यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 32
ऋषिः - गोतम ऋषिः
देवता - द्यावापृथिव्यौ देवते
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
3
म॒ही द्यौः पृ॑थि॒वी च॑ नऽ इ॒मं य॒ज्ञं मि॑मिक्षताम्। पि॒पृ॒तां नो॒ भरी॑मभिः॥३२॥
स्वर सहित पद पाठम॒ही। द्यौः। पृ॒थि॒वी। च॒। नः॒। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। मि॒मि॒क्ष॒ता॒म्। पि॒पृ॒ताम्। नः॒। भरी॑मभि॒रिति॒ भरी॑मऽभिः ॥३२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मही द्यौः पृथिवी च न इमँ यज्ञं मिमिक्षताम् । पिपृतान्नो भरीमभिः ॥
स्वर रहित पद पाठ
मही। द्यौः। पृथिवी। च। नः। इमम्। यज्ञम्। मिमिक्षताम्। पिपृताम्। नः। भरीमभिरिति भरीमऽभिः॥३२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
मातापितृभ्यां स्वसन्तानाः कथं शिक्ष्या इत्याह॥
अन्वयः
हे मातापितरौ! यथा मही द्यौः पृथिवी च सर्वं सिञ्चतः पालयतस्तथा युवां न इमं यज्ञं मिमिक्षतां भरीमभिर्नः पिपृताम्॥३२॥
पदार्थः
(मही) महती (द्यौः) सूर्यः (पृथिवी) भूमिः (च) (नः) अस्माकम् (इमम्) (यज्ञम्) सङ्गन्तव्यं गृहाश्रमव्यवहारम् (मिमिक्षताम्) सेक्तुमिच्छेताम् (पिपृताम्) पालयतम् (नः) अस्मान् (भरीमभिः) धारणपोषणाद्यैः कर्मभिः॥३२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा वसन्तर्त्तौ भूमिसूर्यौ सर्वेषां धारणं प्रकाशं पालनञ्च कुरुतस्तथा मातापितरः स्वसन्तानेभ्यो वसन्तादिष्वृतुष्वन्नं विद्यादानं सुशिक्षां च कृत्वा पूर्णान् विदुषः पुरुषार्थिनः संपादयेयुः॥३२॥
हिन्दी (3)
विषय
माता पिता अपने सन्तानों को कैसी शिक्षा करें, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
हे माता-पिता! जैसे (मही) बड़ा (द्यौः) सूर्य्यलोक (च) और (पृथिवी) भूमि सब संसार को सींचते और पालन करते हैं, वैसे तुम दोनों (नः) हमारे (इमम्) इस (यज्ञम्) सेवने योग्य विद्याग्रहणरूप व्यवहार को (मिमिक्षताम्) सेचन अर्थात् पूर्ण होने की इच्छा करो और (भरीमभिः) धारण-पोषण आदि कर्मों से (नः) हमारा (पिपृताम्) पालन करो॥३२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे वसन्त ऋतु में पृथिवी और सूर्य्य सब संसार का धारण, प्रकाश और पालन करते हैं, वैसे माता-पिता को चाहिये कि अपने सन्तानों के लिये वसन्तादि ऋतुओं में अन्न, विद्यादान और अच्छी शिक्षा करके पूर्ण विद्वान् पुरुषार्थी करें॥३२॥
विषय
समद्धि की वृद्धि, व्यापक शक्तिमान् राजा का वर्णन ।
भावार्थ
व्याख्या देखो अ० ८ । ३३ ॥ शत० ७ १२ ।१ । १० ॥
विषय
यज्ञ-पूर्ति
पदार्थ
१. 'द्यौष्पिता पृथिवी माता' इस वैदिक कथन के अनुसार पिता द्युलोक के समान है, माता पृथिवी के, अतः प्रभु कहते हैं कि - (मही द्यौ:) = [मह पूजायाम्, दिवु द्योतने] पूजा की मनोवृत्तिवाला तथा प्रकाशमय जीवनवाला पिता (च) = और (मही पृथिवी) = पूजा की मनोवृत्तिवाली तथा विस्तृत हृदयवाली माता (नः) = हमारे द्वारा वेदों में प्रतिपादित (इमं यज्ञम्) = इस यज्ञ को (मिमिक्षताम्) = [स्वैः स्वैः भागैः पूरयताम् - म० ] अपने-अपने कर्त्तव्य भागों से पूर्ण करें। वेद में प्रभु ने नाना यज्ञों का उपदेश दिया है। इन्हीं यज्ञों से मनुष्य को फूलना - फलना है। प्रभु कहते हैं कि पति-पत्नी मिलकर इन यज्ञों को पूर्ण करने का प्रयत्न करें। २. इस प्रकार ये पति-पत्नी यज्ञों द्वारा (भरीमभिः) = भरणात्मक कर्मों से (नः) = हमें (पिपृताम्) = अपने में धारण करें। वस्तुतः ये इन यज्ञात्मक कर्मों से ही अपने में प्रभु के निवास का कारण बनते हैं। यज्ञ हमें प्रभु की प्राप्ति करानेवाले होते हैं। वस्तुतः इन यज्ञों में लगना अर्थात् लोकहित में लगे रहना ही सच्ची प्रभु-भक्ति है। 'सर्वभूतहिते रतः ' ही तो भक्ततम है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारा जीवन यज्ञमय हो । यज्ञों से हम प्रभु को धारण करनेवाले बनें।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्याप्रमाणे वसंत ऋतूमध्ये पृथ्वी जगाला धारण करते व सूर्य आपल्या प्रकाशाने पालन करतो त्याप्रमाणे माता व पिता यांनी आपल्या संतानांना वसंत इत्यादी ऋतूंमध्ये अन्न, विद्यादान व चांगले शिक्षण देऊन पूर्ण विद्वान व पुरुषार्थी बनवावे.
विषय
आई-वडिलांनी आपल्या मुला-मुलींना कशाप्रकारचे शिक्षण द्यावे (वा आचार शिकवावेत) पुढील मंत्रात याविषयी सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे माता, हे पिता, ज्याप्रमाणे (मही) महान् (द्यौ:) सूर्य लोक (च) आणि (पृथिवी) भूमी साऱ्या जगाला सिंचित वा पालित करतात, त्याप्रमाणे तुम्ही दोघे (न:) आमच्या (इमम्) षा (यज्ञम्) विद्याग्रहणरुप कार्याला (मिमिक्षताम्) पूर्ण करण्याची इच्छा आणि यत्न करा (आम्हा तुमच्या मुलामुलींना शिक्षण आणि आचार शिकवा वा शिकविण्याची व्यवस्था करा) आणि (भरीमनि:) आमचे आवश्यक पदार्थ देऊन (न:) आमचे (पितृताम्) पालन-पोषण करा ॥32॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. जसे सूर्य आणि पृथ्वी वसंत ऋतूत सर्व जगाचे धारण, पालन करतात आणि जगाला प्रकाशित करतात, त्याचप्रमाणे आई-वडिलांचे कर्तव्य आहे की आपल्या संतानांला वसंत आदी सर्व ऋतूत आवश्यक ते अन्नादी पदार्थ देऊन, विद्यादानाची व्यवस्था करून त्यांना पूर्ण विद्वान आणि पुरुषार्थी बनवावे. ॥32॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O mother and father just as the Mighty Sun and Earth nourish the world, so shouldst ye desire for the completion of our noble task of getting education and rear us full with nourishments.
Meaning
May the great earth and high heaven bless and promote this yajna of our life. So may they and our parents join and bless our yajna of the household with their active blessings.
Translation
May the Lord of the terrestrial and celestial regions bless us and give us strength to achieve our aspirations. (1)
Notes
Same as Yajuh. VIII. 32,
बंगाली (1)
विषय
মাতাপিতৃভ্যাং স্বসন্তানাঃ কথং শিক্ষ্যা ইত্যাহ ॥
মাতা-পিতা স্বসন্তানদেরকে কেমন শিক্ষা দিবেন, এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইযাছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মাতা-পিতা ! যেমন (মহী) বৃহৎ (দ্যৌঃ) সূর্য্যলোক (চ) এবং (পৃথিবী) ভূমি সকল সংসারকে সিঞ্চন ও পালন করে সেইরূপ তোমরা দুই জন (নঃ) আমাদের (ইমম্) এই (য়জ্ঞম্) সেবন যোগ্য বিদ্যাগ্রহণ রূপ ব্যবহারকে (মিমিক্ষতাম্) সিঞ্চন অর্থাৎ পূর্ণ হওয়ার ইচ্ছা কর এবং (ভরীমভিঃ) ধারণ-পোষণ আদি কর্ম্ম দ্বারা (নঃ) আমাদের (পিপৃতাম্) পালন কর ॥ ৩২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যেমন বসন্ত ঋতুতে পৃথিবী ও সূর্য্য সকল সংসারের ধারণ, আলোক প্রদান ও পালন করে সেইরূপ মাতাপিতার উচিত যে, স্বীয় সন্তানদের জন্য বসন্তাদি ঋতুতে অন্ন, বিদ্যাদান এবং সম্যক্ শিক্ষা করিয়া পূর্ণ বিদ্বান্ হইয়া পুরুষার্থ করিবে ॥ ৩২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ম॒হী দ্যৌঃ পৃ॑থি॒বী চ॑ নऽ ই॒মং য়॒জ্ঞং মি॑মিক্ষতাম্ ।
পি॒পৃ॒তাং নো॒ ভরী॑মভিঃ ॥ ৩২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
মহী দ্যৌরিত্যস্য গোতম ঋষিঃ । দ্যাবাপৃথিব্যৌ দেবতে । গায়ত্রী ছন্দঃ ।
ষড্জঃ স্বরঃ ॥
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