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यजुर्वेद अध्याय - 29

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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 41
    ऋषिः - भारद्वाज ऋषिः देवता - वीरा देवताः छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    2

    तेऽआ॒चर॑न्ती॒ सम॑नेव॒ योषा॑ मा॒तेव॑ पु॒त्रं बि॑भृतामु॒पस्थे॑। अप॒ शत्रू॑न् विध्यता संविदा॒नेऽआर्त्नी॑ऽइ॒मे वि॑ष्फु॒रन्ती॑ऽअ॒मित्रा॑न्॥४१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तेऽइति॒ ते। आ॒चर॑न्ती॒ इत्या॒ऽचर॑न्ती। सम॑ने॒वेति॒ सम॑नाऽइव। योषा॑। मा॒तेवेति॑ मा॒ताऽइ॑व। पु॒त्रम्। बि॒भृ॒ता॒म्। उ॒पस्थ॒ इत्यु॒पऽस्थे॑। अप॑। शत्रू॑न्। वि॒ध्य॒ता॒म्। सं॒वि॒दा॒ने इति॑ स्ऽविदा॒ने। आर्त्नी॒ऽइत्या॑र्त्नी॑। इ॒मेऽइती॒मे। वि॒ष्फु॒रन्ती॑। वि॒स्फु॒रन्ती॒ इति॑ विऽस्फु॒रन्ती॑। अ॒मित्रा॑न् ॥४१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तेऽआचरन्ती समनेव योषा मातेव पुत्रम्बिभृतामुपस्थे । अप शत्रून्विध्यताँ सँविदाने आर्त्नीऽइमे विष्पुरन्तीऽअमित्रान् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तेऽइति ते। आचरन्ती इत्याऽचरन्ती। समनेवेति समनाऽइव। योषा। मातेवेति माताऽइव। पुत्रम्। बिभृताम्। उपस्थ इत्युपऽस्थे। अप। शत्रून्। विध्यताम्। संविदाने इति स्ऽविदाने। आर्त्नीऽइत्यार्त्नी। इमेऽइतीमे। विष्फुरन्ती। विस्फुरन्ती इति विऽस्फुरन्ती। अमित्रान्॥४१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 41
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह॥

    अन्वयः

    हे वीराः! ये योषा समनेव पतिं मातेव पुत्रं बिभृतामुपस्थे आचरन्ती शत्रूनप विध्यतामिमे संविदाने आर्त्नी अमित्रान् विष्फुरन्ती वर्त्तेते, ते यथावत् संप्रयुङ्ग्ध्वम्॥४१॥

    पदार्थः

    (ते) धनुर्ज्ये (आचरन्ती) समन्तात् प्राप्नुवत्यौ (समनेव) सम्यक् प्राण इव प्रिया (योषा) विदुषी स्त्री (मातेव) जननीव (पुत्रम्) सन्तानम् (बिभृताम्) धरेताम् (उपस्थे) समीपे (अप) दूरीकरणे (शत्रून्) अरीन् (विध्यताम्) ताडयेताम् (संविदाने) सम्यग्विज्ञाननिमित्ते (आर्त्नी) प्राप्यमाणे (इमे) (विष्फुरन्ती) विशेषेण चालयन्त्यौ (अमित्रान्) मित्रभावरहितान्॥४१॥

    भावार्थः

    अत्र द्वावुपमालङ्कारौ। यथा हृद्या स्त्री पतिं विदुषी च माता पुत्रं सम्पोषयतस्तथा धनुर्ज्ये संविदितक्रिये शत्रून् पराजित्य वीरान् प्रसादयतः॥४१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे वीर पुरुषो! दो धनुष् की प्रत्यञ्चा (योषा) विदुषी (समनेव) प्राण के समान सम्यक् पति को प्यारी स्त्री स्वपति को और (मातेव) जैसे माता (पुत्रम्) अपने सन्तान को (बिभृताम्) धारण करें, वैसे (उपस्थे) समीप में (आचरन्ती) अच्छे प्रकार प्राप्त हुई (शत्रून्) शत्रुओं को (अप) (विध्यताम्) दूर तक ताड़ना करें (इमे) ये (संविदाने) अच्छे प्रकार विज्ञान की निमित्त (आर्त्नी) प्राप्त हुर्इं (अमित्रान्) शत्रुओं को (विष्फुरन्ती) विशेष कर चलायमान करती वर्त्तमान हैं, (ते) उन दोनों का यथावत् सम्यक् प्रयोग करो अर्थात् उन को काम में लाओ॥४१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में दो उपमालङ्कार हैं। जैसे हृदय को प्यारी स्त्री पति को और विदुषी माता अपने पुत्र को अच्छे प्रकार पुष्ट करती है, वैसे सम्यक् प्रसिद्ध काम देने वाली धनुष् की दो प्रत्यञ्चा शत्रुओं को पराजित कर वीरों को प्रसन्न करती हैं॥४१॥

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    विषय

    उसका शत्रुनाशकारी कार्य ।

    भावार्थ

    ( समना योषा इव) एकचित्त होकर रहने वाली प्रियतमा स्त्री - पति को और (माता इव) माता दोनों (सं विदाने) परस्पर मिलकर अपने उस ही प्रेमपात्र ( पुत्रम् ) पुत्र को ( उपस्थे ) अपन गोद या क्रोड में 'आलिंगन कर (विभृताम् ) धारण करती हैं । उसी प्रकार (इमे आर्ली) ये दोनों धनुष को डोरी से बंधी दोनों कोटियां भी धनुर्दण्ड का अथवा (पुत्रम्) पुरुषों की रक्षा करने वाले वीर सेनापति का ( विभृताम् ) पोषण करती हैं और (ते) वे दोनों ( आचरन्ती ) उसके दोनों तरफ पत्नी और माता के समान रक्षक और सेवकरूप से आचरण करने वाली होकर ( तान् शत्रून् अपविध्य ) उन शत्रुओं को दूर से ही ताड़न करके और ( अमित्रान् ) शत्रुओं को ( विस्फुरन्ती) विविध प्रकारों से विनष्ट करती हुई राजा की (विभृताम् ) रक्षा करें । इसी से धनुर्व्यूह की दोनों सेनाओं का भी वर्णन कर दिया है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वीराः । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    आर्ली [श्रद्धा व विद्या ]

    पदार्थ

    १. (ते आर्ली) = वे दोनों धनुष्कोटियाँ (समना योषा इव आचरन्ती) = समान पति में गये हुए मनवाली स्त्रियों की भाँति आचरण करती हुईं, (माता पुत्रम् इव) = जिस प्रकार माता पुत्र को, उसी प्रकार (उपस्थे) = गोद में (बिभृताम्) = शर को धारण करें। दोनों धनुष्कोटियाँ धानुष्क को इस प्रकार प्राप्त होती हैं जैसे दो स्त्रियाँ समान पति को प्राप्त होती है। पत्नी शक्ति का प्रतीक है। यहाँ धानुष्क की शक्ति इन दोनों कोटियों में निहित है। अध्यात्म में ये दोनों कोटियाँ 'श्रद्धा और विद्या' है। आत्मा इनका पति है, आत्मा की शक्ति श्रद्धा और विद्या पर निर्भर करती है। इन दोनों कोटियों के मध्य में जैसे शर निहित होता है, उसी प्रकार यहाँ श्रद्धा और विद्या के मध्य में कर्म है। जो कर्म श्रद्धा व विद्या से मिलकर किया जाता है, वह कर्म वीर्यवत्तर होता है। २. (इमे) = ये दोनों (आर्त्नी) = धनुष्कोटियाँ (संविदाने) = परस्पर एकभाव को प्राप्त हुईं-हुईं, परस्पर सिली-सी हुईं ('मूर्धानमस्य संसीव्य हृदयं च यत्', अमित्रान्) = अस्नेहवालों को, अर्थात् शत्रुओं को (विष्फुरन्ती) = [विशेषेण चालयन्त्यौ ] विशेषरूप से डाँवाडोल करती हुई शत्रून् शत्रुओं को (अपविध्यताम्) = विद्ध करके दूर भगा दें। हमें चाहिए कि हम अपने जीवन में श्रद्धा से विद्या का पोषण करें और विद्या से श्रद्धा को दृढमूल करें। इस प्रकार श्रद्धा और विद्या को परस्पर मिला दें। जब हम श्रद्धा व ज्ञानपूर्वक प्रभु के नाम का उच्चारण व अपने अन्य कर्म करें तब काम, क्रोधादि शत्रु काँप उठें और हमारे हृदय से दूर भाग जाएँ। परस्पर सम्बद्ध होंगी तो

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रणवरूप धनुष की श्रद्धा व विद्यारूप दोनों कोटियाँ इस धनुष से इस प्रकार कर्मरूप तीव्र शर चलेंगे कि वासनारूप सब शत्रुओं का संहार हो जाएगा।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. जशी अंतःकरणाला प्रिय असलेली स्री पतीला पुष्ट करते व विदुषीमाता आपल्या पुत्रांना पुष्ट करते तशा धनुष्यांच्या दोन प्रत्यंचा शत्रूंना पराजित करून वीरांना प्रसन्न करतात.

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    विषय

    पुन्हा, त्याच विषयी -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे वीर पुरुषहो, ही धनुष्याची प्रत्यंचा (दोरी) (कशाप्रकारे कार्य करते वा कशाप्रकारे सैनिकाला प्रिय आहे? जसे (योषा) एक विदुषी स्त्री (समनेव) प्राणाप्रमाणे आपल्या पतीला प्रिय मानते अथवा (मातेव) जशी एक माता (पुत्रम्) आपल्या पुत्राचे (बिभृतरम्) धारण पोषण करते. त्याप्रमाणे ही प्रत्यंचा (उपस्थे) सैनिकाजवळ राहून (आचरन्ती) त्याला नेहमी प्राप्त असते आणि (शत्रून्) शत्रूंना (अप, विध्यताम्) दूरपर्यंत पळविते, ताडित करते. (इमे) या धनुष्याच्या प्रत्यंचा (संविदाने) विज्ञानाने परिषकृत व (आर्त्नी) निर्मित असून (अमित्रान्) शत्रूंना (विष्फुरन्ती) विशेषत्वाने चलायमान करतात (पळायला लावतात) (ते) त्या दोन्ही वस्तूंचा धनुष्याचा आणि दोरीचा यथोचित प्रयोग करा. ॥41॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात उपमा अलंकार आहेत. (‘समनेव योणा’ आणि ‘मातेव’) आपल्या प्रिय पतीला आणि विदुषी माता आपल्या पुत्राला चांगल्या प्रकारे सेवा पोषणादीद्वारा प्रसन्न करते वा पुष्ट करते, तद्वत उत्तम काम देणार्‍या धनुष्येच्या दोन प्रत्यंचा शत्रूंना पराजित करून वीरांना आनंदित करतात. ॥41॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as a learned wife behaves towards her husband, and a mother towards her child so these two bow-strings, well procured, together beat the foes, and in unison scatter asunder, the foes who hate us.

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    Meaning

    Behaving as a beloved wife one at heart with her husband, the two ends of the bow joined together by the string may hold the arrow like a mother holding her baby in her arms, and, shaking the enemies with fear, may pierce them with the arrow and scatter and drive them away with the twang.

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    Translation

    May the two extremities of the bow act consentaneouly, like a wife and sympathizing (with her husband) uphold (the warrior) as a mother nurses her child upon her lap. And may they, moving concurrently and harassing the foe, scatter his enemies. (1)

    Notes

    Ārtní, धनुष: कोटी:, the two bow-ends. The extremities of the bow where the string is attached. Samanā iva yoşā, like a passionate damsel sympathizing (with her husband). Also, two women, with a common husband and of friendly mind (Mahīdhara). According to him, 'yoşa' is used in place of 'yoşe' (two women). Samvidāne, of one mind; moving concurrently; making signs to each other; in unison. Visphuranti, harassing (the foe).

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনস্তমেব বিষয়মাহ ॥
    পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বীর পুরুষগণ ! দুইটি ধনুকের প্রত্যঞ্চা (যোষা) বিদুষী (সমনেব) প্রাণের সমান সম্যক্ পতিকে প্রিয় স্ত্রী স্বপতিকে এবং (মাতেব) যেমন মাতা (পুত্রম্) স্বীয় সন্তানকে (বিভূতাম্) ধারণ করিবে সেইরূপ (উপস্থে) সমীপে (আচরন্তী) ভালমত প্রাপ্ত (শত্রূন্) শত্রুদিগকে (অপ) (বিধ্যতাম্) দূর পর্যন্ত তাড়না করিবে (ইমে) এই সব (সংবিদানে) সম্যক্ প্রকার বিজ্ঞানের নিমিত্ত (আর্ত্নী) প্রাপ্ত (অমিত্রান্) শত্রুদিগকে (বিষ্ফুরন্তী) বিশেষ করিয়া চলায়মান করে – বর্ত্তমান (তে) সেই উভয়ের যথাবৎ সম্যক্ প্রয়োগ কর অর্থাৎ তাহাদিগকে কর্মে ব্যবহার কর ॥ ৪১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে দুইটি উপমালঙ্কার আছে । যেমন হৃদয়ের প্রিয় স্ত্রী পতিকে এবং বিদুষী মাতা স্বীয় পুত্রকে সম্যক্ প্রকার পুষ্ট করে সেইরূপ সম্যক্ প্রসিদ্ধ ব্যবহারোপযোগী ধনুককে দুইটি প্রত্যঞ্চা শত্রুদিগকে পরাজিত করিয়া বীরদেরকে প্রসন্ন করে ॥ ৪১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    তেऽআ॒চর॑ন্তী॒ সম॑নেব॒ য়োষা॑ মা॒তেব॑ পু॒ত্রং বি॑ভৃতামু॒পস্থে॑ । অপ॒ শত্রূ॑ন্ বিধ্যতাᳬं সংবিদা॒নেऽআর্ত্নী॑ऽই॒মে বি॑ষ্ফু॒রন্তী॑ऽঅ॒মিত্রা॑ন্ ॥ ৪১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ত আচরন্তী ইত্যস্য ভারদ্বাজ ঋষিঃ । বীরা দেবতাঃ । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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