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यजुर्वेद अध्याय - 29

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  • यजुर्वेद - अध्याय 29/ मन्त्र 35
    ऋषिः - भार्गवो जमदग्निर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    5

    उ॒पाव॑सृज॒ त्मन्या॑ सम॒ञ्जन् दे॒वानां॒ पाथ॑ऽऋतु॒था ह॒वीꣳषि॑।वन॒स्पतिः॑ शमि॒ता दे॒वोऽअ॒ग्निः स्वद॑न्तु ह॒व्यं मधु॑ना घृ॒तेन॑॥३५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒पाव॑सृ॒जेत्युप॒ऽअव॑सृज। त्मन्या॑। स॒म॒ञ्जन्निति॑ सम्ऽअ॒ञ्जन्। दे॒वाना॑म्। पाथः॑। ऋ॒तु॒थेत्यृ॑तु॒ऽथा। ह॒वींषि॑। वन॒स्पतिः॑। श॒मि॒ता। दे॒वः। अ॒ग्निः। स्वद॑न्तु। ह॒व्यम्। मधु॑ना। घृ॒तेन॑ ॥३५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उपावसृज त्मन्या समञ्जन्देवानाम्पाथ ऋतुथा हवीँषि । वनस्पतिः शमिता देवोऽअग्निः स्वदन्तु हव्यम्मधुना घृतेन् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उपावसृजेत्युपऽअवसृज। त्मन्या। समञ्जन्निति सम्ऽअञ्जन्। देवानाम्। पाथः। ऋतुथेत्यृतुऽथा। हवींषि। वनस्पतिः। शमिता। देवः। अग्निः। स्वदन्तु। हव्यम्। मधुना। घृतेन॥३५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 29; मन्त्र » 35
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    प्रत्यृतुर्होतव्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे विद्वंस्त्वं देवानां पाथो मधुना घृतेन समञ्जन् त्मन्या हवींषि ऋतुथोपावसृज तेन त्वया दत्तं हव्यं वनस्पतिः शमिता देवोऽग्निश्च स्वदन्तु॥३५॥

    पदार्थः

    (उपावसृज) यथावद्देहि (त्मन्या) आत्मना (समञ्जन्) सम्यक् मिश्रीकुर्वन् (देवानाम्) विदुषाम् (पाथः) भोग्यमन्नादिकम् (ऋतुथा) ऋतौ (हवींषि) आदातव्यानि (वनस्पतिः) किरणानां स्वामी (शमिता) शान्तिकरः (देवः) दिव्यगुणो मेघः (अग्निः) पावकः (स्वदन्तु) प्राप्नुवन्तु (हव्यम्) अत्तव्यम् (मधुना) मधुरादिरसेन (घृतेन) घृतादिना॥३५॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः शुद्धानां पदार्थनामृतावृतौ होमः कर्त्तव्यो येन तद्धुतं द्रव्यं सूक्ष्मं भूत्वा क्रमेणाग्निसूर्यमेघान् प्राप्य वृष्टिद्वारा सर्वोपकारि स्यात्॥३५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    ऋतु-ऋतु में होम करना चाहिए, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् पुरुष! तू (देवानाम्) विद्वानों के (पाथः) भोगने योग्य अन्न आदि को (मधुना) मीठे कोमल आदि रसयुक्त (घृतेन) घी आदि से (समञ्जन्) सम्यक् मिलाते हुए (त्मन्या) अपने आत्मा से (हवींषि) लेने भोजन करने योग्य पदार्थों को (ऋतुथा) ऋतु-ऋतु में (उपावसृज) यथावत् दिया कर अर्थात् होम किया कर। उस तैने दिये (हव्यम्) भोजन के योग्य पदार्थ को (वनस्पतिः) किरणों का स्वामी सूर्य्य (शमिता) शान्तिकर्त्ता (देवः) उत्तम गुणों वाला मेघ और (अग्निः) अग्नि (स्वदन्तु) प्राप्त होवें अर्थात् हवन किया पदार्थ उनको पहुंचे॥३५॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिए कि शुद्ध पदार्थों का ऋतु-ऋतु में होम किया करें, जिससे वह द्रव्य सूक्ष्म हो और क्रम से अग्नि, सूर्य तथा मेघ को प्राप्त होके वर्षा के द्वारा सब का उपकारी होवे॥३५॥

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    विषय

    ऋत्वनुसार भोजनों की व्यवस्था।

    भावार्थ

    हे विद्वान् ! ( देवानाम् ) विद्वानों के (पाथः) पान, भोजन करने योग्य जल, दुग्ध और (हवींषि) अन्नों को (ऋतुथा) ऋतुओं के अनुसार ( त्मन्या ) अपनी बुद्धि से ( सम् अञ्जन् ) प्रकट करता हुआ ( उप अवसृज) प्रदान कर। इसी प्रकार ( हव्यम् ) हवन करने योग्य चरु को (मधुना) मधुर गुण युक्त (घृतेन) घृत से ( सम् अञ्जन् ) मिला कर (उप अवसृज) आहुति प्रदान कर जिससे ( वनस्पतिः) किरणों का पालक सूर्य और ( शमिता देवः) शान्तिदायक मेघ और (देवः अग्निः) तेजस्वी, आग, तीनों (स्वदन्तु) ग्रहण करें । (२) राष्ट्र और गृहपक्ष में -विद्वान् पुरुष मधुर घृत आदि से अन्नों को मिलाकर ऋतु-ऋतु के अनुसार अन्नों का प्रदान करे । (वनस्पतिः) वनस्पति के समान सर्वाश्रय राजा या गृहपति (शमिता) शान्तिप्रद ब्राह्मण विद्वान् और (अग्निः देवः) अग्रणी सेनापति आदि प्रमुख पुरुष उन सब पदार्थों का यथावत् उपभोग करें । उन मुख्य पुरुषों का भोजन विद्वान् वैद्य के निरीक्षण में हो, वह ऋतु अनुसार पुष्टिकारक पदार्थों के साथ मिलाकर उनको भोजन दे ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निः । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥

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    विषय

    वनस्पति- शमिता-देव-अग्नि

    पदार्थ

    १. हे जमदग्ने ! तू (त्मन्या) = स्वयं [आत्मना] (देवानाम् पाथे) = देवताओं के मार्ग में अर्थात्, देवयान मार्ग पर चलते हुए (समञ्जन्) = अपने जीवन को सद्गुणों से अलंकृत करने के हेतु से (ऋतुथा) = ऋतु के अनुसार (हवींषि) = हव्य पदार्थों को (उपावसृज) = उपासना के साथ, प्रभु-स्मरणपूर्वक अपने में डाल, अर्थात् प्रभुस्मरण करते हुए हव्य पदार्थों का भोजन कर। 'जैसा अन्न वैसा मन', इस उक्ति के अनुसार तेरा जीवन वैसा ही बनेगा जैसा तू भोजन करेगा। तू देवयान मार्ग से चलनेवाला बन और सात्त्विक भोजन का सेवन कर तभी तुझमें दिव्य गुणों की उत्पत्ति होगी । २. (वनस्पतिः) = तू ज्ञान की रश्मियों का पति बन, (शमिता) = शान्त स्वभाववाला हो। (देवः) = दिव्य गुणों का अपने में विकास कर। अग्निः निरन्तर आगे बढ़ानेवाला हो। ३. जो 'वनस्पति, शमिता, देव व अग्नि' बनना चाहते हैं, वे (हव्यम्) = हव्य पदार्थों को ही, पवित्र यज्ञिय भोजनों को ही (मधुना घृतेन) = शहद व घृत के साथ (स्वदन्तु) = खानेवाले हों, आनन्दपूर्वक इन्हीं वस्तुओं का सेवन करें। 'हव्य, मधु, घृत' ये सात्त्विक पदार्थ हमारे मनों को भी सात्त्विक बनाएँगे। इस प्रकार हमारा ज्ञान बढ़ेगा, हमारे मन प्रसादगुणयुक्त व शान्त होंगें, हममें दिव्य गुणों का विकास होगा और हम आगे ही आगे बढ़ेंगे।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम देवयान मार्ग से चलते हुए जीवन को सद्गुणों से अलंकृत करने के हेतु सात्त्विक भोजन का ही सेवन करें। यज्ञिय, वनस्पति भोजन, मधु व घृत का ही प्रयोग करें।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    प्रत्येक ऋतूमध्ये शुद्ध पदार्थांची आहुती देऊन माणसांनी होम करावा. ज्यामुळे ते द्रव्य सूक्ष्म बनून क्रमाने अग्नी, सूर्य व मेघ यांना प्राप्त होते. त्यामुळे यज्ञाद्वारे व वृष्टीद्वारे सर्वांवर उपकार करावा.

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    विषय

    कोण कोणत्या ऋतूत यज्ञ केला पाहिजे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्वान महोदय, तुम्ही (देवानाम्) विद्वज्जनांनी (पाथ।) खाण्यास योग्य अशा अन्नादी पदार्थ (त्यांना देत जा) (आपल्या घरी आलेल्या विद्वान अतिथिचा भोजनादीने सत्कार करीत जा) त्या अन्नात (मधुना) मधुर मिष्ठान्न आदी रस, तसेच (घृतेन) तूप आदी स्निग्ध पदार्थ (समञ्जन्) मिश्रित करावेत आणि (त्मन्या) अगदी मनापासून प्रेमाने ते (हवींषि) भोज्य पदार्थ (ऋतुधा) प्रत्येक ऋतूच्या अनुकूलतेप्रमाणे (उपावसृज) त्याना देत जा म्हणजे होम करीत जा. तुम्ही दिलेल्या (हव्याम्) भोजनयोग्य पदार्थांना (वनस्पतिः) किरणांचा स्वामी सूर्य (शमिता) शांतिकर्ता (देवः) उत्तमगुणकारक मेघा आणि (अग्निः) अग्नी (स्वदन्तु) प्राप्त करात अर्थात् होमाद्वारे ते भोज्य पदार्थ त्यांच्यापर्यंत जावेत. ॥35॥

    भावार्थ

    भावार्थ - मनुष्यांनी प्रत्येक ऋतूत शुद्ध पदार्थांद्वारे होम करावा. ज्यामुळे ते पदार्थ सूक्ष्म होऊन क्रमशः अग्नी, सूर्य तसेच मेघमंडलापर्यंत जावेत आणि मग वृष्टी होऊन सर्वांचेच हित होईल. ॥35॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O learned person, put into fire, at different seasons, with devotion, in the form of oblations, eatables mixed with honey and butter, fit to be taken by the learned. May the Sun, cloud and fire receive thy oblations.

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    Meaning

    Scholar, sprinkling and seasoning the holy materials of yajna, food for the divinities, with honey and ghrta, offer the libations yourself with your heart and soul so that Vanaspati, lord of light and vegetation, the sun, the generous cloud, giver of the showers of peace and prosperity, and Agni, the holy fire, may relish their food seasoned with delicacies.

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    Translation

    O Lord, may you send in proper seasons for the enlightened ones the food, which is made delicious with your own grace; may the vegetation (vanaspati), the soothing cloud, and the sacrificial fire enjoy the offerings mixed with honey and purified butter. (1)

    Notes

    Tmanya, आत्मना, by yourself; with your own grace. Pathaḥ, हवि: अन्नं, sacrificial material; food. Madhunā ghṛtena, with delicious clarified butter;मधुना घृतेन च, with honey and butter. Samitā, शान्तिकरः, soothing. Devah, दिव्यगुणो मेघ:, cloud divine.

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    बंगाली (1)

    विषय

    প্রতৃ্যতুর্হোতব্যমিত্যাহ ॥
    প্রতি ঋতুতে হোম করা উচিত, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে বিদ্বন্ পুরুষ! তুমি (দেবানাম্) বিদ্বান্দিগের (পাথঃ) ভোগ্য অন্নাদিকে (মধুনা) মিষ্ট কোমলাদি রসযুক্ত (ঘৃতেন) ঘৃতাদি দ্বারা (সমঞ্জন্) সম্যক্ মিশ্রিত করিয়া (ত্মন্যা) স্বীয় আত্মা দ্বারা (হবীংষি) গ্রহণ করিবার, ভোজন করিবার যোগ্য পদার্থগুলিকে (ঋতুথা) প্রত্যেক ঋতুতে (উপাবসৃজ) যথাবৎ প্রদান কর অর্থাৎ হোম করিতে থাক । তোমার দ্বারা প্রদত্ত (হব্যম্) ভোজনের যোগ্য পদার্থকে (বনস্পতিঃ) কিরণগুলির স্বামী সূর্য্য (শমিতা) শান্তিকর্ত্তা (দেবঃ) উত্তম গুণসম্পন্ন মেঘ ও (অগ্নিঃ) অগ্নি (স্বদন্তু) প্রাপ্ত হউক অর্থাৎ বহন কৃত পদার্থ তাহার পর্যন্ত উপস্থিত হয় ॥ ৩৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, শুদ্ধ পদার্থের প্রত্যেক ঋতুতে হোম করিতে থাকিবে যাহাতে এই দ্রব্য সূক্ষ্ম হয় এবং ক্রমপূর্বক অগ্নি, সূর্য্য তথা মেঘকে প্রাপ্ত হইয়া, বর্ষা দ্বারা সকলের উপকার হয় ॥ ৩৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    উ॒পাব॑সৃজ॒ ত্মন্যা॑ সম॒ঞ্জন্ দে॒বানাং॒ পাথ॑ऽঋতু॒থা হ॒বীꣳষি॑ ।
    বন॒স্পতিঃ॑ শমি॒তা দে॒বোऽঅ॒গ্নিঃ স্বদ॑ন্তু হ॒ব্যং মধু॑না ঘৃ॒তেন॑ ॥ ৩৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    উপাবসৃজেত্যস্য জমদগ্নির্ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । নিচৃৎ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ।

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