यजुर्वेद - अध्याय 13/ मन्त्र 43
ऋषिः - विरूप ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
12
अज॑स्र॒मिन्दु॑मरु॒षं भु॑र॒ण्युम॒ग्निमी॑डे पू॒र्वचि॑त्तिं॒ नमो॑भिः। स पर्व॑भिर्ऋतु॒शः कल्प॑मानो॒ गां मा हि॑ꣳसी॒रदि॑तिं वि॒राज॑म्॥४३॥
स्वर सहित पद पाठअज॑स्रम्। इन्दु॑म्। अ॒रु॒षम्। भु॒र॒ण्युम्। अ॒ग्निम्। ई॒डे॒। पू॒र्वचि॑त्ति॒मिति॑ पू॒र्वऽचि॑त्तिम्। नमो॑भि॒रिति॒ नमः॑ऽभिः। सः। पर्व॑भि॒रिति॒ पर्व॑ऽभिः। ऋ॒तु॒श इत्यृ॑तु॒ऽशः। कल्प॑मानः। गाम्। मा। हि॒ꣳसीः॒। अदि॑तिम्। वि॒राज॒मिति॑ वि॒ऽराज॑म् ॥४३ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अजस्रमिन्दुमरुषम्भुरण्युमग्निमीडे पूर्वचित्ति नमोभिः । स पर्वभिरृतुशः कल्पमानो गाम्मा हिँसीरदितिं विराजम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
अजस्रम्। इन्दुम्। अरुषम्। भुरण्युम्। अग्निम्। ईडे। पूर्वचित्तिमिति पूर्वऽचित्तिम्। नमोभिरिति नमःऽभिः। सः। पर्वभिरिति पर्वऽभिः। ऋतुश इत्यृतुऽशः। कल्पमानः। गाम्। मा। हिꣳसीः। अदितिम्। विराजमिति विऽराजम्॥४३॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरयं किं कुर्य्यादित्याह॥
अन्वयः
हे विद्वन्! यथाहं पर्वभिर्नमोभिः सह वर्त्तमानमिन्दुमरुषं भुरण्युं पूर्वचित्तिमग्निमजस्रमीडे, तमृतुशः कल्पमानः सन्नदितिं विराजं गां न नाशयामि, तथैव स त्वमेतमेनां च मा हिंसीः॥४३॥
पदार्थः
(अजस्रम्) निरन्तरम् (इन्दुम्) जलम् [इन्दु इति जलनामसु पठितम् निघं॰१.१२] (अरुषम्) अश्वम् [अरुषमिति अश्वनामसु पठितम् निघं॰१.१४] (भुरण्युम्) पोषकम्। अत्र भुरणधातोर्युः प्रत्ययः (अग्निम्) विद्युतम् (ईडे) अध्यन्विच्छामि (पूर्वचित्तिम्) पूर्वा चितिश्चयनं यस्य तम् (नमोभिः) अन्नैः (सः) (पर्वभिः) पूर्णैः साधनाङ्गैः (ऋतुशः) बहूनृतून् (कल्पमानः) समर्थः सन् (गाम्) पृथिवीम् (मा) (हिंसीः) हिंस्याः (अदितिम्) अखण्डिताम् (विराजम्) विविधैः पदार्थै राजमानाम्। [अयं मन्त्रः शत॰७.५.२.१९ व्याख्यातः]॥४३॥
भावार्थः
मनुष्यैर्ऋत्वनुकूलतया क्रिययाऽग्निर्जलमन्नं च संसेव्य राजभूमिः सदैव रक्षणीया, यतः सर्वाणि सुखानि स्युः॥४३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह विद्वान् क्या करे, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे विद्वान् पुरुष! जैसे मैं (पर्वभिः) पूर्ण साधनयुक्त (नमोभिः) अन्नों के साथ वर्त्तमान (इन्दुम्) जलरूप (अरुषम्) घोड़े के सदृश (भुरण्युम्) पोषण करने वाली (पूर्वचित्तिम्) प्रथम निर्मित (अग्निम्) बिजुली को (अजस्रम्) निरन्तर (ईडे) अधिकता से खोजता हूँ, उसको (ऋतुशः) प्रति ऋतु में (कल्पमानः) समर्थ होके करता हुआ (अदितिम्) अखण्डित (विराजम्) विविध प्रकार के पदार्थों से शोभायमान (गाम्) पृथिवी को नष्ट नहीं करता हूँ, वैसे ही (सः) सो आप इस अग्नि और इस पृथिवी को (मा) मत (हिंसीः) नष्ट कीजिये॥४३॥
भावार्थ
मनुष्यों को योग्य है कि ऋतुओं के अनुकूल क्रिया से अग्नि, जल और अन्न का सेवन करके राज्य और पृथिवी की सदैव रक्षा करें, जिससे सब सुख प्राप्त होवें॥४३॥
विषय
संवत्सर के समान राज सभा के सदस्यों सहित सभापति के कर्तव्य ।
भावार्थ
( अजस्त्रम् )अहिंसक और अविनाशी (इन्दुम् ) ऐश्वर्यवान्, जल के समान शीतल और स्वच्छ ( अरुषम् ) रोषरहित, ( भुरण्युम् ) सब के पोषक ( पूर्वचित्तिम् ) पूर्ण ज्ञानवान् (अग्निम् ) ज्ञानवान् परमेश्वर या राजा को ( नमोभिः ) नमस्कारों द्वारा (ईडे ) मैं स्तुति करता हूं। अथवा ( नमोभिः पूर्वचित्तिम्) अन्नो द्वारा पूर्व ही संग्रह करने वाले धनाढ्य पुरुष को मैं (ईडे ) प्राप्त करूं । (सः) वह तू (पर्वभिः) पालनकारी सामर्थ्यों से ( ऋतुशः ) सूर्य जिस प्रकार अपने ऋतु से सबको चलाता है उसी प्रकार राजा ( ऋतुभिः ) अपने राजसभा के सदस्यों से ( कल्पमान: ) सामर्थ्यवान् होता है। वह तू ( विराजम् ) विविध पदार्थों गुणों से प्रकाशित ( गाम्) गौ और पृथिवी को ( मा हिंसीः ) मत विनष्ट कर ॥ शत० ७।५।२।१९॥ पूर्वचितिम्" इति दयानन्द सम्मतः पाठ 'पूर्वचित्तिम् इति सर्वत्र ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निर्देवता । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
मा हिंसी:
पदार्थ
१. पिछले मन्त्र की प्रेरणा को सुनकर 'विरूप' कहता है कि मैं (अग्निम्) = अग्रेणी प्रभु की (नमोभिः) = नमनों के द्वारा, अभिमान को छोड़कर नम्रता धारण के द्वारा (ईडे) = स्तुति करता हूँ। जो प्रभु २. (अजस्त्रम्) = [अनुपक्षीणम् - द०] कभी क्षीण नहीं होते। मैं भी तो इस अनुपक्षीण प्रभु का स्तवन करता हुआ अक्षीण बन पाऊँगा। ३. (इन्दुम्) = [ इन्द to be pow= जो प्रभु erful ] जो प्रभु सर्वशक्तिमान् हैं अथवा जो प्रभु परमैश्वर्यवाले हैं। ४. (अरुषम्) = [अ-रुष्] क्रोधशून्य हैं। वस्तुतः अनुपक्षीणता व शक्तिमत्ता का रहस्य है ही अक्रोध में। क्रोध से ऊपर उठकर मैं भी क्षय व निर्बलता से ऊपर उठता हूँ। ५. (भुरण्युम्) = सबका भरण करनेवाले हैं। वे प्रभु अपनी सर्वशक्तिमत्ता व परमैश्वर्य से सभी का भरण कर रहे हैं, भी यथाशक्ति भरण करनेवाला बनूँ। ६. (पूर्वचित्तिम्) = सृष्टि के प्रारम्भ में अग्नि आदि मैं ऋषियों को वेदज्ञान देनेवाले प्रभु को में उपासित करता हूँ। सच्चा उपासक बनकर मैं भी उस चिति व ज्ञान का अधिकारी बनता हूँ। ७. 'विरूप' के इस संकल्प को सुनकर प्रभु कहते हैं कि सः वह तू पर्वभिः पर्वों से, पूर्णिमा व अमावास्या से तथा (ऋतुशः) = ऋतु-ऋतु से (कल्पमानः) = अपने को शक्तिशाली बनाता हुआ (गाम्) = वेदवाणी को (अदितिम्) = अखण्डन व स्वास्थ्य को (विराजम्) = विशिष्ट शासन को (मा हिंसी:) = मत नष्ट होने दे, अर्थात् 'पूर्णिमा' के दिन 'मुझे पूर्ण बनना है-प्राणादि सोलह-की-सोलह कालाओं को अपने में संगृहीत करनेवाला होना है' इस भावना को दृढ़ कर । अमावस के दिन 'साथ रहने की भावना - मिलकर चलने की वृत्ति को दृढ़ कर। ग्रीष्म में पसीने के साथ सब मलिनता को दूर करके पवित्र बनने की भावनावाला हो। वर्षा में सबपर सुखों की वृष्टि करने की भावनावाला हो।' सब मलों को शीर्ण करना सीख ! हेमन्त तुझे गति व वृद्धि की प्रेरणा दे रहा है और शिशिर [शश प्लुतगतौ ] तुझे स्फूर्ति से क्रिया करनेवाला बनाये। इस प्रकार पर्वों व ऋतुओं से प्रेरणा लेता हुआ तू अपने को शक्तिशाली बना। अपने जीवन में कभी वेदज्ञान की वाणियों को नष्ट न होने दे। तेरा स्वाध्याय सतत चले यही तेरा परम तप हो। ज्ञान के द्वारा विषयासक्ति को दूर करके तू अपने स्वास्थ्य को स्थिर रख। तेरा स्वास्थ्य खण्डित न हो [health का break down न हो] । इस स्वास्थ्य को शारीरिक ही नहीं अपितु मानस स्वास्थ्य को भी नष्ट न होने देने के लिए तू विराजम्-अपनी इन्द्रियों व मन का उत्तम शासन करनेवाला बन। इस प्रकार ज्ञान [गौ:] तेरे मस्तिष्क को, अदिति तेरे शरीर को तथा विराज तेरे मन को दीप्त करनेवाले होंगे और यही तेरा सच्चा स्तवन भी होगा।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु का स्मरण करें और ज्ञान, स्वास्थ्य व मानस शासन को नष्ट न होने दें।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी ऋतूंच्या अनुकूलतेप्रमाणे काम करून अग्नी जल व अन्न यांचे सेवन करावे व राज्याचे आणि पृथ्वीचे सदैव रक्षण करावे. ज्यामुळे सर्वांना सर्व सुख प्राप्त होईल.
विषय
त्या विद्वानांनी (वैज्ञानिकांनी) आणखी काय काय करावे, याविषयी पुढील मंत्रात सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (राष्ट्राचा प्रमुख सभापती वा राष्ट्राध्यक्ष वैज्ञानिकास म्हणत आहे) हे विद्वान वैज्ञानिक, मी (राष्ट्राध्यक्ष) (पूर्वभि:) पूर्ण साधनांनी युक्त असून (नमोभि:) अन्न-धान्याने समृद्ध आहे. (इंन्दुम्) जल जणू (अरुषम्) घोडा आहे, या घोड्याप्रमाणे शक्तिशाली आहे (पूर्वचितिम्) प्रथम निर्मित, विद्युत; या विद्युतेविषयी मी (अजस्रम्) निंतर (ईडे) अधिकाधिक शोध करतो (विजेपासून अधिकाधिक लाभ कसे घेता येतील, याविषयी शोध करतो) (ऋतुश:) प्रत्येक ऋतूमध्ये त्या विजेपासून (कल्यमान:) ऊर्जाशक्तीसंपन्न होऊ (आदितिम्) अखंडपणे (विराजम्) विविध प्रकारच्या पदार्थांमुळे शोभायमान होणाऱ्या या (गाम्) पृथ्वीला मी नष्ट वा हानिकर होऊ देत नाही. (स:) तुम्ही विद्वानांनीदेखील या अग्नी आणि पृथ्वीचा (मा) (हिंसी:) कोणत्याही प्रकारे नाश वा हानी होऊ देऊ नये. ॥43॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांसाठी उचित आहे की त्यांनी प्रत्येक ऋतूप्रमाणे आवश्यक असे व्यवहार, कार्य आदी करून अग्नी, जल आणि अग्नीचे सेवन करावे आणि अशाप्रकारे राज्याचे तसेच संपूर्ण पृथ्वीचे सदैव रक्षण करावे की ज्यामुळे सर्व लोक सुखी होतील.॥43॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O learned person just as I constantly search for electricity, newly produced, full of accomplishments, creator of foodstuffs, pure like water, powerful like the horse, knowable by the highly learned, and using it skilfully in each season, do not harm the indivisible beautiful earth, so thou shouldst not harm electricity and this earth.
Meaning
I worship Agni, eternal power, bright and fiery, lord of peace and bliss, and giver of health and vigour. With all means and materials I study and develop the power of fire and electricity collected and developed by the ancients. I proceed season by season, planning and achieving stage by stage. Agni, man of science and power, do not kill, destroy or injure the productive cow, the creative earth so bright and unviolated, and the restorative environment.
Translation
With my humble homages I praise the fire, which is perpetual, bliss-bestowing, never hostile, always pressing forward and which has been realized by the earlier sages. May he, being kindled on auspicious occasions and in appropriate seasons, do no harm to the unbound and glorious cow (the earth). (1)
Notes
Ajasram, continuous, perpetual; never-exhausting. Indum, इदि परमैश्वर्ये, most luxurious. Also, bliss-bestowing; pleasing. From उंदी क्लेदे उनत्ति क्लेदयति जनमनांसि इति इंदु: , that which drenches the hearts of people (with pleasure), Arusam, रोषरहितम्, never hostile. . Or, अरोचनं, unpleasant. Bhuranyum, ;भर्तारं सर्वेषां पोष्टारं, one that supports or nourishes all. Pürvacittim, पूर्वैर्मर्हर्षिभि: चेतव्यं, realized by ancient seers. Parvabhih, on auspicious occasions, _ Rtusah, in appropriate seasons. Aditim, अखण्डिता अदीनां वा, uninjured, or, not in a poor shape; also, unbound. Virajam, विविधं राजमानां, glorious in various ways. Gam, cow; also Earth.
बंगाली (1)
विषय
পুনরয়ং কিং কুর্য়্যাদিত্যাহ ॥
পুনঃ সেই বিদ্বান্ কী করিবে এই বিষয় পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ পুরুষ ! যেমন আমি (পূর্বেভিঃ) পূর্ণ সাধনযুক্ত (নমোভিঃ) অন্নের সহ বর্ত্তমান (ইন্দুম্) জলরূপ (অরুষম্) অশ্বসদৃশ (ভুরণ্যুম্) পোষক (পূর্বচিতিম্) প্রথম নির্মিত (অগ্নিম্) বিদ্যুৎকে (অজস্রম্) নিরন্তর (ঈডে) আধিক্যপূর্বক খুঁজি । উহাকে (ঋতুশঃ) প্রতিঋতুতে (কল্পমানঃ) সমর্থ হইয়া করিতে থাকিয়া (অদিতিম্) অখন্ডিত (বিরাজম্) বিবিধ প্রকারের পদার্থ দ্বারা শোভায়মান (গাম্) পৃথিবীকে নষ্ট করি না সেইরূপ (সঃ) আপনি এই অগ্নি এবং এই পৃথিবীকে (মা) না (হিংসী) নষ্ট করুন ॥ ৪৩ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, ঋতু অনুকূল ক্রিয়া দ্বারা অগ্নি, জল ও অন্নের সেবন করিয়া রাজ্য ও পৃথিবীর সর্বদা রক্ষা করিবে যদ্দ্বারা সকলে সুখ প্রাপ্ত হয় ॥ ৪৩ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অজ॑স্র॒মিন্দু॑মরু॒ষং ভু॑র॒ণ্যুম॒গ্নিমী॑ডে পূ॒র্বচি॑ত্তিং॒ নমো॑ভিঃ ।
স পর্ব॑ভির্ঋতু॒শঃ কল্প॑মানো॒ গাং মা হি॑ꣳসী॒রদি॑তিং বি॒রাজ॑ম্ ॥ ৪৩ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অজস্রমিত্যস্য বিরূপ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃৎত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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