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यजुर्वेद अध्याय - 29

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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 14
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    2

    असि॑ य॒मोऽअस्या॑दि॒त्योऽअ॑र्व॒न्नसि॑ त्रि॒तो गुह्ये॑न व्र॒तेन॑।असि॒ सोमे॑न स॒मया॒ विपृ॑क्तऽआ॒हुस्ते॒ त्रीणि॑ दि॒वि बन्ध॑नानि॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असि॑। य॒मः। असि॑। आ॒दि॒त्यः। अ॒र्व॒न्। असि॑। त्रि॒तः। गुह्ये॑न। व्र॒तेन॑। असि॑। सोमे॑न। स॒मया॑। विपृ॑क्त॒ इति॒ विऽपृ॑क्तः। आ॒हुः। ते॒। त्रीणि॑। दि॒वि। बन्ध॑नानि ॥१४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असि यमोऽअस्यादित्योऽअर्वन्नसि त्रितो गुह्येन व्रतेन । असि सोमेन समया विपृक्तऽआहुस्ते त्रीणि दिवि बन्धनानि् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    असि। यमः। असि। आदित्यः। अर्वन्। असि। त्रितः। गुह्येन। व्रतेन। असि। सोमेन। समया। विपृक्त इति विऽपृक्तः। आहुः। ते। त्रीणि। दिवि। बन्धनानि॥१४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 14
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे अर्वन्। यतस्त्वं गुह्येन व्रतेन त्रितो यम इवास्यादित्य इवासि, विद्वन्निवासि, सोमेन समया विपृक्तोऽसि, तस्य ते दिवि त्रीणि बन्धनान्याहुः॥१४॥

    पदार्थः

    (असि) (यमः) नियन्ता न्यायाधीश इव (असि) (आदित्यः) सूर्य्यवद्विद्यया प्रकाशितः (अर्वन्) वेगवान् वह्निरिव वर्त्तमानजन (असि) (त्रितः) त्रिभ्यः (गुह्येन) गुप्तेन (व्रतेन) शीलेन (असि) (सोमेन) ऐश्वर्येण (समया) समीपे (विपृक्तः) विशेषेण सम्बद्धः (आहुः) कथयन्ति (ते) तव (त्रीणि) (दिवि) प्रकाशे (बन्धनानि)॥१४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्याः! युष्माभिर्न्यायाधीशादित्यसोमादिगुणैर्भवितव्यम्। यथाऽस्य संसारस्य मध्ये वायुसूर्य्याकर्षणैर्बन्धनानि सन्ति, तथैव परस्परस्य शरीरवाङ्मनआकर्षणैः प्रेमबन्धनानि कर्त्तव्यानि॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे (अर्वन्) वेगवान् अग्नि के समान जन! जिससे तू (गुह्येन) गुप्त (व्रतेन) स्वभाव तथा (त्रितः) कर्म, उपासना, ज्ञान से युक्त (यमः) नियमकर्त्ता न्यायाधीश के तुल्य (असि) है, (आदित्यः) सूर्य के तुल्य विद्या से प्रकाशित जैसा (असि) है, विद्वान् के सदृश (असि) है, (सोमेन) ऐश्वर्य के (समया) निकट (विपृक्तः) विशेषकर संबद्ध (असि) है। उस (ते) तेरे (दिवि) प्रकाश में (त्रीणि) तीन (बन्धनानि) बन्धनों को अर्थात् ऋषि, देव, पितृ ऋणों के बन्धनों को (आहुः) कहते हैं॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो! तुम को योग्य है कि न्यायाधीश, सूर्य और चन्द्रमा आदि के गुणों से युक्त होवें, जैसे इस संसार के बीच वायु और सूर्य के आकर्षणों से बन्धन हैं, वैसे ही परस्पर शरीर, वाणी, मन के आकर्षणों से प्रेम के बन्धन करें॥१४॥

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    विषय

    नायकः और आत्मा के यम, आदित्य और अर्वा तीन नाम ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! तू ( यमः असि) स्वयं प्राण वायु के समान राष्ट्र का नियामक है । (आदित्य: असि) सूर्य के समान सब कार्यों का प्रका- शक, सूर्यवत् प्रजा से कर लेनेहारा है । तू ही (अर्वन् असि ) शीघ्र गतिवाला होकर (गुह्येन व्रतेन ) रक्षा करने योग्य हमसे (त्रितः) तीनों लोकों में व्यापक वायु के समान उत्तम मध्यम और भधम व राजा, शासक और प्रजा तीनों में व्यापक है और ( सोमेन ) ऐश्वर्यमय राष्ट्र से (समया विपृक्तः) सदा संयुक्त रहता है । (ते) तेरे (दिवि) राजसभा में ( त्रीणि - बन्धनानि) तीनों प्रकार के बंधन ( आहुः ) बतलाते हैं । सूर्य लोक को बांधने वाले तीन बंधन, आकर्षण, प्रकाश और प्राण हैं । परस्पर समाज तीन बंधन शरीररक्षा, बाणी की प्रतिज्ञा और मानस प्रेम । राजा इन तीनों से बलवान् अश्व के समान बंधा रहे । वह आचार में पवित्र वाणी में सच्चा और मन में प्रजा के प्रति प्रेमी रहे । सूर्य के द्यौलोक में तीन बांधने के साधन हैं—आकर्षण, तेज और गति या चेतन सामर्थ्य | उत्पन्न जीव के भी जीवन में तीन बंधन हैं— देव ऋण, पितृऋण और ऋषिऋण जिनके प्रतिनिधि यज्ञोपवीत के तीन सूत्र हैं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निः । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥ '

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    विषय

    यम- आदित्य

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र के अनुसार इन्द्रियाश्वों को संयत करनेवाले के लिए कहते हैं कि तू (यमः असि) = इन्द्रियाश्वों का नियमन करनेवाला है, इसीलिए (आदित्यः असि) = उत्तमताओं व ज्ञान का आदान करनेवाला है। २. (अर्वन्) = सब बुराइयों का संहार करनेवाले! तू (गुह्येन व्रतेन) = हृदयरूप गुहा से सम्बद्ध इस ब्रह्मचर्य के व्रत के द्वारा (त्रितः असि) = 'ऋग्, यजुः व साम' का विस्तार करनेवाला है, अथवा 'ज्ञान, कर्म व उपासना' को विस्तृत करता है, 'त्रीन् तरति' यह भी ठीक है कि तू काम, क्रोध व लोभ को तैर जाता है। ३. इस ब्रह्मचर्य व्रत के द्वारा तू (सोमेन) = सोमशक्ति से, वीर्यशक्ति से (समया) = समीपता से (विपृक्तः असि) = विशेषरूप से सम्बद्ध होता है, अर्थात् ब्रह्मचर्य का धारण करके तू शरीर में वीर्य को सुरक्षित करनेवाला बनता है। ५. इस सोम के सुरक्षित होने के कारण (ते) = तेरे (दिवि) = मस्तिष्करूप द्युलोक में (त्रीणि बन्धनानि) = 'ऋग्, यजुः साम' रूप तीन बन्धनों को (आहुः) = कहते हैं, अर्थात् सोम को मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि का ईंधन बनाने पर तेरे मस्तिष्क में ऋग्, यजुः व साम का प्रकाश होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम इन्द्रियों का नियमन करते हैं तो ज्ञान को ग्रहण करनेवाले आदित्य बनते हैं। ब्रह्मचर्य व्रत के द्वारा हम सोम को सुरक्षित करते हैं और मस्तिष्क में 'ऋग्, यजुः व साम' को बाँधनेवाले होते है, अर्थात् इनके ज्ञान को प्राप्त करते हैं।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! तुम्ही सूर्यचंद्राप्रमाणे न्यायाधीश बना. जसे या जगात वायू व सूर्य यांच्यात आकर्षणाचे बंधन असते, तसेच शरीर, मन, वाणी यांनी एकमेकांच्या आकर्षणाचे (प्रेमाचे) बंधन असावे.

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    विषय

    पुन्हा त्याच विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (अर्वन्) वेगवान (म्हणजे तीव्रतेने पसरणार्‍या) अग्नीप्रमाणे वेगवान् हे महोदय, आपण (गुह्येन) गुह्य वा गुप्त (व्रतेन) स्वभावाने आणि (त्रितः) कर्म, उपासना व ज्ञान या तीन व्रताने (बांधलेले आहात) आपण मनात कोणतातरी गुप्त हेतू ठेवून कार्यरत आहात) आपण (यमः) नियमकर्ता न्यायाधीशाप्रमाणे (असि) आहात. (आदित्यः) सूर्याप्रमाणे विद्येने प्रकाशित (असि) आहात. (सोबेन) ऐश्‍वर्याशी (विप्रक्तः) विशेषत्वाने संबद्ध (असि) आहात. (ते) आपल्या (दिवी) प्रकाशात वा वशात (त्रीणि) तीन (बन्धनानि) बन्धनें आहेत म्हणजे ऋषिऋण, देवऋण व पितृऋण या तीन ऋणांच्या बन्धनात आपण बांधलेले आहात, असे लोक (आहुः) म्हणतात (या तीन बंधनांतून मुक्तीसाठी व्रतस्थ आहात) ॥14॥

    भावार्थ

    भावार्थ -या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे मनुष्यांनो, तुम्हास उचित आहे की तुम्ही न्यायाधीश, सूर्य, चंद्र आदीचे गुण ग्रहण करा. ज्याप्रमाणे या जगात वायू आणि सूर्य आकर्षणशक्तीद्वारा एकमेकाशी बांधले गेले आहेत, तद्वत शरीर, वाणी आणि मन, यांच्यामधे पारस्परिक आकर्षक असावे व सर्वजण प्रेमाच्या बंधनाने बांधलेले असावेत.॥14॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O man, full of force like fire, by mysterious nature; thou art coupled with action, contemplation and knowledge; thou art disciplined like a just ruler; thou art resplendent with knowledge like the Sun ; thou art like a learned person; thou art specially united with grandeur. They say there are three bonds in the spread of knowledge that hold thee.

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    Meaning

    By the intrinsic law of your own existence, you are Yama, controller and judge; you are Aditya, sun and source of light; you are Arvan, moving fast as light. You arise from three because of three, earth, water and sky. You are one with, undivided from, Soma, peace, prosperity and joy. And they say your bonds are three in heaven. (You are Agni, the sun, therefore you have to be brilliant because you cannot be the sun without the light. You are at peace in security as one member of the galaxy family of suns and stars. And you are happy with the prosperity of your own solar family. You have to observe this triple bond. )

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    Translation

    O sun, you are the law-giver; you are the luminous giant and you float as if by a mysterious act. You are associated with the moon also. The sages say that you have three stations in the luminouos space. (1)

    Notes

    Guhyena vratena, by a secret mysterious act; by an act of universal character.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (অর্বন্) বেগবান্ অগ্নির সমান ব্যক্তি ! যদ্দ্বারা তুমি (গুহ্যেন) গুপ্ত (ব্রতেন) স্বভাব তথা (ত্রিতঃ) কর্ম্ম, উপাসনা, জ্ঞান দ্বারা যুক্ত (য়মঃ) নিয়মকর্ত্তা ন্যায়াধীশের তুল্য (অসি) আছো, (আদিত্যঃ) সূর্য্য তুল্য বিদ্যা দ্বারা প্রকাশিত যেমন (অসি) আছো, বিদ্বানের সংখ্যা (অসি) আছো, (সোমেন) ঐশ্বর্য্যের (সময়া) নিকট (বিপৃক্তঃ) বিশেষ করিয়া সংলগ্ন (অসি) আছো, সেই (তে) তোমার (দিবি) প্রকাশে (ত্রীণি) তিন (বন্ধনানি) বন্ধন গুলিকে অর্থাৎ ঋষি, দেব, পিতৃ ঋণের বন্ধনগুলিকে (আহুঃ) বলে ॥ ১৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ ! তোমাদের উচিত যে, ন্যায়াধীশ সূর্য্য ও চন্দ্র আদির গুণযুক্ত হইবে । যেমন এই সংসারের মধ্যে বায়ু ও সূর্য্যের আকর্ষণ দ্বারা বন্ধন তদ্রূপই পরস্পর শরীর, বাণী ও মনের আকর্ষণ দ্বারা প্রেমের বন্ধন করিবে ॥ ১৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অসি॑ য়॒মোऽঅস্যা॑দি॒ত্যোऽঅ॑র্ব॒ন্নসি॑ ত্রি॒তো গুহ্যে॑ন ব্র॒তেন॑ ।
    অসি॒ সোমে॑ন স॒ময়া॒ বিপৃ॑ক্তऽআ॒হুস্তে॒ ত্রীণি॑ দি॒বি বন্ধ॑নানি ॥ ১৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অসীত্যস্য ভার্গবো জগদগ্নিরৃষিঃ । অগ্নির্দেবতা । বিরাট ত্রিষ্টুপ্ছন্দঃ ॥
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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