रजाभ्यः श्रोत्रं गृह्णामि तथा प्रजापतिगृहीतया त्वया सहाहं प्रजाभ्यः श्रोत्रं गृह्णामि॥५७॥
पदार्थः
(इदम्) (उत्तरात्) सर्वेभ्य उत्तरम् (स्वः) सुखसंपादकदिग् रूपम् (तस्य) (श्रोत्रम्) कर्णम् (सौवम्) स्वः सुखस्येदं साधनम् (शरत्) शृणाति येन सा (श्रौत्री) श्रोत्रस्येयं सम्बन्धिनी (अनुष्टुप्) (शारदी) शरदो व्याख्यात्री (अनुष्टुभः) (ऐ[म्) इडाया वाचो व्याख्यातृ साम (ऐडात्) (मन्थी) पदार्थानां मन्थनसाधनः (मन्थिनः) (एकविंशः) एकविंशतेर्विद्यानां पूरकः (एकविंशात्) (वैराजम्) विविधानां पदार्थानामिदं प्रकाशकम् (विश्वामित्रः) विश्वं मित्रं येन भवति सः (ऋषिः) शब्दप्रापकः (प्रजापतिगृहीतया) (त्वया) (श्रोत्रम्) शृणोति येन तत् (गृह्णामि) (प्रजाभ्यः) प्रजाताभ्यो विद्युदादिभ्यः। [अयं मन्त्रः शत॰८.१.२.४-६ व्याख्यातः]॥५७॥
भावार्थः
ब्रह्मचर्य्येणाधीतविद्यौ कृतविवाहौ स्त्रीपुरुषौ बहुश्रुतौ भवेताम्। नह्याप्तानां सकाशाच्छ्रवणेन विना पठितापि विद्या फलवती जायते। तस्मात् सदा श्रुत्वा सत्यं धरेतामसत्यं त्यजेताम्॥५७॥
हिन्दी (3)
विषय
अब शरद् ऋतु में कैसे वर्त्तें, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे सौभाग्यवती! जैसे (इदम्) यह (उत्तरात्) सब से उत्तर भाग में (स्वः) सुखों का साधन दिशारूप है, (तस्य) उसके (सौवम्) सुख का साधन (श्रोत्रम्) कान (श्रौत्री) कान की सम्बन्धी (शरत्) शरदृतु (शारदी) शरद् ऋतु के व्याख्यान वाला (अनुष्टुप्) प्रबद्ध अर्थ वाला अनुष्टुप् छन्द (अनुष्टुभः) उससे (ऐ[म्) वाणी के व्याख्यान से युक्त मन्त्र (ऐडात्) उस मन्त्र से (मन्थी) पदार्थों के मथने का साधन (मन्थिनः) उस साधन से (एकविंशः) इक्कीस विद्याओं का पूर्ण करने हारा सिद्धान्त (एकविंशाद्) उस सिद्धान्त से (वैराजम्) विविध पदार्थों के प्रकाशक सामवेद के ज्ञान को प्राप्त हुआ (विश्वामित्रः) सब से मित्रता का हेतु (ऋषिः) शब्द ज्ञान कराने हारा कान और (प्रजाभ्यः) उत्पन्न हुई बिजुली आदि के लिये (श्रोत्रम्) सुनने के साधन को ग्रहण करते हैं, वैसे (प्रजापतिगृहीतया) प्रजापालक पति ने ग्रहण की (त्वया) तेरे साथ में प्रसिद्ध हुई बिजुली आदि से (श्रोत्रम्) सुनने के साधन कान को (गृह्णामि) ग्रहण करता हूं॥५७॥
भावार्थ
स्त्री पुरुषों को चाहिये कि ब्रह्मचर्य्य के साथ विद्या पढ़ और विवाह करके बहुश्रुत होवें और सत्यवक्ता आप्त जनों से सुने बिना पढ़ी हुई भी विद्या फलदायक नहीं होती, इसलिये सदैव सज्जनों का उपदेश सुन के सत्य का धारण और मिथ्या को छोड़ देवें॥५७॥
विषय
दिशा भेद से प्राण भेद से, और ऋतुभेद से राजा, आत्मा और सूर्य संवत्सर, बलों विद्वानों और यज्ञागों के अनुरूप राष्ट्रागों का वर्णन ।
भावार्थ
( इदम् उत्तरात् स्वः ) यह उत्तर दिशा में या सब से ऊपर महान् आकाश स्व:' है । ( तस्य ) उस प्रजापति का वह आकाश ही महान् श्रोत्र है । इसलिये ( सौवं श्रोत्रम् ) उसका श्रोत्र 'स्वः' होने से 'सौव' कहाता है । इसी प्रकार इस शरीर में 'स्वः' अर्थात् सुखं का साधन आकाश की तन्मात्रा से ही बना हुवा श्रोत्र है । ( श्रौत्री शरत्) 'संवत्सर' रूप प्रजापति में शरत् ऋतु ही श्रोत्र के समान है । वर्षा के बाद आकाश और दिशाएं खुल जाने से शरद् ऋतु उत्पन्न होती हैं, इसी से शरत् मानो प्रजापति के श्रोत्र रूप आकाश या दिशाओं से उत्पन्न होती है । ( शारदी अनुष्टुप् ) शरद् ऋतु से अनुष्टुप् छन्द उत्पन्नं होता है । अर्थात् छन्दों में जिस प्रकार अनुष्टुप् सर्व प्रिय है उसी प्रकार ऋतुओं में 'शरद' है । (अनुष्टुभ ऐडम् ) अनुष्टुप से 'ऐड' नाम साम की उत्पत्ति होती है। अर्थात् अनुष्टुप् नाम छन्द से ऐड अर्थात् 'इड़ा' वाणी का विस्तार होता है । ( ऐडात् मन्थी ) ऐड नाम साम से यज्ञ में सन्धिग्रह उत्पन्न होता है । वाणी के विस्तार से इन्द्रियों और हृदय को मथनं करने की शक्ति उत्पन्न होती है । ( मन्थिनः एकविंशः ) मन्थिग्रह से यज्ञ में 'एकविंश' नाम सोम की उत्पत्ति होती है। वाणी के बल पर हृदय मथन हो जाने पर २० अंगों सहित इक्कीसवां आत्मा स्त्री के गर्भ में उत्पन्न होता है | ( एकविंशाद वैराजम् ) यज्ञ में एकविंशस्तोम से 'वैराज' साम की उत्पत्ति होती है । आत्मा से ही विविध तेजों से राजमान देह की उत्पत्ति होती है । 'एकविंश' राजा से ही विविध राष्ट्र के कार्यों की उत्पत्ति होती है । ( विश्वामित्र ऋषिः ) शरीर में श्रोत्र ही विश्वामित्र ऋषि है । वह ज्ञानवान् पुरुष राष्ट्र में कर्म के समान समस्त प्रजाओं के दुःख पीड़ाओं को सुनता है। वह भी ऋपि दृष्टा 'विश्वामित्र', सब का परम स्नेही है | ( प्रजापतिगृहीतया वया ) प्रजापति द्वारा स्वीकृत तुझ परम प्रकृति से जिस प्रकार प्रजाभ्यः ) समस्त उत्पन्न पदार्थों के हितार्थ (श्रोत्रं) आकाश रूप श्रोत्र का उपयोग किया गया है, उसमें समस्त सृष्टि फैली है। उसी प्रकार राजा द्वारा राजशक्ति के वश कर लेने पर प्रजाओं के 'श्रोत्र' अर्थात् सुख दुःख श्रवण करने वाले न्यायाधीश को मैं (गृहामि) स्वीकार करूं। इसी प्रकार हे स्त्री ! प्रजापति, गृहपति द्वारा स्त्री रूप में स्वीकृत तु द्वारा मैं प्रजा के हित के लिये अपने श्रोत्र का उपयोग करूं। शत० ८।१।२।४-६॥
टिप्पणी
'ऐठ्ठमळानू' इति काण्वः ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्देवता । स्वराड् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
दिशाएँ [उत्तरात् स्वः ] श्रोत्र - ग्रहण - विश्वामित्र
पदार्थ
१. (इदम्) = यह (उत्तरात्) = उत्तर की ओर (स्व:) = दिशाएँ अधिपति रूपेण हैं। [स्वर्गो हि लोको दिश:- श० ८।१।२।४] । ये दिशाएँ निर्देशों का उपदेशों का प्रतीक हैं-प्रत्येक दिशा एक बोध दे रही है 'प्राची' आगे बढ़ने का तो 'दक्षिणा' - दाक्षिण्य का, ('प्रतीची') = प्रत्याहार का और उदीची [उत्तरा] उन्नति का तथा अन्त में 'ऊर्ध्वा' - सर्वोत्कृष्ट स्थिति का उपदेश कर रही है, अतः २ (तस्य) = उपासक का (श्रोत्रम्) = श्रोत्र (सौवम्) = स्वः का सन्तान होता है इसका श्रोत्र दिशाओं के उपदेश को सुनता है। ३. (श्रौत्री शरत्) = इसके जीवन में श्रोत्र - सुनने की सन्तान शरत् होती है, अर्थात् यह दिशाओं के इन उपदेशों को सुनता हुआ अपने सब पापों को शीर्ण करनेवाला होता है। ४. (शारदी अनुष्टुभः) = पापों की शीर्णता से प्रतिक्षण इसका प्रभु-स्तवन चलता है, अर्थात् इसका प्रभु-स्तवन यही है कि यह बुराइयों को अपने से दूर करता है । ५. (अनुष्टुभः) = अनुक्षण प्रभु-स्तवन से (ऐडम्) = [ इडाया: ज्ञानम्] - इस वेदवाणी का ज्ञान होता है - हृदयदेश में ज्ञान का प्रकाश होता है। (ऐडात्) = इस वाणी के ज्ञान से यह (मन्थी) = मन्थन व चिन्तन करनेवाला बनता है । (मन्थिनः) = इस मन्थन से (एकविंश:) = यह त्रिगुणासप्त [ये त्रिषप्तः] शक्तियोंवाला होता है। ८. (एकविंशात् वैराजम्) = इन इक्कीस शक्तियों से यह विशिष्ट रूप से चमकनेवाला बनता है । ९. यह विशेष रूप से चमकनेवाला (विश्वामित्र ऋषिः) = सबके साथ स्नेह करनेवाला तत्त्वद्रष्टा बनता है। १०. और पत्नी से कहता है कि (प्रजापतिगृहीतया) = प्रजापति का ग्रहण करनेवाली, प्रभु का ध्यान करनेवाली (त्वया) = तेरे साथ (श्रोत्रं गृह्णामि) = मैं इस कान को वश में करता हूँ, प्रजाभ्यः = जिससे हम उत्तम सन्तानों को प्राप्त कर सकें।
भावार्थ
भावार्थ - दिशाओं के उपदेश को सुनते हुए हम श्रोत्र को पूर्णरूप से वश में करके कभी अशुभ का श्रवण न करें, जिससे हमारी सन्तानें उत्तम ही हों।
मराठी (2)
भावार्थ
स्त्री-पुरुषांनी ब्रह्मचारी राहून विद्या शिकावी व विवाह करून बहुश्रुत व्हावे. सत्यवक्ता असणाऱ्या आप्तजनाकडून ऐकल्याशिवाय अध्ययन केलेली विद्या फलदायी होत नाही. त्यासाठी सदैव सज्जनांचा उपदेश ऐकून सत्य धारण करावे व असत्याचा त्याग करावा.
विषय
आता शरद ऋतूमधे स्त्री-पुरुषांचे आचरण कसे असावे, पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे सौभाग्यवती, (इदम्) ही (उत्तरात्) उत्तर भागात असलेली उत्तर दिशा (स्व:) सुखाचे साधन आहे (तस्य) त्या दिशेच्या सुखाला ग्रहण करण्याचे साधन आहे (श्रोत्रम्) कान. कानाविषयी आणि (शरत्) शरद ऋतूच्या (शारदी) वैशिष्ट्यांचे वर्णन करणारे (अनुष्टुप्) प्रबद्ध अर्थ सांगणारे अनुष्टुप् छंदातील जे मंत्र आहेत (ते ऐकावेत) (अनुष्टुंभ:) अनुष्टुप् छंदातील मंत्रात (ऐडम्) वेदवाणीचे व्याख्यान करणारे जे मंत्र आहेत (एडात्) त्या मंत्रांने (मन्थी) पदार्थांच्या मंथनाचे जे साधन आहे रवी, (मन्थिन:) त्या साधनाने (जसे दही घुसळतात, तद्वत मंत्राचे अर्थाच मंथन करून ज्ञानरुप लोणी काढावे) त्या साधनाने (कानाने) (एकविंश:) एकेवीस विद्या पूर्ण करणारे सिद्धांत ऐकावेत. त्या एकेवीस सिद्धांताने (वैराजम्) विविध पदार्थांचे ज्ञान सांगणाऱ्या (साम) सामवेदाचे ज्ञान प्राप्त करावे. (विश्वामित्र:) सर्वांशी मैत्री करण्याचे साधन आहे व (ऋषि:) शब्दज्ञान करविणारे कान (ऐकण्यासाठी कान (प्रजाभ्य:) उत्पन्न होणाऱ्या विद्युत आदी साधनांचे (श्रोत्रम्) ग्रहण करतात (या वाक्यातून ऐकण्याचे साधन श्रवणयंत्र, विद्युतद्वारा ऐकण्याचे साधनें, दूरभाष, टेलीग्राम आदींचा संबंध घेता येतो). ज्याप्रमाणे लोक ती साधनें ग्रहण करतात, तद्वत प्रजापालक तुझा पती (म्हणजे मी) (त्वया) तुझ्यासह विद्युत शक्तीद्वारे (श्रोम्) श्रवणाचे साधन जे कान (गृह्णामि) त्याच ग्रहण करीत आहे (श्रवणशक्ती व भक्ती वाढवीत आहे). ॥57॥
भावार्थ
भावार्थ - स्त्री-पुरूषांनी ब्रह्मचर्य पालन करून सर्व विद्या अवगत कराव्यात. तद्नंतर विवाह करावा. शिवाय त्यांनी बहुश्रुत व्हावे (खूप ऐकावे व त्याद्वारे उत्तम विद्या-ज्ञान मिळवावे) या व्यक्तिरिक्त स्त्री-पुरुषांनी सत्यवक्ता आप्तजनांकडून भरपूर ऐकावे) काण सत्यवादी विश्वसनीय विद्वानांकडून ऐकलेली विद्याच फलदायिनी होते, अन्य नाही. याकरिता नेहमी सज्जनांचा उपदेश ऐकून सत्य ते स्वीकारावे आणि असत्य ते सोडून द्यावे ॥57॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O wife, this North direction is the giver of comforts. Ear is the source of its pleasantness. The ear is related to autumn. The significant Anushtap verse is the expositor of autumn. From Anushtap is derived the verse that explains speech. From that verse is derived the means of churning the objects. From that means is derived the principle of perfecting twenty one sciences. From that principle, we derive the ear, the cause of friendship with all, the receiver of the significance of words, the manifestor of various objects, and listener to the singing of Sama Veda. I, thy husband, the guardian of the offspring, along with thee, use the ear for the good of the people.
Meaning
On the north is this spirit of bliss and joy. The instrument of joy is the ear, and sharad, autumn, is the season for ear and music. The metre for sharad is anushtup. In anushtup is composed the aida-saman which is the song of beauty and sweetness. From aida is the ‘manthi’, churner, who churns out hilarity and virility. From manthis comes the twenty-one part stoma which constitutes an integrated programme of twenty one branches of learning. From twenty one stoma comes vairaja saman, a body of knowledge, of which the seer- master is Vishwamitra, friend of the whole world. Woman of knowledge, virtue and love, blest by Prajapati, alongwith you I receive the ear and the voice that gives me the songs of joy and virility for the sake of the family and the community.
Translation
This on the north is the Svah (the sky). (1) The offspring of that Svah is Srotra (the ear). (2) The offspring of the Srota is Sarad (the autumn season). (3) The daughter of Sarad is the Anustup metre. (4) From the Anustup, the Aida (the Ida Saman). (5) From the Aida, the Manthi. (6) From the Manthi, the Ekavimsa hymn (of 21 verses). (7) From the Ekavimsa hymn, the Vairaja Saman. (8) Visvamitra is the seer. (9) With you taken from the Creator Lord, I secure Srotra (the ear) for our progeny. (10)
Notes
Caksuh, vision; eye. Svah, स्वर्गो लोक: heaven; sky. Srotram, audition; ear. Manthi, name of a graha, i. e. a measure of Soma juice. Viévamitrah, विश्वं सर्वं मित्रं येन, one with whom all are friendly. मित्रे चर्षौ (Panini, VI. 3. 130. ) while used in the name of arsi, अ in विश्व will be elongated; instead of विश्वामित्र it will be विश्वामित्र
बंगाली (1)
विषय
অথ শরদৃতৌ কথং বর্ত্তিতব্যমিত্যাহ ॥
এখন শরদ্ ঋতুতে কেমন করিয়া ব্যবহার করিবে, এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে সৌভাগ্যবতী! যেমন (ইদম্) এই (উত্তরাৎ) সর্বাপেক্ষা উত্তর ভাগে (স্বঃ) সুখের সাধন দিক্ রূপ (তস্য) উহার (সৌবম্) সুখের সাধন (শ্রোত্রম্) কর্ণ (শ্রোত্রী) কর্ণ সম্বন্ধী (শরৎ) শরৎ ঋতু (শারদী) শরদ ঋতুর ব্যাখ্যাতা (অনুষ্টুপ্) প্রবুদ্ধ অর্থযুক্ত অনুষ্টুপ্ ছন্দ (অনুষ্টুভঃ) উহা হইতে (ঐডম্) বাণীর ব্যাখ্যানযুক্ত মন্ত্র (ঐডাৎ) সেই মন্ত্র হইতে (মন্থী) পদার্থের মন্থনের সাধন (মন্থিনঃ) সেই সাধন হইতে (একবিংশঃ) একুশ বিদ্যার পূর্ণকারী সিদ্ধান্ত (একবিংশাৎ) সেই সিদ্ধান্ত হইতে (বৈরাজম্) বিবিধ পদার্থের প্রকাশক (সাম) সামবেদের জ্ঞানকে প্রাপ্ত হওয়া (বিশ্বামিত্রঃ) সকলের মিত্রতার হেতু (ঋষিঃ) শব্দ জ্ঞানকারী কর্ণ (প্রজাভ্যঃ) উৎপন্ন বিদ্যুতাদির জন্য (শ্রোতৃম্) শ্রবণের সাধনকে গ্রহণ করে সেইরূপ (প্রজাপতিগৃহীতমা) প্রজাপালক পতি গ্রহণ করিয়াছে (ত্বা) তোমার সঙ্গে প্রসিদ্ধ বিদ্যুতাদি হইতে (শ্রোত্রম্) শ্রবণের সাধন কর্ণকে (গৃহ্নামি) গ্রহণ করি ॥ ৫৭ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- স্ত্রী-পুরুষদিগের উচিত যে, ব্রহ্মচর্য্য সহ বিদ্যা পাঠ করিয়া এবং বিবাহ করিয়া বহুশ্রুত হইবে এবং সত্যবক্তা আপ্তজনদের নিকট হইতে না শ্রবণ করিয়া পঠিত বিদ্যাও ফলদায়ক হয় না এইজন্য সর্বদা সজ্জনদিগের উপদেশ শ্রবণ করিয়া সত্য ধারণ ও মিথ্যাকে পরিত্যাগ করিবে ॥ ৫৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ই॒দমু॑ত্ত॒রাৎ স্ব॒স্তস্য॒ শ্রোত্র॑ꣳ সৌ॒বꣳ শ॒রছ্রৌ॒ত্র্য॒নু॒ষ্টুপ্ শা॑র॒দ্য᳖নু॒ষ্টুভ॑ऽ ঐ॒ডমৈ॒ডান্ ম॒ন্থী ম॒ন্থিন॑ऽ একবি॒ꣳশऽ এ॑কবি॒ꣳশাদ্ বৈ॑রা॒জং বি॒শ্বামি॑ত্র॒ऽ ঋষিঃ॑ প্র॒জাপ॑তিগৃহীতয়া॒ ত্বয়া॒ শ্রোত্রং॑ গৃহ্ণামি প্র॒জাভ্যঃ॑ ॥ ৫৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ইদমুত্তরাদিত্যস্যোশনা ঋষিঃ । প্রজাপতির্দেবতা । স্বরাড্ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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